खरी शिक्षा के अभाव ने पनपाया प्रशासनिक तंत्रजाल

राज्‍यदंड या शासन एवं कानून की व्‍यवस्‍था मूलत: एक अवांछनीय व्‍यवस्‍था है, यह एक बुराई है, पर मजबूरी यह है कि एक अवांछनीय व्‍यवस्‍था तथा एक बुराई होते हुए भी मनुष्‍य जाति की जो वास्‍तविक दशा है उसमें यह आवश्‍यक है। इससे पूर्णतया बचने के जैसा युग अभी तक आया नहीं है। एक कल्‍पना रामराज की हमारे देश में रही है  सब लोग नेकनीयत वाले, कर्तव्‍यपरायण, ईमानदार तथा आपस में एक दूसरे को सहारा देनेवाले, दयावान् लोग थे। उस युग में लोग घरों को बिना ताला लगाये छोड़ सकते थे। पुलिस के लिए कोई काम नहीं था, न्‍यायालय सूने पड़े रहते थे, जेलें खाली थीं, कानूनों से लोगों को नियंत्रित करने की कोई जरूरत नहीं थी। ऐसी स्थिति राजराज्‍य की थी क्‍योंकि राम राज्‍य में जनता को जो शिक्षा मिलती थी, वह इतनी अच्‍छी तथा सफल थी कि लोग बिना राज्‍यदंड के भय के और बिना कानूनी मजबूरी के स्‍वत: अपनी मर्यादाओं के भीतर रहते थे, अपनी मर्यादाओं का उल्‍लंघन नहीं करते थे, परिश्रमी थे, स्‍वावलंबी थे और इतने समवेदनापूर्ण या दयालु थे कि दुर्बल, रोगी या निर्धन या विकलांग या वृद्ध की सेवा तथा चिंता स्‍वयं कर लेते थे।

अब इस नये युग में भी आदर्श समाज व्‍यवस्‍था वही मानी गयी है जिसमें राज्‍य संस्‍था समाज रूपी वृक्ष से पतझड़ के पत्‍ते की तरह झड़ जाय, राज्‍य संस्‍था विलीन या लुप्‍त हो जाय और एक अराजक या राज्‍यहीन समाज की स्‍थापना हो जाय । साम्‍यवाद के धुरंधर दार्शनिकों का आदर्श समाज की व्‍यवस्‍था का सपना भी यही था जो रामराज्‍य की पुरानी कल्‍पना से मिलता-जुलता है चाहे साम्‍यवादियों का कोई भी लेना-देना राम से न रहा हो।

भारत की प्राचीन राजनीति या प्राचीन राज्‍यव्‍यवस्‍था यह मानती थी कि समाज में मर्यादापालन, निर्बलों की चिंता और सेवा, कुओं की खुदाई, यात्रियों के लिए सरायों या धर्मशालाओं का निर्माण तथा संचालन, चरागाहों, जंगलों, जलाशयों की रक्षा, सामान्‍य आपसी विवादों एवं झगड़ों का समाधान और न्‍याय, बालशिक्षा के लिए गुरुओं की व्‍यवस्‍था, प्रौढ़ शिक्षा के लिये कथावाचकों एवं रमते जोगियों और संन्‍यासियों का सत्‍कार एवं भरणपोषण आदि सारे दायित्‍व तो जनता स्‍वयं उठा लेगी पर जहॉं अपवाद स्‍वरूप चंद लोग ऐसे होंगे जो समाज की निजी व्‍यवस्‍थाओं से, समाज के निजी शिक्षण एवं संस्‍कारों से नहीं सुधरेंगे उनको अपनी दण्‍डशक्ति या अपने कानून की पकड़ से सरकार या तो सुधारेगी या नियंत्रित करेगी। सरकार जनता को चोरों, डाकुओं, लुटेरों, आक्रमणकारियों, महामारियों तथा अकालों से बचाने का काम करेगी, सरकार लोगों के आवागमन तथा सामान के लाने ले जाने की सुरक्षित व्‍यवस्‍था करेगी और साथ ही सरकार ज्ञानी लोगों और सज्‍जनों का सम्‍मान एवं संरक्षण करेगी ताकि आम जनता भी (सरकार की देखादेखी) सज्‍जनों का सम्‍मान, अनुसरण एवं संरक्षण करे।

उस युग में शिक्षा का आज जैसा बँधा बँधाया, एक लीक पर ही चलने वाला, राज्‍यनिर्धारित रूप नहीं था। जीवन को जीना और शिक्षा प्राप्‍त करना एक ही प्रक्रिया के दो अभिन्‍न पहलू थे। शिक्षा का मूल साधन था बुजुर्गों की संगति तथा समय समय के पर्व, उत्‍सव, त्‍यौहार एवं जीवन में समय समय पर होने वाले संस्‍कार।

माता-पिता की सलाह अपनी संतानों के लिए उन दिनों इस प्रकार की थी- ”देखो भाई, हम तो तुम्‍हारे दैहिक माता-पिता हैं। हमारा-तुम्‍हारा संबंध मोहग्रस्‍त है और ममतामय है पर हम तथा हमारा संबंध ही तुम्‍हारे लिए काफी नहीं है। तुम अपने लिए एक समदर्शी, अनासक्‍त एवं योग्‍य गुरू की खोज करो जो तुम्‍हारे मन तथा तुम्‍हारी आत्‍मा का कल्‍याण कर सके। गुरू के बिना मनुष्‍य ”नगुरा” होता है (यानी गुरू के बिना मनुष्‍य अनुशासनहीन, मर्यादारहित तथा नाशुक्रा यानी कृतध्‍न या हरामी होता है) अत: तुम एक सुयोग्‍य गुरू खोज कर उसके शिष्‍य बनो।” प्राय- बस्तियों से कुछ दूर कोई न कोई संन्‍यासी अपना आश्रम बनाकर रहता था, जिसका भरणपोषण गाँव के भक्‍त एवं उसके शिष्‍य लोग करते थे। ऐसे संत का सम्‍मान बस्‍ती के जागीरदार, ठाकुर या राजा से भी ज्‍यादा होता था, बल्कि बस्‍ती का जागीरदार, ठाकुर या राजा भी ऐसे संत, संन्‍यासी का आदर करता था। गाँव के कई नवयुवक ऐसे संत के शिष्‍य बन जाते थे, उसकी सेवा तथा उसका सत्‍संग करते थे तथा उसके मार्गदर्शन को शिरोधार्य करके सात्विक जीवन का पालन करते थे।

जहाँ तक आजीविका की तैयारी वाली शिक्षा का संबंध था, घर का पैतृक व्‍यवसाय हर बालक के लिये उपलब्‍ध था। अतः आजीविका प्राप्ति की शिक्षा के लिए परिवार को कोई पैसा नहीं खर्चना पड़ता था बल्कि बालक अपने पिता को उसकी आजीविका कमाने में मदद करते हुए आजीविका की अच्‍छी शिक्षा प्राप्‍त कर लेता था। इस प्रकार बालक पिता के लिए एक राहत, एक सहारा, एक लाभप्रद इकाई होता था, न कि एक भार और एक खर्चे का कारण, जैसा कि वह आज है। आजीविका की इस तरह की शिक्षा के कारण आज की तरह दक्ष होने के बाद भी बेरोजगारी की या रोजगार की तलाश की कोई समस्‍या नहीं थी। आज बेरोजगारी की समस्‍या न केवल परिवारों के सामने, बल्कि सरकार के सामने भी, एक भयंकर तथा चिंताजनक रूप धारण कर चुकी है। पर यह समस्‍या इस भयंकर रूप में पूर्वकाल में नहीं थी क्‍योंकि हर परिवार का अपना धंधा था और संतान अपने पारिवारिक धंघे को ही अपना लेती थी।

ऊपर के तमाम वर्णन या विवरण का सार यही है कि भार तो थी सरकार जिसको ढोती थी जनता और आज की सी उलटी स्थिति नहीं थी कि भार बन गयी है जनता जिसको ढोने का ढोंग कर रही है हमारी तथाकथित लोकतांत्रिक सरकार और इस प्रक्रिया में देश का पेंदाझाड़ दिवाला भी हमारी लोकतांत्रिक सरकार ही निकाल नही है । यानी आज सरकार की भूमिका और शिक्षा की भूमिका बिल्‍कुल उलट गयी है। शिक्षा की मूल भूमिका तो यह है कि वह सरकार का कार्यभार हल्के से भी हल्का करे, सरकार के तंत्रजाल को फैलने न दे बल्कि उसे सिकोड़े और सीमित करे । पर आज क्‍या हो रहा है? आज सरकार तो शिक्षा को फैला रही है और बदले में शिक्षा भी सरकारी तंत्रजाल को सुरसा के मुख की तरह निरंतर फैलाती चली जा रही हैा दरअसल आज जिसे शिक्षा का नाम दिया जा रहा है, उसे शिक्षा कहना भी एक धोखा ही है। यह शिक्षा नहीं है बल्कि यह एक स्‍कूलीकरण की प्रक्रिया मात्र है जिसकी यदि ठीक से जाँच की जाय तो वह शिक्षा विरोधी प्रक्रिया साबित होगी। खैर, फिलहाल हम इसे ”शिक्षा” ही के नाम से उल्लिखित कर रहे हैं।

सरकार वास्‍तव में कर क्‍या रही है? स्‍कूली प्रक्रिया द्वारा सरकार लाखों बालक बालक बालिकाओं को अपने पै‍तृक एवं आर्थिक उत्‍पादनकारी व्‍यवसायों से विमुख करके उन्‍हें नौकरी उन्‍मुख तथा नौकरी अभिलाषी बना रही है और ऐसी नौकरी के प्रति लालायित कर रही है जिसमें उत्‍पादन कम तथा उपभोग अधिक है। श्रमविमुख, उद्यमविमुख और कर्म के प्रति ग्‍लानियुक्‍त नवयुवकों को प्रतिवर्ष लाखों तथा करोड़ों की संख्‍या में ये स्‍कूली तथा ये कॉलेजी कारखाने निकाल रहे हैं। तो अब सरकार पर आर्थिक भार तथा आर्थिक मार दुहरी है। सरकार प्रथम तो उत्‍पादक पीढ़ी को (शिक्षा के नाम पर) अनुत्‍पादक पीढ़ी के रूप में बदलने के लिए अपनी तथाकथित शिक्षण संस्‍थाओं पर अरबों रुपया खर्च कर रही है । इस प्रकार शिक्षा के नाम पर देश में ”खाऊ” वर्ग तो खूब बढ़ता जा रहा है और ”कमाऊ” वर्ग घटता जा रहा है। नतीजा क्‍या है? नतीजा यह है कि देश न केवल भयंकर रूप से कर्जदार तथा दिवालिया हो रहा है बल्कि अंतर्राष्‍ट्रीय मंच पर उसकी स्थिति कंगाल तथा भिखारी जैसी बन गयी है। कर्जा हमारे देश पर आज इतना है कि हमारे राष्‍ट्रीय बजट का एक चौथाई भाग केवल उस कर्ज को ब्‍याज चुकाने में खर्च हो जाता है और इसमें भी अत्‍यंत शोक और लज्‍जा की बात यह है कि इस ब्‍याज को अदा करने हेतु भी सरकार को और नया कर्जा लेना पड़ता है।

इसके बावजूद कोई भी राजनैतिक पार्टी चुनावों के समय वोट माँगते हुए देश की इस दुर्दशा का उल्‍लेख तक नहीं करती। हर पार्टी बस सब्‍ज़ बाग ही दिखाती है तथा प्रजा के प्रति इतनी उदार बनती है मानो कुबेर का अखूट खजाना उन्‍हीं के पास हो ।  ”ऊपर से प्रजा की खुशामद करो तथा उनका दिल बहलाते रहो और भीतर से प्रजा को कमजोर, नि:सत्‍व, निकम्‍मा और भिखारीवृत्ति वाला बनाते रहो।” यह है आज का लोकतंत्र।

प्रजा की खुशामद करना, प्रजा को राज्‍य पर अधिकाधिक आश्रित करना, प्रजा को तरह तरह की राहत, सहायता, रियायत देने की घोषणाएं करना तो एक तरफ चलता ही रहता है और दूसरी तरफ येन केन प्रकारेण अपनी आय को बढ़ाने के लिए सरकार ऐसे कुकृत्‍य करती है कि जिनके लिये उसे कभी क्षमा नहीं किया जा सकता। संवैधानिक दायित्‍व होने के बावजूद सरकार दारूबंदी या मद्यनिषेध नहीं करती क्‍यों‍कि सरकार को अरबों रुपयों की आय होती है। टी.वी. पर नर नारी देह के अश्‍लील प्रदर्शनों का बोलबाला क्‍यों है? इन प्रदर्शनों के द्वारा जनता के ध्‍यान को खींचा जाता है और उस ध्‍यान को तरह तरह के व्‍यापारिक विज्ञापनों में फँसाया जाता है जिसके लिये व्‍यापारियों तथा उद्योगपतियों से सरकार को अरबों रुपयों की आय होती है। टेनिस व क्रिकेट मैचों का अबाध एवं निरंतर प्रदर्शन टी.वी. पर क्‍यों होता है? सिगरेट का उत्‍पादन एवं व्‍यवसाय करने वाली कंपनियॉं इन मैचों के आयोजन तथा उसके टी. वी. प्रसारण के लिए अरबों रुपया पानी की तरह बहाती है। इससे भी सरकार को आय होती है।

प्रजा को राहत देने के नाम पर, प्रजा को शिक्षा देने के नाम पर, प्रजा को खुश करने के नाम पर, प्रजा का भला करने के नाम पर तो सरकार पैसा बहाती है पर उस पैसे के लिए एक तरफ़ तो सरकार विदेशों से कर्जा और भिक्षा मांगती है और दूसरी तरफ सरकार जनता में दारू व तम्‍बाकू का सेवन तथा अश्‍लील टी.वी. प्रसारणों द्वारा कामवासना का उद्दीपक तथा अति उपभोग द्वारा प्रकृति का विनाश एवं पदूषण बढ़ाती है। बिलकुल ही गलत है विदेशों से इतना कर्जा लेना, विदेशों से भिक्षा मांगना, दारू तथा तम्‍बाकू के सेवन को, कामवासना के उद्दीपन को तथा बिना जरूरत के प्रकृति के संसाधनों की बरबादी का बढ़ावा देना। पर सरकार इन पापों के प्रसार से पैसा बटोरती है और समाज में पुण्‍य वृद्धि, प्रगति, शिक्षा प्रसार तथा न्‍यायवृद्धि के नाम पर उसका खर्चा करती है। तो क्‍या प्रजा को इस प्रकार मूर्ख बनाने तथा ठगने के लिये लोकतंत्र स्‍थापित एवं संचालित किया जाता है? क्‍या जनता को बेवकूफ बनाने के षड्यंत्र का नाम ही लोकतंत्र होता है?

लोकतंत्र का असली अर्थ तो यह है कि लोगों के पास अपनी स्‍वायत्‍त व्‍यवस्‍थाओं का अधिक से अधिक क्षेत्र बचा हुआ रहे और सरकार के पास समाज का कार्य, समाज को ठीक से चलाने की जिम्‍मेदारी कम से कम हो। शिक्षा, न्‍याय, निर्धन-निर्बल की देखभाल, बुजुर्गों की सेवा, सार्वजनिक सुविधाओं, संपदाओं की सुरक्षा तथा देखभाल, चिकित्‍सा एवं स्‍वास्‍थ्‍य रक्षा इत्‍यादि दायित्‍व तो जनता स्‍वयं स्‍वायत्‍तापूर्वक संभालेगी और यातायात तथा आवागमन का, चारों-लुटेरों, डाकुओं, आक्रमणकारियों, महामारियों आदि से प्रजा की रक्षा करने का काम राज्‍य संस्‍था करेंगी, यह असली लोकतंत्र है। पर आज का राज्‍य तो राजाओं वाले एकतंत्रीय और अंग्रेजों वाली साम्राज्‍यशाही से भी इस दृष्टि से बुरा है कि आज प्रजा की स्‍वायत्‍त जिम्‍मेदारी की व्‍यवस्‍थाओं का ज्‍यादा लोप हो गया है और हर बात में प्रजा की राज्‍यनिर्भरता, राज्‍यमुखापेक्षा बढ़ गयी है। प्रजा की शक्ति, प्रजा के आत्‍मविश्‍वास, प्रजा के स्‍वाभिमान, प्रजा के बीच में पारस्‍परिक सामंजस्‍य, सहयोग, एवं संवेदन घटता जा रहा है। आज प्रजा में आत्‍ममर्यादा घट रही है, प्रजा में संयम तथा सादगी घट रही है, प्रजा में आपसी ईर्ष्‍या, द्वेष, वैमनस्‍य, बढ़ता जा रहा है। समष्टि के प्रति व्‍यष्टि का दायित्‍व लुप्‍त हो रहा है जिससे जनमानस एवं नैसर्गिक पंचतत्‍व संपदा का भारी प्रदूषण होता ही जा रहा है। स्‍वार्थमुक्‍त, अनासक्‍त ऋषि दृष्टि तथा उससे मिलने वाली दिशा तथा नेतृत्‍व बिलकुल लुप्‍त हो रहा है।

सरकार आज स्‍थानापन्‍न खुदा की भूमिका निभाने का दंभ पाल रही है। यहाँ मुझे एक घटना याद आती है जो बड़ी शिक्षा प्रद एवं प्रासंगिक हैा घटना यों है कि एक बार ब्रिटिश वाइसराय ने मेवाड़ के महाराणा को लिखा कि हम एक बहुत योग्‍य अंग्रेज को आपके दीवान (प्रशासक, प्रधानमंत्री) के पद पर काम करने हेतु भेजना चाहते हैं ताकि आपके राज्‍य की व्‍यवस्‍था बहुत सुधर सके तो महाराणा ने जवाब में लिख भेजा कि मेवाड़ के प्रधान सत्‍ताधीश तो भगवान एकलिंगनाथ हैं और यहाँ के महाराणा तो स्‍वयं अपने आपको भगवान एकलिंगनाथ के दीवान के रूप में मान कर काम करते हैं। अत: क्षमा करें मेवाड़ को दो दो दीवानों की जरूरत नहीं है। इस पर ब्रिटिश हुकूमत निरुत्‍तर हो गयी।

तो लोकतंत्र वह है जो मूलत: यह विश्‍वास करता हो कि पृथ्‍वी, प्रकृति तथा प्रजा में एक अदृष्‍ट तथा अमिट मौलिक राज्‍य अथवा शासन तो खुदा का पहले से ही है और असल में तो सारी व्‍यवस्‍था उसी से चल रही है। उस खुदाई राज्‍य के नीचे उसी राज्‍य की यत्किंचित सहायतार्थ यह मानवी राज्‍य अलग अलग देशों में चलते हैं, ऐसी नम्रता हमारी राज्‍य संस्‍था में होनी चाहिये।

पर हमारे लोकतंत्र ने हमारे स्‍वाधीन भारत के वोट द्वारा निर्वाचित जनप्रतिनिधियों ने, यह भ्रम पाल लिया है कि प्रकृति एवं प्रजा में अदृष्‍ट रूप से चल रही कोई भी सहज राज्‍य व्‍रूवस्‍था तो है ही नहीं और राज्‍य तो तभी होगा जब हम राज करेंगे।

गुरुओं, आचार्यों, शिक्षकों, बुजुर्गों, स्‍कूलों, कॉलेजों, विश्‍वविद्यालयों, स्‍वयं सेवी संस्‍थाओं तथा पंथों, सम्‍प्रदायों एवं धर्माचार्यों का बस यही काम है कि इस सत्‍य एवं इस तथ्‍य के प्रति जनता में और जनप्रतिनिधियों में आस्‍था बनी रहे कि मूल, व्‍यापक एवं शाश्‍वत राज्‍य तो अदृष्‍ट रूप से खुदा की तरफ़ से इस सृष्टि में कायम ही है और वही राज्‍य है जो दुनिया को चला रहा है। इसलिये प्रजा की शिक्षा तथा इस ऐहिक राज्‍यव्‍यवस्‍था की सफलता इसी में है कि प्रजा इस मानवी राज्‍य व्‍यवस्‍था से अधिकाधिक मुक्‍त एवं निरपेक्ष हो सके।

जैसे जैसे शिक्षा बढ़ेगी, सुधरेगी तथा फैलेगी राज्‍य संस्‍था संकुचित होगी और सिकुड़ेगी। पर आज एक तरफ़ तो ”शिक्षा” सुरसा के मुँह की तरह फैलती जा रही है और ज्‍यों ज्‍यों यह ”शिक्षा” फैलती जाती है त्‍यों त्‍यों राज्‍यतंत्र भी सुरसा के मुख की तरह ही फैलता जा रहा है। तो यह बिलकुल अस्‍वा‍भाविक है और निष्‍कर्ष यही निकलता है कि शिक्षा के नाम पर आज स्‍कूलों, कॉलेजों और विश्‍वविद्यालयों से असली शिक्षा नहीं बल्कि शिक्षा का अभाव फैलाया जा रहा है और फलस्‍वरूप असली शिक्षा समाज से लुप्‍त होती जा रही है जिसके पुन: प्रवर्तन की अति जटिल समस्‍या आज देश के सामने है।

– दयाल चंद्र सोनी

(यह लेख “नई शिक्षा” पत्रिका के जुलाई, 1997 अंक में प्रकाशित हुआ था)