आज 10 वर्ष के बजाय 35 वर्ष हमारी आजादी को बीत गये हैं (लेख 1982 में लिखा गया था) पर संविधान की यह धारणा पूरी नहीं हो पाई कि देश के तमाम बच्चों की शिक्षा 14 वर्ष की आयु तक राज्य द्वारा की जा सके। फिर भी, आजादी के बाद शिक्षा का प्रचार तथा प्रसार कम नहीं हुआ, बल्कि पहले की तुलना में बहुत ज्यादा स्कूल खुले हैं और बहुत ज्यादा बच्चे-बच्चियाँ इन स्कूलों में शिक्षा पा रहे हैं। अत: हमें यह आशा करनी चाहिए कि स्कूलों में जो शिक्षा नामक वस्तु का इतना उत्पादन हो रहा है, वह स्कूलों के बाहर हमारे समाज में भी बहुतायत से अपने को प्रकट करे तथा समाज पर अपना व्यापक सुप्रभाव डाले। कारखानों में बनने वाला तरह तरह का सामान आज कारखानों से निकल कर बाजारों में आता है और बाजारों से घरों में पहुँच जाता है और उस सामान को हम चारों तरफ़ देख सकते हैं और महसूस कर सकते हैं तथा मानव-जीवन की प्रणाली पर उसका प्रभाव भी हमें प्रत्यक्ष नजर आता है। लेकिन शिक्षा? शिक्षा के साथ एक उद्भुत बात हो रही है कि वह बढ़ रही है, फैल रही है, स्कूलों में अनापशनाप पैदा हो रही है, पर समाज में कहीं शिक्षा पहुँचती नहीं है, दर्शन नहीं देती है, नजर नहीं आती है, प्रभाव नहीं बनाती है और उसका अस्तित्व कहीं भी प्रकट नहीं होता।
यदि एक कमीशन इस बात के लिए कायम हो कि वह यह जाँच करे कि शिक्षकों की विशाल उत्पादन तथा दान कर रही है, क्या समाज में उसकी डिलीवरी और सप्लाई वास्तव में होती है, तो उस कमीशन की जाँच रिपोर्ट क्या होगी? उस कमीशन के सदस्य जब हमारे समाज में शिक्षा की मौजूदगी या गैर मौजूगी का पता लगाने के लिए देश का टूर करेंगे तो वे क्या देखेंगे तथा क्या पायेंगे?
वे पायेंगे कि हमारी जनता में यातायात के नियमों का पालन करने की कोई खास परवाह नहीं है। बाजारों में लाउड स्पीकरों पर ऊँची-ऊँची आवाज में गंदा फिल्मी संगीत निरन्तर चल रहा है। बसों के अड्डों पर या रेलों के स्टेशन पर या सिनेमा की खिड़की पर या पोस्ट ऑफिस में या तारघर में लोग पहले आये हुए व्यक्ति को येन केन प्रकारेण पीछे धकेल कर सबसे पहले अपना ही काम बना लेने पर आतुर हैं। राजकीय दफ्तरों में आप देखेंगे कि काम कम तथा बातें ज्यादा हैं, चाय के प्यालों पर गोष्ठियाँ चल रही हैं क्योंकि आज बड़े साहब छुट्ठी पर हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से अगर देखा जाये तो बीमारों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, डॉक्टरों तथा अस्पतालों की इतनी संख्यावृद्धि होने पर भी बीमारों को चिकित्सा ठीक से नहीं मिल पाती। सांस्कृतिक दृष्ठि से लोगों का रुझान ज्यादा से ज्यादा नंगे तथा भद्दे सिनेमा या कैबरे देखने की तरफ़ होता जा रहा है। एक भोगवादी संस्कृति पनपती जा रही है जहाँ फिजूलखर्ची तथा समय की बरबादी का बोलबाला है। विचार तथा गम्भीरता का वातावरण नष्ट होता जा रहा है। छिछला छिछोरापन तथा अंध अभिमान बढ़ता जा रहा है। जीवन में मूल्यों का कोई स्थान नहीं रह गया है। सिद्धान्त तथा आदर्श की बातें कूड़ादान में फेंकने की वस्तुएं बन गई हैं।
लोगों के जीवन के साथ मिलावटी खाद्य वस्तुओं तथा दवाओं से खेला जा रहा है। जंगल कटते जा रहे हैं पर नये लग नहीं पाते हैं। वातावरण में, पानी में, खेतों में विष घुलता जा रहा है। अन्न, सब्जियाँ, फल, मांस-मछली भी विषाक्त होते जा रहे हैं। विज्ञान तथा टेक्नॉलॉजी ने ऐसी दिशा ग्रहण कर ली है कि रोजगार घनीभूत एवं केन्द्रित होते जा रहे हैं और व्यक्तिगत या समुदायगत रूप में मनुष्य सर्वथा निहत्था (औजार रहित) तथा लाचार या गुलाम होता जा रहा है। जहाँ तक स्त्रियों के संरक्षण तथा सम्मान का प्रश्न है, आये दिन उनकी आबरू बलात्कार तथा हत्या द्वारा लूटी जाती है।
तो प्रश्न उठता है कि स्कूलों से जो शिक्षा की उत्पत्ति तथा सप्लाई हो रही है वह कहाँ जाती है और क्या करती है? कुओं से, बाँधों से, नहरों से यदि सिंचाई के लिए पानी निकले तो सही, लेकिन खेतों में पहुँचे नहीं तो जितना आश्चर्य होगा उतना ही आश्चर्यजनक शिक्षा का यह राष्ट्रव्यापी लोप है, अभाव है, अकाल है। इतने स्कूल, इतने कॉलेज, इतने विश्वविद्यालय, इतने शिक्षक, इतने अध्यापक, इतने आचार्य, इतना बजट, इतना खर्चा। पर समाज में शिक्षा का ऐसा लोप, ऐसा अभाव, ऐसा अकाल? इस आश्चर्य का जवाब और समाधान क्या है?
इस आश्चर्य का जवाब और समाधान यही है कि शिक्षा के नाम से जो कुछ फैलाया जा रहा है वह शिक्षा का कंकाल मात्र है। शिक्षा का जो मूल आत्मा है, शिक्षा का जो मूल प्राण है, शिक्षा का जो मूल सत्व है उसे न तो पहचाना जा रहा है और न फैलाया जा रहा है और यदि और गहराई से देखा जाये तो शिक्षा का सारा नियन्त्रण ऐसे वर्ग विशेष के हाथों में जकड़ा हुआ और मजबूती से कसा हुआ है जो शिक्षा के कंकाल को फैलाने में ही अपने निहित स्वार्थों की सुरक्षा मान बैठे हैं।
शिक्षक तथा प्राइवेट शिक्षण संस्थाएँ भी सर्वथा परतन्त्र हैं। यह पराधीनता जितनी सरकारी नियन्त्रणों के कारण नहीं है उतनी विद्यार्थियों के माता-पिताओं की संकीर्ण स्वार्थवृत्ति के कारण हैं जो कि अपनी सन्तानों को अपनी जायदाद मानते हैं, अपना इन्वेस्टमेंट मानते हैं और उस जायदाद का किराया या उस इन्वेस्टमेंट का डिविडेंड अपनी संतानों से वसूल करना चाहते हैं। नतीजा यह है कि कोई संस्था यदि आत्मा वाली, प्राण वाली, सत्व वाली वास्तविक शिक्षा देने का आग्रह पकड़ ले तो उस संस्था को सरकार तो शायद मान्यता एवं सहायता दे भी दे पर माता-पिताओं की तरफ़ से उस संस्था को विद्यार्थी नहीं मिलेंगे। शिक्षा के बाजार में आज माँग ही कंकाल शिक्षा की है, सप्राण तथा ससत्व शिक्षा की माँग ही उठ गई है, लुप्त हो गई है। सप्राण, ससत्व, समर्म (आंतरिक तत्व से युक्त) शिक्षा की माँग इसलिए भी लुप्त हो गई है कि ऐसी संस्थाएँ तथा परम्पराएँ भी लुप्त हो गई हैं जिनमें सप्राण, ससत्व, समर्म शिक्षा दी जाती हो और जो ऐसे शिक्षित व्यक्तियों का सम्पादन कर सके जो समर्म, सप्राण, ससत्व शिक्षा की श्रेष्ठता या सुपीरियोरिटी को प्रत्यक्ष सिद्ध कर सकें।
अब प्रश्न उठता है कि जिसे मैं सप्राण, ससत्व, समर्म, सात्म (आत्मा से युक्त) शिक्षा कहता हूँ उसकी परिभाषा या उसका स्वरूप क्या है? इस प्रश्न का सरल और स्पष्ट उत्तर यह है कि प्रत्येक मुनष्य के भीतर जो अंतरात्मा सहज प्रकाश है, सहज विवेक है, सहज मार्गदर्शन है, उसको अक्षत एवं सुरक्षित ही नहीं रखना बल्कि उसको अधिकाधिक तीव्र, अधिकाधिक सशक्त, अधिकाधिक स्पष्ट, अधिकाधिक संवेदनशील, अधिकाधिक प्रिय तथा अधिकाधिक प्रभावशाली बनाना, उस शिक्षा का लक्षण है, उस शिक्षा का स्वरूप है, उस शिक्षा की परिभाषा है जिसे मैं सप्राण, ससत्व, समर्म और सात्म शिक्षा का नाम देता हूँ। प्रकृति अथवा परमेश्वर में से किसी ने प्रत्येक मनुष्य को एक प्रज्वलित दीप शिखा सौंप कर, एक ज्योति को उसकी सहचरी बना कर, इस संसार में जन्म दिया है। शिक्षा का बेसिक या मौलिक कार्य तथा कर्तव्य और उस प्रज्वलित दीपशिखा को, उस ज्योति को बुझने से बचाना तथा उसे अधिकाधिक स्वच्छ तथा प्रकाशमान बनाना है न कि उस प्रज्वलित दीपशिखा को या उस ज्योति को बुझाना या उस ज्योति को मन्द करना या उस ज्योति को किसी प्रकार से कुंठित या आच्छादित करके ओझल करना शिक्षा का करणीय कार्य है। शिक्षा की जड़ या शिक्षा का बीज तो मनुष्य के अंत:करण या अंतरात्मा में रहता है। पर स्कूलों में, स्कूल की शिक्षा में, स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम में अन्त:करण या अन्तरात्मका की चेतना और हिफाजत और शुद्धि की व्यवस्था या चिन्ता कहीं भी दिखाई नहीं देती। अंग्रेजी भाषा की चिन्ता है, गणित की चिन्ता है, विज्ञानों की चिन्ता है, कलाओं की चिन्ता है, साहित्य और पांडित्य की चिन्ता है और इन सभी विषयों में श्रेष्ठ स्तर से परीक्षाएँ उत्तीर्ण करने-कराने की चिन्ता है पर शिक्षा के मूल और अनिवार्य विषय "अन्त:करण" की चिन्ता कहीं भी नहीं है और यही कारण है कि विद्यार्थी केवल पाठशाला रूपी यांत्रिक प्रक्रिया से तो गुजर जाता है और उस पर एक कृत्रिम मुलम्मा तो चढ़ जाता है पर उसका भीतरी स्वरूप परिशुद्ध नहीं हो पाता बल्कि पहले से ज्यादा कलुषित हो जाता है।
तो स्कूलों में जो कुछ दिया जाता है वह विद्याओं का शक्ति पक्ष ही है। विद्यार्थी विद्या को एक सामाजिक शक्ति के रूप में ही प्राप्त करता है। विद्या यद्यपि शास्त्रों या पोथियों या वाणी से प्राप्त होती है पर प्राप्त होने के बाद वह शास्त्र ही नहीं रहती बल्कि एक शस्त्र बन जाती है, जो कि मारक और हिंसक भी हो सकता है और तारक या करुणामय भी हो सकता है। तो आज का समूचा शिक्षा विस्तार केवल सामाजिक अस्त्र-शस्त्र का ही विस्तार है। वह केवल शक्ति की साधना है जिसके बल पर अपनी आत्मा का पतन तथा समाज का शोषण भी किया जा सकता है और अपनी आत्मा का उद्धार तथा समाज की सेवा भी की जा सकती है। पर वर्तमान शिक्षा केवल कलम की तलवार ही अपने विद्यार्थी को पकड़ाती है, वह विद्यार्थी से यह प्रतिबद्धता प्राप्त नहीं करती कि विद्यार्थी उस तलवार का उपयोग सत्य के हित में करेगा, न्याय के हित में करेगा, करुणा और प्रेम के हित में करेगा, दलितों तथा दीनों की रक्षा में करेगा। इसी बात को दूसरे शब्दों में, मैं यों कह सकता हूँ कि स्कूलों में विद्या के शक्तिपक्ष की साधना तो है पर अर्जित विद्याशक्ति को कल्याणभक्ति या शिवभक्ति के लिये प्रतिबद्ध करने का कोई भी अभ्यास या कोई भी संस्कार नहीं है। अत: विगत वर्षों में यद्यपि विद्या की शक्ति का विस्तार तो हुआ है पर वह विद्या शिवोन्मुख, कल्याणोन्मुख नहीं हो पाई है।
हम पाश्चात्य देशों को सभ्य, विकसित तथा अग्रणी मानकर उनसे प्रेरणा ले रहे हैं, उनसे आर्थिक तथा सैनिक सहायता प्राप्त करते हैं। पाश्चात्य देशों को सभ्य तथा संस्कृत मानना हमारी सबसे बड़ी भूल है। पाश्चात्य देशों को अपना गुरु मानना या उनसे प्रेरणा लेना हमारे लिए ग़लत इसलिए है कि उनकी संस्कृति से हमारे देश की समस्याएँ हल नहीं होंगी बल्कि वास्तविकता यह है कि हमारी मूल संस्कृति को अपनाने से उन पाश्चात्य देशों की समस्या हल होगी। मनुष्य और मनुष्य के बीच सद्भाव एवं विश्वास का निर्माण ही शिक्षा का मौलिक घ्येय है। मैं इसे दुहराना चाहूँगा कि मनुष्य तथा मनुष्य के बीच विश्वास का निर्माण ही शिक्षा का मौलिक ध्येय है। क्या पाश्चात्य देश एक दूसरे के प्रति विश्वास का निर्माण कर सके हैं?
सारे उत्पातों तथा सारे पापों की जड़ वह काल्पनिक या वास्तविक भय या संदेह या संशय है जो समाज में सत्य तथा सद्भावना के लोप से, कुटिल तथा कपटपूर्ण व्यवहार से जन्म लेता है तथा पनपता है। भय बिना पाप नहीं और पाप बिना पीड़ा नहीं। तो शिक्षा का प्राथमिक, मौलिक, अनिवार्य करणीय कार्य भाषा, साहित्य, गणित, विज्ञान, ज्ञान, कला तथा टेक्नोलॉजी की शिक्षा देना ही नहीं है बल्कि मनुष्य को सत्याचरण तथा प्रेमाचरण सिखाना है ताकि वह भय से और भयजन्य पापों से मुक्त हो सके तथा समाज में पारस्परिक विश्वास, पारस्परिक सम्मान, पारस्परिक सहयोग, पारस्परिक सद्भाव, पारस्परिक प्रीति और पारस्परिक साम्य की स्थापना हो सके। मेरा सीधा-सा प्रश्न यह है कि हमारी शिक्षा तथा हमारे स्कूल हमारे मनुष्यों को सत्यवान, सद्भावपूर्ण, विश्वस्त तथा विश्वसनीय एवं स्वयं भी निर्भय तथा दूसरों को भी निर्भयता देने वाला बनाने के लिए क्या कर रहे हैं? और मेरा ही उत्तर है कि हमारी शिक्षा तथा हमारे स्कूल इसके लिए कुछ भी तो नहीं कर रहे हैं और इसलिए हमारी शिक्षा ”शिव शिक्षा” होने के बजाय ”शव शिक्षा” बन गई है।
हमारे संविधान की धारा (45) कहती है कि तालीम दो, सबको तालीम दो, मुफ्त में तालीम दो और अनिवार्य रूप से सबको तालीम दो और यह कार्य सरकार का है कि वह देखे कि ऐसा हो रहा है। मैं इस धारा का विरोध इस अर्थ में तो कभी नहीं कर सकता हूँ कि तालीम सबको क्यों मिले? मैं तो इस बात का परम समर्थक हूँ कि प्रत्येक मनुष्य सुशिक्षित हो। पर वह तालीम कभी भी तालीम नहीं रहती जो मुफ्त में दी जाये और वह तालीम भी कभी तालीम नहीं रहती जिसको प्राप्त करना विद्यार्थी के लिए राजकीय दण्ड के बल पर अनिवार्य बना दिया जाये। मुफ्त में जो कुछ भी दिया जाता है वह तालीम नहीं बल्कि खैरात होती है और खैरात कभी भी तालीम का रूप नहीं ले सकती। खैरात में सम्बन्ध शक्ति तथा सम्पदा वाले दाता और अशक्त तथा निर्धन प्राप्ता (पाने वाले) का रहता है और यह सम्बन्ध तालीमी समबन्ध नहीं है। अनिवार्यता (और वह भी राज्यदण्ड पर आश्रितों) में सम्बन्ध भय का रहता है और जहाँ भय है वहाँ तालीम हरगिज भी नहीं रहती। तालीम न खैरात में मिलने की वस्तु है और न बाजार से खरीदने की वस्तु है। तालीम तो प्रत्यक्ष सेवा कर्म का ”संस्कारमय अवशेष” (residue) है जिससे मनुष्य का चरित्र गढ़ा जाता है, गठित होता है।
मेरी कसौटी जो तालीम की है वह यह है कि तालीम तो मनुष्य को मनुष्य से, प्रकृति से और परमेश्वर से जोड़ने वाली होती है, तालीम साम्य के, सामंजस्य के, एकता के, दर्शन कराती है तथा इस दर्शन से मनुष्य भयानकता को भी छोड़ता है तथा भय को भी छोड़ता है। तालीम की यह परिभाषा, तालीम का यह लक्ष्य ही प्राथमिक या primary है। तालीम से जानकारी मिलती है, तालीम से विज्ञान मिलता है, तालीम से कलाकौशल प्राप्त होते हैं, यह बात सही है पर यह तालीम का गौण लक्षण है। मेरे जीवन तथा मेरे चिन्तन का मूल मुद्दा जो शिक्षा के क्षेत्र में है वह यही है कि हमारी तालीम ने अपने गौण स्वरूप में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली है ओर वह अपने प्राथमिक या प्रमुख स्वरूप को सर्वथा भुला बैठी है।