धर्म और विज्ञान: कैसे पटेगी बीच की खाई

मानवेन्‍द्रनाथ राय का लेख पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि वे विज्ञान एवं धर्म के बीच एक पारस्‍परिक विरोध की दृष्टि रखते हैं। वे मानते हैं कि समय के साथ विज्ञान की जो वास्‍तविकता है इससे धर्मगत काल्‍पनिकताऍं हारती जारही हैं, पर मेरा मत संयोगवश काफी भिन्‍न है। मैं धर्म एवं विज्ञान के बीच एकता देखता हूँ। सवाल है धर्म का मूलार्थ ठीक से समझने का। मुझे जो कुछ कहना है उसकी प्रस्‍तावना के रूप में इस लेख को एक मनगढ़ंत गल्‍प (या काल्‍पनिक कहानी) से शुरू कर रहा हूँ। कहानी इस प्रकार की है-

”एक खेत में एक नीम का वृक्ष तथा एक मीठे आम का वृक्ष पड़ौसी थे। एक दफा वर्षा ऋतु में इन दोनों वृक्षों पर एक साथ बिजली गिरी जिससे ये दोनों वृक्ष सूख गए, यानी उनकी जीवात्‍माऍं उन से निकल गईं और यमदूत इन दोनों जीवात्‍माओं के पाप-पुण्‍य पर निर्णय करने में जब तक व्‍यस्‍त थे, तब तक उपर्युक्‍त ”नीमात्‍मा” एवं ”आम्रात्‍मा” को यमराज के कक्ष के बाहर एक बैंच पर बैठ कर प्रतीक्षा करनी पड़ी। अब प्रतीक्षा के दौरान ”नीमात्‍मा” तो यह सोच रही थी कि वह आजीवन कड़वे पत्‍ते तथा कड़वे फल देती रही है और इस वजह से उसे दंडित किया जाएगा और ”आम्रात्‍मा” यह सोच रही थी कि उसने जीवन भर मीठे फल दिए हैं, इसलिए उसे पुरस्‍कृत किया जाएगा। अर्थाम् नीमात्‍मा को डर था कि उसे नरक में डाला जाएगा और आम्रात्‍मा को विश्‍वास था कि उसे ससम्‍मान स्‍वर्ग में स्‍थान दिया जाएगा। खैर। थोड़े समय के बाद यमराज ने ”आम्रात्‍मा” को बुला कर उसके बयान दर्ज किए। तो आम्रात्‍मा ने बड़े अहंकार के साथ अपने द्वारा पैदा किए गए मीठे फलों की प्रशंसा की तथा उन फलों से लोगों को जो स्‍वाद मिला उसका बखान किया। साथ में उसने यह बात भी जोड़ दी कि जैसे मीठे फल उसने दिए, वैसे मीठे फल दूसरे आमों के नहीं थे। अत: वह (यानी आम्रात्‍मा) स्‍वर्ग का अधिकारी है। इस पर यमराज ने निर्णय दिया कि ”तुम मीठे तो इसलिए थे कि प्रकृति ने ही तुम्‍हें मीठा बनाया था। इसमें तुम्‍हें स्‍वयं श्रेय लेने का तथा घमंड में आने का अधिकार नहीं था। तुमने प्रकृति का श्रेय स्‍वयं लेकर अहंकार घारण कर लिया जो कि पाप है। अत- मैं तुम्‍हें नरक में भेजता हूँ।” उसके बाद यमराज ने ”नीमात्‍मा” को बुलाकर उसके बयान दर्ज किए। तो नीमात्‍मा ने डरते घबराते हुए कहा कि, ”हे यमराज, मुझे क्षमा किया जाए। मैंने तो सारी उम्र में बस कड़वे पत्‍ते एवं कड़वे फल ही इस दुनिया को दिए हैं। मैं इसके लिए दु:खी हूँ और क्षमा चाहता हूँ।” इस पर यमराज ने निर्णय दिया कि ”तुम दु:खी मत होओ, पश्‍चाताप मत करो। तुम्‍हारे कड़वेपन में तुम्‍हारा कोई दोष नहीं है। तुम बस इसलिए कड़वे थे कि प्रकृति ने ही तुम्‍हें कड़वा बनाया था। अत- अपने ऑंसू पोंछ लो और जाओ स्‍वर्ग का सुख भोगो।” ऐसा न्‍याय करने के बाद यमराज न्‍याय कक्ष से निकले तथा अपने घर गए। इस पर यमराज्ञी ने उनसे पूछा कि आज के न्‍याय निर्णय कैसे कैसे रहे। तो यमराज ने और न्‍याय निर्णयों के साथ उपर्युक्‍त ”नीमात्‍मा” एवं ”आम्रात्‍मा” के न्‍याय निर्णय की बात भी बता दी। इस पर यमराज्ञी को कौतूहल हुआ और उसने पूछा कि कड़वा होने के बावजूद नीम स्‍वर्ग का और मीठा होने के बावजूद ”आम्रात्‍मा” नरक का पात्र कैसे और क्‍यों माना गया। तो यमराज ने जो जवाब दिया, वह इस प्रकार था कि कड़वापन नीम का धर्म था और मिठास ”आम्रात्‍मा” का धर्म था। इस पर यमराज्ञी ने प्रश्‍न किया कि कड़वापन यदि धर्म था तो मीठापन (जो कि कड़वेपन का उलटा है) भी धर्म कैसे हो सकता है। इस पर यमराज ने जवाब दिया कि नीम का स्‍वधर्म कड़वापन था और आम का स्‍वधर्म मीठापन था। अत: अम्रात्‍मा को मीठेपन पर गर्वित होने की कोई जरूरत नहीं थी। इस पर यमराज्ञी की शंका का समाधान हो गया और वह अपने पूज्‍य पतिदेव धर्मराज यमराज के न्‍याय की प्रशंसा करने लगी।

अब इस गल्‍प यानी मनगढ़ंत कहानी के आधार पर मेरा मानना है कि विज्ञान तो प्रकृति में व्‍याप्‍त धर्म का ही अनुसंधान करने में लगा हुआ है। विज्ञान एवं धर्म में विरोध कहॉं है? विज्ञान ने नीम कड़वा और मीठे आम को मीठा पाया। तो विज्ञान ने क्‍या खोजा? उसने नीम के स्‍वधर्म का पता चलाया और उसने मीठे आम के स्‍वधर्म का भी पता चलाया। विज्ञान ने पता चलाया कि चुम्‍बक लोहे को खींचता है। तो विज्ञान ने क्‍या किया? विज्ञान ने चुंबक के भीतर छुपे हुए चुंबक के स्‍वधर्म का पता चलाया। विज्ञान ने पता चलाया कि सर्दी एवं गर्मी के स्‍वधर्म का पता चलाया। विज्ञान ने इंद्रधनुष (या त्रिकोण काच) में सूर्य की रश्मियों में सात रंगों के समन्‍वय का पता चलाया। तो विज्ञान ने क्‍या किया? विज्ञान ने सूर्यरश्मियों के स्‍वधर्म का पता चलाया। न्‍यूटन ने कहा कि पृथ्‍वी में आकर्षण शक्ति है और इसीलिए वृक्ष से टूटा फल आकाश की तरफ नहीं जाता बल्कि पृथ्‍वी पर गिरता है। तो न्‍यूटन ने क्‍या खोज की? न्‍यूटन ने पृथ्‍वी के स्‍वधर्म की खोज की। फ्रायड ने नर-नारी के बीच यौनाकर्षण की खोज की। तो उसने क्‍या किया? उसने स्‍त्रीलिंग-पुल्लिंग के स्‍वधर्म का विवेचन किया। विज्ञान ने बबूल के कांटों का और गुलाब के फूलों का अध्‍ययन किया और दोनों में देखा। तो विज्ञान ने क्‍या अध्‍ययन किया तथा क्‍या देखा? विज्ञान ने बबूल के स्‍वधर्म एवं गुलाब के स्‍वधर्म का अध्‍ययन किया तथा उसी को देखा। आयुर्वेद ने हजारों जड़ी बूटियों एवं धातुओं के औषधि तत्‍वों का अध्‍ययन किया। तो आयुर्वेद ने किस बात का अध्‍ययन किया? आयुर्वेद ने हजारों जड़ी बूटियों तथा विभिन्‍न धातुओं के स्‍वधर्मों का अध्‍ययन किया। हम सूर्य को नित्‍य उगता हुआ भी तथा दिन भर रोशनी एवं गर्मी देने के बाद शाम को अस्‍त होता हुआ देखते हैं। हम सर्दी में दिन छोटे और राते बड़ी देखते हैं और गर्मी में दिन बड़े तथा राते छोटी देखते हैं। हम सूर्यग्रहण एवं चंद्रग्रहण भी देखते हैं। तो क्‍या हम विज्ञान को देखते हैं या हम सूर्य, चंद्र, पृथ्‍वी के स्‍वधर्म को देखते हैं? असल में तो हम सूर्य, चंद्र, पृथ्‍वी के स्‍वधर्म को देखते हैं। गीता के चौथे अध्‍याय के प्रथम श्‍लोक में कृष्‍ण ने कहा है- मैंने यह अव्‍यय योग (सर्वप्रथम) विवस्‍वान् (अर्थात् सूर्य) को बताया। तो सूर्य केवल विज्ञान का विषय है या सूर्य अपने स्‍वधर्म के (अपने कर्मयोग के) पालन का विषय है? विज्ञान तो बहुत बाद में आया। सूर्य तो पता नहीं अपने स्‍वधर्म का (एवं अपने कर्मयोग का) पालन कब से कर रहा है!!!

हम देखते हैं कि समुद्र से सूर्य की गर्मी के कारण पानी की भाप बनती है। यही भाप बादलों की शक्‍ल में ऊपर उठती है और हवा की मदद से स्‍थल की ओर बढ़ती है। सामने पहाड़ आ जाने पर भाप ऊपर उठती है और ठंडक पाकर पानी का रूप पुन: ग्रहण करके वर्षा के रूप में बरसती है। इससे नदियॉं बनती हैं जो धरती के ढाल के सहारे बह कर पानी को पुन: समुद्र में पहुँचा देती है। विज्ञानवेत्‍ता इसमें मात्र विज्ञान नहीं देखेगा बल्कि इसमें वह पानी का गर्मी पाकर भाप बनने का अंतर्निहित स्‍वभाव (अर्थात् धर्म) देखेगा। गर्मी को पाकर पानी का भाप में परिवर्तित होना पानी का धर्म है। ऊपर उठ कर हवा के साथ बादलों की शक्‍ल में पहाड़ों पर पहुँचना भाप या बादलों का धर्म है और ठंडक पाकर बादलों का बरसना बादलों का धर्म है। इसके साथ ही पानी का स्‍वभाव अथवा धर्म है कि वह ढाल के अनुसार बहे और फिर समुद्र में पहुँच जाए। तो विज्ञान जो कुछ देखता है वह सूर्य, पानी, हवा, धरती आदि की एक धर्म लीला ही तो है!

पर इस बीच एक कल्‍पनाशील कवि अथवा दार्शनिक सामने आ जाता है और वह सूर्य, पानी, हवा तथा धरती की इस (वाष्‍प, वर्षा तथा नदी वाली) लीला में एक योजना के चक्र की कल्‍पना करता है और सोचना है कि इस चक्र के पीछे तो वनस्‍पति एवं जीव-जन्‍तुओं के परिपालन का लक्ष्‍य है तथा इस लीलाचक्र के पीछे कोई योजनाकार भी होना चाहिए। तो मेरा प्रश्‍न यह है कि जो व्‍यक्ति शुद्ध वैज्ञानिक ही है और प्रत्‍यक्ष भौतिक धरातल से अलग होना नहीं चाहता, उस (शुद्ध वैज्ञानिक व्‍यक्ति) को इस दार्शनिक व्‍यक्ति से शिकायत क्‍यों होनी चाहिए?

विज्ञान में ही किसी योजना-चक्र की तथा किसी योजनाकार का आभास या संभावना मिलने की एक और मिसाल लीजिए। विज्ञान ने पता चलाया है कि जितने प्राणी या जीव हैं वे आक्‍सीजन तो ग्रहण करते हैं और कार्बन डाई ऑक्‍साइड (जो कि जीवों या प्राणियों के लिए घातक होती हे) छोड़ते हैं। दूसरी ओर विज्ञान ही ने पता चलाया है कि जितने पेड़-पौधे (या जितनी वनस्‍पति) हैं वे कार्बन डाई आक्‍साइड को ग्रहण करते हैं और इसे आक्‍सीजन में परिवर्तित करके छोड़ते हैं। इसी अनुसंधान पर वैज्ञानिक तो रुका रहेगा, पर एक दार्शनिक या कल्‍पनाशील या कवि हृदय वाला व्‍यक्ति आगे बढ़ कर सोचेगा कि अवश्‍य ही यह एक पारस्‍परिक व्‍यवस्‍था है जिसके पीछे कोई मस्तिष्‍क है या जिसके पीछे कोई व्‍यवस्‍थापक है। अब यदि विज्ञानवेत्‍ता (विज्ञान सीमा में ही बंध कर या सीमित रह कर) उस दार्शनिक पर ऐतराज करे तो वह भले ही ऐतराज करता रहे। मानव के स्‍वभाव में कल्‍पना एवं आस्‍था का तत्‍व है इससे तो कोई वैज्ञानिक ऐतराज नहीं कर सकता, बल्कि एक खरे वैज्ञानिक को तो वैज्ञानिक अध्‍ययन से भी मानना पड़ेगा कि मनुष्‍य कल्‍पनाशील एवं आस्‍थाशील प्राणी है।

वैज्ञानिक व्‍यक्ति तो वही है जो हर वस्‍तु की प्रकृति या उसके स्‍वभाव-गुण को देखने से मुख नहीं मोड़ता तो वह मनुष्‍य नामक इस दार्शनिक प्राणी की इस प्रकृति को या उसके स्‍वभाव-गुण को देखने तथा मानने से क्‍यों ऐतराज करता है कि मनुष्‍य एक भावनापूर्ण एवं कल्‍पनाशील प्राणी है? जो वैज्ञानिक भौतिक पदार्थों के प्रकृतिज अथवा स्‍वाभाविक गुण धर्म का निषक्ष एवं वस्‍तुपरक अध्‍ययन करता है तथा अध्‍ययनाधारित जानकारी को कबूल करता हे, वही वैज्ञानिक मनुष्‍य की दार्शनिकता वाले पक्ष को क्‍यों नहीं देखता और उसे क्‍यों अस्‍वीकार करता है? पूर्णिमा के चांद में जो धब्‍बे नजर आते हैं, यदि कोई उसके वैज्ञानिक कारणों में नहीं जाकर मानव के कल्‍पनाशील एवं गप्‍पी स्‍वभाव के कारण चन्‍द्रमा के किसी पाप का कलंक मान कर कोई कहानी या कविता बनाता है तो वैज्ञानिक को उस कहानी या कविता पर चिढ़ना क्‍यों चाहिए और उस कहानी या कविता को वैज्ञानिक आधार पर झूठी बताकर अपनी विजय का ढोल क्‍यों पीटना चाहिए?

बेशक वैज्ञानिक जानकारी के अनुसार पृथ्‍वी किसी शेषनाग पर टिकी हुई नहीं है। पर यह जानकारी तो बिल्‍कुल विज्ञान-सम्‍मत है कि मनुष्‍य तो अपने प्राकृतिक स्‍वभाव से ही कवि एवं कल्‍पनाशील है और कहा गया है कि ”जहॉं न पहुँचे रवि वहॉं पहुँचे कवि”, तो विज्ञान, विज्ञान की जगह मान्‍य है और कविता एवं कल्‍पना भी कविता एवं कल्‍पना की जगह मान्‍य होनी चाहिए। यदि बच्‍चे चांद को चंदा मामा कहें और सामान्‍य लोग एक सर्वथा भौतिक जल प्रवाह को ”गंगा माता” कहें तथा उसकी पूजा करें तो किसी रसायन विज्ञानी या भौतिक विज्ञानी को आपत्ति और पीड़ा क्‍यों होनी चाहिए? विज्ञानवेत्‍ता के अनुसार तो हर पत्‍थर बस पत्‍थर ही है, पर मीरा के पास जो गिरधर की पाषाण प्रतिमा है, वह पत्‍थर नहीं है, बल्कि वह तो मीरा का प्रीतम है। तो इससे किसी भौतिक विज्ञानी को ऐतराज करने की या इसकी वजह से परेशान होने की जरूरत क्‍या है? इस्‍लाम में पूर्तिपूजन यद्यपि वर्जित है पर मक्‍का में जो काबा मुसलमानों के लिये पूजनीय है वह पत्‍थर ही है। तो इससे वैज्ञानिक लोगों को ऐतराज क्‍यों होना चाहिये?

तो लगता यह है कि जितना वैज्ञानिक अध्‍ययन वैज्ञानिकों ने भौतिक पदार्थों का तथा रसायन विज्ञान का किया, उतना वैज्ञानिक अध्‍ययन वैज्ञानिकों ने मनुष्‍य नामक प्राणी का नहीं किया। मनुष्‍य केवल प्रत्‍यक्षवादी नहीं है, वह परोक्षवादी एवं कल्‍पनाशील भी है। वह क्‍या-क्‍या है। तो यदि विज्ञानवेत्‍ता लोग इस मनुष्‍य नामक प्राणी का सांगोपांग सम्‍यक् अध्‍ययन कर लेते तो उन्‍हें मनुष्‍य की रहस्‍यपूर्ण, अभौतिक तथा सूक्ष्‍म कल्‍पनाओं तथा आस्‍थाओं पर इतनी आपत्ति नहीं होती।

सबसे बड़ी समस्‍या यह है कि हम धर्म को या तो बुद्ध का या महावीर का, या तो ईसा का या मोहम्‍मद का, या तो जरतुश्‍त का या नानक का आविष्‍कार मानते हैं। पर इस भारी तथा भयानक गलतफहमी से हम जितनी जल्‍दी मुक्‍त हो सकें उतना ही संसार का भला है। धर्म तो उतना ही आदिम, पुरातन एवं सनातन है कि जितनी आदिम, पुरातन या सनातन यह सृष्टि या यह विश्‍व रचना है। धर्म इस सृष्टि के हर अवयव में समाया हुआ है और विज्ञान का समस्‍त अध्‍ययन तथा उसके समस्‍त आविष्‍कार प्रकृति या सृष्टि में व्‍याप्‍त धर्म (यानी वस्‍तु के मौलिक स्‍वभाव) का ही अनुसंधान है तथा उसी का सदुपयोग या दुरुपयोग है। यदि प्रकृति अथवा इस भौतिक सृष्टि के हर अवयव में अपना मौलिक नियम (यानी अपना मौलिक धर्म) नहीं पाया जाता तो विज्ञान का यह सारा ताबूती ढांचा बिखर जाता। धर्म तो ”स्‍वयंभू वैश्विक नियम” (सैल्‍फबॉर्न कॉस्मिक लॉ” का नाम है। धर्म को न राम न पैदा किया और न कृष्‍ण ने। मेरी नम्र सम्‍मति में ये राम और ये कृष्‍ण (तथा ये सभी तथाकथित धर्म प्रवर्तक महामानव) धर्म के विभिन्‍न टीकाकार अथवा व्‍याख्‍याता मात्र हैं ओर धर्म के जनक या आविष्‍कारक नहीं हैं। मेरे विचार से तो धर्म ने ही अवतारों, मसीहाओं और पैगम्‍बरों को पैदा किया है न कि अवतारों, मसीहाओं और पैगम्‍बरों ने धर्म को पैदा किया।