स्व. श्री दयाल चंद्र सोनी लिखित जैन भारती, जुलाई, 2001 के अंक में प्रकाशित लेख
धर्मपालन के जो पाँच महाव्रत- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह के रूप में गिनाए गए हें, वे गहरी दृष्टि से देखने पर अलग अलग पाँच महा व्रत नहीं हैं बल्कि एक ही मूल महाव्रत अर्थात् अहिंसा के पाँच आयाम हैं। सत्य का पालन यदि न हो और झूठ का प्रयोग हो तो यह हमारे अंत:करण की हिंसा है। अस्तेय का पालन नहीं करके यदि हम चोरी करें तो यह दूसरे के अधिकार की हिंसा है, यदि हम दूसरे प्राणी या पंचमहाभूतों के प्रति हिंसक हों तो यह ब्रह्मतत्व की हिंसा है क्योंकि सभी प्राणियों एवं पंचमहाभूतों में ब्रह्म ही व्याप्त है और यदि हम अपरिग्रह को त्याग कर परिग्रही बनते हें तो यह दूसरों की आवश्यकताओं के लिए बाधा डालने के रूप में हिंसा ही है। ब्रह्मचर्य के व्यापक आयामों पर गीता आधारित विवेचना से संबंधित पूरा लेख आगे पढ़ें।
धर्म के पालन हेतु जो पाँच महाव्रत महत्वपूर्ण माने गए हैं, वे हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इन पाँच महाव्रतों में भी जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्रत माना गया हे, वह है अहिंसा। कहा गया हे कि ‘अहिंसा परमो धर्म:’। इस संदर्भ में मैं जब अपनी अल्पमति अनुसार विनयपूर्वक विचार करता हूँ तब मुझे ऐसा लगता है कि यद्यपि सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह को अहिंसा से अलग गिनाया गया हे पर वास्तविकता यह है कि सत्य में भी, अस्तेय में भी, ब्रह्मचर्य में भी तथा अपरिग्रह में भी मूलत: तो अहिंसा ही भरी हुई है अथवा अहिंसा ही व्याप्त हैा बल्कि हम यों मान सकते हैं कि सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह, अहिंसा से पृथक नहीं हैं बल्कि अहिंसा के ही अंग हैं अथवा आयाम हैं। हाँ, इतना हम अवश्य मान सकते हैं कि अहिंसा शब्द से यदि स्थूल हिंसा का निषेघ अभिव्यक्त होता हो, तो सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह शब्दों से सूक्ष्म हिंसा का भी निषेध हो जाता है।अब अपने विचार में जब मैं आगे बढ़ता हूँ तो सत्य, अस्तेय एवं अपरिग्रह में तो अहिंसा के दर्शन मुझे आसानी से हो जाते हैं, पर ब्रह्मचर्य का वास्तविक अर्थ या स्वरूप क्या हे तथा उसमें अहिंसा किस तरह से व्याप्त है, इस बात को समझने काफी मुश्किल हो जाता है। अत: आगे बढ़ने से पूर्व में कुछ विचार-विमर्श ब्रह्मचर्य के शब्दार्थ एवं निहितार्थ पर भी करना चाहता हूँ। ‘ब्रह्मचर्य’ के शब्दार्थ पर यदि विचार किया जाए तो ब्रह्म में जो विचरण करता हो, उसे हम ब्रह्मचारी कहेंगे। नभचर वह पक्षी होता है जो आकाश में विचरण करता है, जलचर वह प्राणी है जो जल में विचरण करे (अर्थात् मगर, मछली आदि) और थलचर हम मानव एवं दूसरे चतुष्पद प्राणी हैं जो पृथ्वी पर स्थल भाग में विचरण करते हैं। तो शब्द के मूलार्थ की दृष्टि से ब्रह्मचर्य का अर्थ होगा ”बह्म में विचरण करना’ और ब्रह्मचारी का अर्थ होगा ‘ब्रह्म में विचरण करने वाला’। पर आम तौर पर वह ब्रह्मचर्य का जो निहितार्थ हमारे पूरे समाज में चल रहा है, वह है विवाह एवं दाम्पत्य क्रिया से बचना अथवा स्त्री-पुरुष के पारस्परिक संभोग का अभाव। समाज में ब्रह्मचर्य का जो एक यही निहितार्थ प्रचलित है– कया वह सही हे, यह प्रश्न विचारणीय है। ब्रह्म तो वह परम अथवा चरम अद्वैत सत्ता है जिससे सारी सृष्टि उत्पन्न हुई है और प्रलय होने पर जिसमें सारी सृष्टि पुन: समा जाएगी। इस ब्रह्म की स्थिति को प्राप्त करना तो बड़ी भारी साधना का विषय है। बड़े बड़े ऋषि मुनि दीर्घ काल तक तप साधना करके उस स्थिति को प्राप्त करते होंगे। तो यही ब्रह्मचर्य क्या इतना सरल एवं साधारण हो सकता है कि स्त्री एवं पुरुष आपसी संभोग से विरत हो जाने से या बचने से ही ब्रह्म में विचरण करने वाले (अर्थात् ब्रह्मचारी) बन जाएँ? दो देशों के बीच युद्ध होने पर बहुत बड़ी संख्या में पुरुष सैनिक मारे जाते हैं और तब उन देशों में महिलाएँ ज्यादा संख्या में और पुरुष कम संख्या में हो जाते हैं और तब अनेक महिलाएँ ऐसी होती हैं जिनका विवाह नहीं हो पाता अथवा जिनको तलाक दे दिया जाता है जिससे ये महिलाएँ बहुत दुखी-दुखी रहती हैं। तो क्या केवल संभोगवंचित होने मात्र से ये महिलाएँ ब्रह्मचारिणी हो जा सकती है? कई बार पुरुषों को भी विशेष कारणों से अपने घरों से दीर्घकाल तक दूर तथा अलग रहना पड़ता है जिससे वे दाम्पत्य के संभोग सुख से बंचित रहते हैं। तो क्या हम मान लें कि ऐसे पुरुष ऐसी अवधि में बह्म में विचरण करने वाले ब्रह्मचारी बन जाते हैं? मेरे खयाल से जो लोग यौन क्रिया से या तो मजबूरन वंचित हैं या स्वनिर्णय से उससे विरत हैं, उन्हें केवल इतने से कारण के आधार पर ही ब्रह्मचारी मान लेना ठीक नहीं है। ऐसा करना ब्रह्मचर्य शब्द का अवमूल्यन करने के समान होगा। इस विषय में आगे विचार करने पर मुझे ऐसा लगता है कि गीता में जो एक शब्द ‘ब्राह्मीस्थिति’ वाला आया है, इस ब्रह्मचर्य शब्द को भी हमें उसी के समकक्ष मानना चाहिए। गीता के दूसरे अध्याय के अंत में भगवान कृष्ण ने ‘स्थितप्रज्ञता’ के जो लक्षण बताए हैं उन्हीं को उन्होंने स्थितप्रज्ञता के साथ साथ ‘ब्राह्मीस्थिति’ का नाम भी दिया है। स्थितप्रज्ञता एवं ब्राह्मीस्थिति जिस व्यक्ति की होती है उस व्यक्ति की इंद्रियों एवं इंद्रिय-भोग के विषयों में जो संबंध होता है, उसका वर्णन गीता में इस प्रकार किया गया है-
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।
(अर्थात्- ”जब (कोई व्यक्ति) समस्त मनोगत लालसाओं या इच्छाओं को त्याग देता है और अपने भीतर ही अपने द्वारा तुष्ट अथवा तृप्त रहता है तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।”
इसी संदर्भ में यह भी कहा गया है कि-
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।(2-64)
अर्थात्- ”जो इंद्रियां रागद्वेश से मुक्त हैं तथा अपने ही निग्रह अथवा नियंत्रण में हैं उनसे विषयभोग करते हुए (भी) ऐसा व्यक्ति जो कि (सत् एवं असत् के बीच विवेक करके) सही कार्य ही करता है, सहज प्रसन्नता को प्राप्त करता है।”
इसके अतिरिक्त एक और श्लोक जो ध्यान देने योग्य है, निम्नानुसार है-
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसास्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढ़ात्मा मिथ्याचार: स उच्यते।। (3-6)
अर्थात्- ”जो व्यक्ति कर्मेंद्रियों को तो संयमित कर लेता है, परन्तु अपने मन से इंद्रियभोग के विषयों का चिंतन करता रहता है, वह व्यक्ति मिथ्याचारी है।” तो गीता के ये तीन श्लोक ब्रह्मचर्य अथवा ब्राह्मीस्थिति को समझने में हमारी बहुत मदद कर सकते हैं। सबसे पहली बात यह हे कि हमें अपने मन को ही कामनाओं, वासनाओं अथवा इच्छाओं से मुक्त करना है। यह मन जब तरह तरह के अभावों की भावना से मुक्त होगा और अपने भीतर अपने ही से तुष्ट यानी तृप्त रहेगा, तब हमें स्थितप्रज्ञता अथवा ब्राह्मीस्थिति अथवा ब्रह्मचर्य प्राप्त होगा। मूल बात, अपने मन को तरह तरह की कामनाओं, इच्छाओं, लालसाओं, वासनाओं एवं अभाव की भावनाओं से मुक्त करके अपने मन की तुष्टि या तृप्ति अपने भीतर से ही, अपने अंत:करण से ही प्राप्त करनी है। यानी हमें सुख या प्रसन्नता की दृष्टि से स्वत: अपने भीतर ही स्वावलम्बी होना है। मुझे तो अमुक प्राप्ति होने पर ही तुष्टि या तृप्ति मिलेगी, ऐसी स्थिति से मुक्त होना आवश्यक है। ब जो व्यक्ति मनोगत कामनाओं या अभाव भावनाओं से तो मुक्त है और संयोगवश मान लो यदि अपनी राग-द्वेष से मुक्त एवं स्वनियंत्रित इंद्रियों द्वारा विषयों में रमण कर भी लेता हे तो उससे भी उसे सहजानंद या सहज प्रसन्नता ही प्राप्त होती है। पर इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति अपनी कर्मेंद्रियों को तो येन केन प्रकारेण रोक करके रखता है, परन्तु मन से चिंतन एवं मनन विषयभोग ही का करता रहता हे तो ऐसा व्यक्ति स्थितप्रज्ञ अथवा ब्राह्मीस्थिति वाला या ब्रह्मचारी नहीं है बल्कि मिथ्याचारी है। इस प्रकार हम यह बात समझ सकते हैं कि ब्रह्मचर्य का यही तात्पर्य नहीं है कि हम अपने शरीर से कामोपभोग नहीं करें। स्थितप्रज्ञता, ब्राह्मीस्थिति एवं ब्रह्मचर्य मूलत: हमारी मानसिक आत्मतुष्टि एवं आत्मानंद में मगन रहने की बात है न कि बाहर से शरीर मात्र को कामोपभोग से बचाने का नाम स्थितप्रज्ञता, ब्राह्मीस्थिति या ब्रह्मचर्य है।
ब्रह्मचर्य का दूसरा लक्षण जो गीता में उल्लिखित है वह ‘यज्ञचर्या’ का है। गीता के तीसरे अध्याय में कहा गया है कि प्रजापति ने प्रजा को यज्ञ क्रिया के साथ में पैदा किया। यज्ञ को सामान्यत: हम हवन के अर्थ में लेते हें पर हवन तो यज्ञ का एक प्रतीक मात्र है। मूल यज्ञ तो पूरी प्रकृति में ‘क्षरण-भरण के आवर्तनचक्र’ में समाया हुआ है। तो मनुष्य जो कुछ भी प्रकृति या समाज से या गुरू या माता-पिता से प्राप्त करता है, उसके बदले में अपनी सेवा देने का नाम यज्ञ है। यदि हम प्रकृति, समाज, परिवार तथा गुरुकुल से केवल प्राप्ति का ही अभ्यास करते हैं और प्राप्ति के बदले में अपनी तन से सेवा देने से बचते हैं तो हम चोर हें और इसलिए हम साहूकारी या ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर रहे हैं। इस विषय में गीता का वचन है –
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात् सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।। (3-15)
अर्थात्- ”कर्म की उत्पत्ति ब्रह्म से हुई है और ब्रह्म की उत्पत्ति अक्षर सत्ता से हुई है। इसलिए सर्वव्यापी ब्रह्म सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।”
इस दृष्टि से देखने पर ब्रह्मचर्य केवल इंद्रिय निग्रह ही नहीं है बल्कि प्राप्त उपकार के बदले में सेवा करके उऋण होने के अभ्यास में भी ब्रह्मचर्य है जिसे हम ब्रह्मचर्य के साथ-साथ ‘यज्ञचर्या’ का नाम भी दे सकते हैं।
ब्रह्मचर्य का एक और तत्व हमें गीता के अट्ठारहवें अध्याय के चौवनवें श्लोक में मिलता है जिसमें कहा गया है-
ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति।
सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।। (18-54)
अर्थात्’ ”जो व्यक्ति बह्म को आत्मसात् कर लेता है वह प्रसन्नात्मा होकर न तो शोकमग्न होता है और न इच्छाओं से पीडि़त होता है। वह व्यक्ति समस्त प्राणियों में समदृष्टि रखता है और इस प्रकार मेरी पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है।”
अब इस श्लोक की पहली पंक्ति में तो वही बात दुहराई गई है जो पूर्वमेव उद्भूत दूसरे अध्याय के चौसठवें श्लोक में कही जा चुकी है कि रागद्वेषवियुक्त तथा आत्मनिग्रहीत इंद्रियों से यदि विषयाचार भी हो तो मनुष्य ”प्रसाद” गुण (अर्थात् सहज आत्मानंद) को प्राप्त करता है। पर इस अठारहवें अध्याय के चौवनवें श्लोक में यह भी कहा गया है कि जो ब्रह्मभूत प्रसन्नात्मा है वह सृष्टि के समस्त प्राणियों के प्रति समदृष्टि रखता है जिससे उसे परमेश्वर की पराभक्ति की प्राप्ति होती है। तो ईश्वर की ऐसी सहज पराभक्ति का प्रसाद भी ब्रह्मचारी को मिलता है।
इस प्रकार गीता की मदद से हमें ब्रह्मचर्य के एक व्यापक स्वरूप का बोध होता है। सर्वप्रथम तो ब्रह्मचर्य द्वारा स्थाई तथा सहज आंतरिक आनंद की प्राप्ति की साधना की जाती है जिसकी उपलब्धि होने से इंद्रियजन्य अस्थाई सुख की लालसा स्वत: घट जाती है या धीरे धीरे लुप्त भी हो सकती है। इसके बाद ब्रह्मचर्य की दूसरी बात यह है कि एक ब्रह्मचारी व्यक्ति जहाँ से भी तथा जो भी वस्तु या सहायता प्राप्त करता है उसके बदले वह अपनी सेवाएँ या मदद देकर अपने पर चढ़े हुए उपकार का ऋण उतारने का प्रयत्न करता रहता है और अंत में उसकी तीसरी विशेषता यह है कि वह सृष्टि के समस्त प्राणियों के प्रति समतुल्यता की भावना रखता है कि जिसमें ईश्वर की सर्वोच्च भक्ति स्वत: निहित है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य का जो एक अति सीमित एवं संकीर्ण अर्थ लेकर हम चला करते हैं उससे बाहर निकल कर हमें ब्रह्मचर्य को उसके उपर्युक्त व्यापक तथा त्रिआयामी रूप में देखना चाहिए। ये तीन आयाम है-(1) अस्थाई इंद्रियसुखों के बजाय स्थाई एवं सहज आत्मानंद की साधना; (2) जो कुछ भी प्राप्त किया जाए उसके बदले सेवा द्वारा उऋण होने की साधना; और (3) समस्त प्राणियों में समतुल्य दृष्टि। प्रचीन काल में विद्यार्थी जीवन को ब्रह्मचर्य आश्रम का नाम शायद इसीलिए दिया गया था कि अपने विद्यार्थी जीवन में बालक या नवयुवक ब्रह्मचर्य के ऊपरलिखित तीनों अंगों या आयामों का अभ्यास करता था। उस पुरातन युग में शिक्षा का मूल स्वरूप भी यही था।
अब जबकि हम ब्रह्मचर्य को इस व्यापक त्रिआयामी रूप में देखते हैं तो यह ब्रह्मचर्यव्रत ही पूरी अहिंसा की जड़ के रूप में उभरता है। ब्रह्मचर्य का जो तीसरा आयाम ”समस्त प्राणियों में समतुल्य दृष्टि” का है, यदि उस आयाम का बोध नहीं हो तो ”अहिंसा” का विचार उत्पन्न ही नहीं हो सकेगा। ”अहिंसा आखिर क्यों होनी चाहिए?” इस प्रश्न का जवाब इसके सिवाय क्या हो सकता है कि ”अहिंसा इसलिए होनी चाहिए कि सभी प्राणियों में एक ही परब्रह्म परमेश्वर समाज रूप से व्याप्त है और इसलिए उस परब्रह्म की श्रेष्ठतम भक्ति यही है कि सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् प्रेम रखा जाए अर्थात् उनके प्रति अहिंसा का बर्ताव किया जाए।”
इस समतुल्य दृष्टि को (जो कि अहिंसा की जड़ अथवा जननी मानी जा सकती है) गीता में जगह-जगह तथा बार’बार बहुत महत्व दिया गया है। गीता के छठे अध्याय के बत्तीसवें श्लोक में कहा गया है-
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति यो∙र्जुन।
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:।। (16-32)
अर्थात्- ”हे अर्जुन, योगी तो वही सर्वश्रेष्ठ माना जाता है जो चाहे तो दु:ख में चाहे सुख में सर्वत्र ऐसी दृष्टि रखता हो मानो दूसरा व्यक्ति जो भी सुख या दु:ख भोग रहा है, वह कोई दूसरा नहीं, बल्कि वह स्वयं ही भोग रहा है।”
ऊपर उद्धृत अट्ठारहवें अध्याय के चौवनवें श्लोक में जो ”सम: सर्वेषु भूतेषु” का लक्षण ब्रह्मभूत योगी का बताया गया था, उसी को छठे अध्याय का यह उपर्युक्त बत्तीसवाँ श्लोक ”आत्मौपम्य” शब्द से और अधिक स्पष्ट कर देता है। इस ”आत्मौपम्य” शब्द के प्रयोग से अहिंसा के मौलिक स्वरूप एवं औचित्य को और अधिक स्पष्टता मिल जाती है। इसके साथ ही एक बात और भी ध्यान देने योग्य यह है कि जहाँ पूर्वोद्धृत श्लोक (18-54) ”सर्वभूतेषु” (अर्थात् सब प्राणियों में) समदृष्टि की बात बताता है वहाँ यह बाद का (6-32) श्लोक ”सर्वेत्र” समदृष्टि रखने की बात कहता है। तो यहाँ हमें ”सर्वभूतेषु” एवं ”सर्वत्र” का अर्थभेद भी समझना चाहिए।
आज के युग में मानव जाति केवल प्राणियों के प्रति ही हिंसक नहीं हो रही है बल्कि वनस्पति एवं पृथ्वी, जल, आकाश एवं हवा के प्रति भी हिंसक हो रही है। अत: आज की अहिंसा को केवल जीवदया तक सीमित नहीं रहना है बल्कि पृथ्वी, जल, आकाश एवं हवा तथा वनस्पति के प्रति भी हमें अहिंसक होना है। इसलिए ”सब प्राणियों” तक ही सीमित हिंसा के पालन के बजाय अब हमें ”सर्वेत्र” अहिंसा के व्यापक पालन पर ध्यान देना होगा।
इस लेख के प्रारंभ में ऐसा कहा गया था कि धर्मपालन के जो पाँच महाव्रत- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह के रूप में गिनाए गए हें, वे गहरी दृष्टि से देखने पर अलग अलग पाँच महा व्रत नहीं हैं बल्कि एक ही मूल महाव्रत अर्थात् अहिंसा के पाँच आयाम हैं तो वह कथन सत्य प्रतीत होता है। सत्य का पालन यदि न हो और झूठ का प्रयोग हो तो यह हमारे अंत:करण की हिंसा है। अस्तेय का पालन नहीं करके यदि हम चोरी करें तो यह दूसरे के अधिकार की हिंसा है, यदि हम दूसरे प्राणी या पंचमहाभूतों के प्रति हिंसक हों तो यह ब्रह्मतत्व की हिंसा है क्योंकि सभी प्राणियों एवं पंचमहाभूतों में ब्रह्म ही व्याप्त है ओर यदि हम अपरिग्रह को त्याग कर परिग्रही बनते हें तो यह दूसरों की आवश्यकताओं के लिए बाधा डालने के रूप में हिंसा ही है।
इस प्रकार यद्यपि धर्म के महाव्रत पाँच अलग अलग गिनाए गए हें, तथापि मूलत: मानवधर्म अहिंसा में ही समाविष्ट हे और ये पंच महाव्रत अहिंसा के ही स्थूल एवं सूक्ष्म रूपों की सम्यक् एवं समग्र व्याख्या करते हैं।