निज भाषा के महत्व पर श्री भारतेंदु हरिश्चन्द्र के उद्गार

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (९ सितंबर १८५० – ७ जनवरी १८८५) आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। भारतेन्दु हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। इनका मूल नाम हरिश्चन्द्र था, भारतेन्दु उनकी उपाधि थी।  हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है। भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में प्रसिद्ध भारतेन्दु जी ने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण का चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया। हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में उन्होंने अपनी प्रतिभा का उपयोग किया। भारतेन्दु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। श्री भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की यह मान्यता थी कि निज भाषा यानि कि मातृ भाषा की उन्नति ही सब उन्नतियों का मूल आधार है। अंग्रेज़ी ज्ञान से प्रवीणता आती है लेकिन निज भाषा ज्ञान बिना हीनता नहीं मिट सकती है जो उनके निम्नलिखित उद्गार से प्रकट होती है –

निज भाषा उन्नति अहै; सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
अँग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रविन।
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।

स्वर्गीय श्री दयाल चंद्र सोनी की भी यही मान्यता रही है और प्रौढ़ शिक्षा को स्थानीय भाषा में देने की विचारधारा को बढ़ावा देने के मौलिक प्रयासों के लिये भारतीय प्रौढ़ शिक्षा परिषद् ने सन् 2002 में उन्हें “टैगौर पुरस्कार“ से सम्मानित किया था।

प्रस्तुति – ज्ञान प्रकाश सोनी