जब राज्यों में मुख्यमंत्री, मंत्री या जिम्मेदारी के अन्य बड़े बड़े संवैधानिक पदों पर अप्रशिक्षित एवं अनभ्यस्त लोगों को लगाया जा सकता है तो मैं सोचता हूँ कि एक शिक्षित व्यक्ति को शिक्षक पद पर नियुक्ति हमारी सरकार तब तक क्यों नहीं देती जब तक वह प्रशिक्षित होने का प्रमाण पत्र पेश नहीं करता? कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में जो लोग लैक्चरर या प्रोफेसर बनते हैं उनके लिये उनकी शैक्षिक डिग्री से पृथक किसी प्रशिक्षण की डिग्री अनिवार्य या आवश्यक क्यों नहीं है? इसी तरह जो जनप्रतिनिधि हमारे सांसद अथवा विधायक बन जाते हैं उनके लिये संसदीय या विधायी आचरण एवं दायित्व पालन का पूर्व प्रशिक्षण जरूरी क्यों नहीं है? मेरे मन में तो एक प्रश्न यह भी उठता है कि यदि शिक्षकों के लिये शिक्षा देने का प्रशिक्षण लेना अनिवार्य है तो छात्रों के लिये शिक्षकों से शिक्षा प्राप्ति का अच्छा प्रशिक्षण ले लेने के बाद ही छात्र बनने की पाबन्दी क्यों नहीं है।
मैंने सन् 1936 में हाई स्कूल की परीक्षा पास की थी। उदयपुर की प्रगतिशील शिक्षण संस्था ”विद्याभवन” से मैंने यह परीक्षा उत्तीर्ण की। मेरी आयु उस समय 17 वर्ष की थी। मैंने शिक्षण का कोई भी प्रशिक्षण नहीं लिया था। पर विद्याभवन ने ही मुझे मेरे हाई स्कूल पास करते ही अपने जूनियर स्कूल में (जो कक्षा पॉंच तक था) शिक्षक बना दिया। मैं हिन्दी का, नेचर स्टडी का एवं कहानी कहने वाला शिक्षक नियुक्त हुआ। मैंने नागरी लिपि के बारे में एक बात स्वयं समझी। अंग्रेजी का लिपि लेखन सुधारने के लिये चार लाइनों वाली एक्सरसाईज़ कापियॉं उस समय चला करती थीं। अंग्रेजी अक्षरों में कुछ अक्षर बीच की दो लाइनों के बीच ही समाते हैं, कुछ अक्षर बीच की दो लाइनों से ऊपर की तरु तो कुछ अक्षर बीच की दो लाइनों के नीचे की तरु जाते हैं। इसलिये अंग्रेजी लिपि के लेखन सुधार हेतु अभ्यास चार लाइनों में कराया जाना मैंने देखा। इसकी तुलना मैंने नागरी लिपि से की तो मेरे ध्यान में आया कि जहॉं तक मूल अक्षर के आकार का सवाल है, नागरी लिपि के प्रत्येक मूलाक्षर का जो कद है, वह तो एक समान ही है यानी न तो कोई अक्षर दो लाइनों के ऊपर ही निलता है और न नीचे निकलता है, पर अक्षरों पर जो मात्राऍं लगती हैं उनमें से कुछ मात्राऍं तो अक्षर के ऊपर और कुछ मात्राएं अक्षर के नीचे लगती हैं। मैंने विद्यार्थियों के लिये ऐसी स्पेशल कापियॉं निष्काम प्रैस, मेरठ (विद्यालय का मुद्रण कार्य व स्टेशनरी सप्लाई का काय्र उस समय ठेठ मेरठ के निष्काम प्रैस में होता था) बनवाई जिनको विद्यार्थियों को देकर मैंने उनसे कहा कि तुम दो लाइनों के बीच में, ऊपर की एवं नीचे की लाइन को स्पर्श करने वाले अक्षर लिखोगे ताकि तुम्हारे हर मूल अक्षर का कद एक समान रहे और मात्राऍं जरूर आवश्यकतानुसार ऊपर या नीचे लगाओगे। इस प्रकार केवल एक ही लाइन पर सुलेख का अभ्यास करने की बजाय दो लाइनों के बीच बराबर कद के अक्षर लिखने का अभ्यास मैंने शुरू कराया। जैसे जैसे विद्यार्थी आगे की कक्षाओं में चढ़ते वैसे वैसे मोटे मोट अक्षरों की बजाय कुछ छोट तथा और ऊँची कक्षा में और छोट अक्षर लिखने हेतु कापियों में लाइनिंग का काम अलग अलग कक्षाओं के लिये अलग अलग कराया गया। नतीजा यह हुआ कि जिन विद्यार्थियों को मैंने हिन्दी पढ़ाई उनकी लिपि बहुत अच्छी हो गयी।
नेचर स्टडी के लिये मैं बच्चों को पड़ौस के फतहसागर झील के पास घूमने ले जाता। मैंने ऐसी पुस्तकें पढ़ीं जिनसे मुझे अलग अलग पक्षियों की पहचान हुई। अलग अलग पेड़ पौधों के बारे में भी मैंने पुस्तकें पढ़ीं ताकि मैं बच्चों को नेचर स्टडी में मदद दे सकूँ।
इसी तरह मैंने खूब कहानियॉं खुद पढ़ीं ओर बच्चों को भी सुनायीं। गर्मी के अवकाश में मैंने लिखित रूप से अपने शिक्षण का स्वयं मूल्यांकन किया और यह भी लिखा कि मैं आगे अपने शिक्षण में कैसे सुधार करूंगा। एक दो वर्ष बाद हमारे प्रधान शिक्षक जी ने कहा कि मुझे कक्षा पॉंच का भूगोल पढ़ाने का जिम्मा दिया जा रहा है। तो मैं डर गया, घबरा गया। कक्षा पॉंच को मैं भूगोल पढ़ा सकूँगा? मैं अपने प्रधानाध्यापक जी (जो मेरे शिक्षक रह चुके थे) के आगे रोने लगा। पर प्रधानाध्यापकजी ने मुझे प्रोत्साहित किया, मेरा हौसला बढ़ाया, मेरा आत्मविश्वास बढ़ाया1 उन्होंने कहा, ”तुमने प्रथम श्रेणी में भूगोल में हाई स्कूल पास किया है। तुम पॉंचवीं को भूगोल क्यों नहीं पढ़ा सकते हो? तुम डरों मत। तुम्हों कोई नहीं पूछेगा कि तुम क्या तथा कैसे पढ़ा रहे हो।” हमारे भूगोल शिक्षक एवं विद्याभवन के तत्कालीन कार्यवाहक प्रधानाध्यापक (श्री जीवन नाथ दर) ने मुझे यह कहा। तब मैंने कक्षा पॉंच को भूगोल पढ़ाया। उस कक्षा को ठीक से भूगोल पढ़ाने के लिये मैने कुछ और किताबें पढ़ीं और जो कुछ मैंने हाई स्कूल में पढ़ा था उसमें और वृद्धि की। मेरा पॉंचवीं कक्षा का भूगोल शिक्षण बहुत उच्च कोटि का रहा और मुझे खूब शाबासी मिली।
नतीजा क्या हुआ? सन् 1941 में विद्याभवन ने महात्मा गॉंधी द्वारा ”नई तालीम” या ”बुनियादी शिक्षा” का एक अतिरिक्त विद्यालय ग्रामीण क्षेत्र में खोलने का जब विचार किया तो उन्हें इस नीवन और कठिन शिक्षा का काम (सारे विद्याभवन के स्टाफ में) मुझे ही सौंपने की बात सूझी। इस प्रकार मैंने सन् 1941 में बुनियादी शिक्षा का काम शुरू किया। बेशक इसके लिये मुझे सन् 1941-42 में जामिया मिलिया, दिल्ली के ”उस्तादों के मदरसे” में एक वर्ष का प्रशिक्षण दिलवाया गया। परन्तु मैंने इस शिक्षा में 15 वर्षों तक जो काम किया, उसमें काम करते करते मेरा निरन्तर नये सबक सीखते जाना जितना मददगार साबित हुआ उतनी मददगार मेरी वह एक साल की ट्रेनिंग साबित नहीं हुई। सारांश यह है कि मैंने शिक्षण करते करते अपने अनुभवों से अपने शिक्षण कौशल में निरन्तर उन्नति की।
जिस विद्यालय में मैं पढ़ा उसमें एकाध शिक्षक को छोड़कर सभी शिक्षक अप्रशिक्षित थे। पर जिस मेहनत, निष्ठा और प्रतिभा से उन्होंने हमें पढ़ाया उसकी सराहना तथा कृतज्ञता मुझमें आज भी है। मैं अपने उन शिक्षकों को कभी भूल नहीं सकता।
धीरे धीरे शिक्षकों के लिये ट्रेनिंग की यह नयी सनक शुरू हुई। पर इसमें भी उस समय एक बात यह थी कि सरकार एवं संस्थाऍं पहले तो केवल शिक्षित लोगों को शिक्षक पद पर सीधी नियुक्ति दे देती थी, उनसे काम लेना भी शुरू कर देती थी और बाद में सरकार या संस्थाऍं अपने कार्यरत शिक्षकों को स्वयं ट्रेनिंग दिलवाती थीं। यह सिलसिला कई वर्षों तक चला। फिर जैसे जैसे स्कूलों और कॉलेजों से अधिकाधिक संख्या में ये शिक्षित नामधारी युवक बाजार में आसानी से उपलब्ध होने लगे और उनकी बेरोजगारी की मजबूरी शुरू हुई, सरकार ने तथा संस्थाओं ने अपनी खुद की गरज़ या जिम्मेदारी तो मिटा दी और ऐसा नियम बना दिया कि जिसे भी टीचरी की नौकरी पानी हो वह पहले अपने खर्चे से टीचरी की ट्रेनिंग स्वयं ही प्राप्त करे और बाद में नौकरी के साक्षात्कारों के थपेड़े खाते हुए अपनी किस्मत आजमाता रहे। यानी बाजार में शिक्षक पद के प्रार्थियों की संख्या इतनी ज्यादा हो गयी कि उनकी और उनके रोजगार की प्राप्ति के बीच में यह ”हर्डल” यह बाधा रखना जरूरी व सुविधाजनक हो गया कि वे पहले स्वयं अपने खर्चे से शिक्षण का प्रशिक्षण प्राप्त करें और बाद में ही शिक्षक पद पर नियुक्ति हेतु आवेदन करें और नियुक्ति होगी साक्षात्कार की खिड़की से। जो पार हो जाय वह तो पार हो जाय और वह जो पार न हो पाये धक्के खाये और अपनी किस्मत को रोये। वह न तो घर का रहे न घाट का।
मदारी लोग भालुओं और बन्दरों की ट्रेनिंग करें, यह तो ठीक है पर शिक्षक बनने के लिये भी शिक्षित लोगों की अलग से ट्रेनिंग लेनी पड़े यह शिक्षित बेरोजगारों के साथ षड्यंत्र और लोगों की ऑंखें में धूल झोंकना है या नहीं? मैंने अपने शिक्षकों से शिक्षा लेते समय स्वयं इस बात को अच्छी तरह से देख लिया था, जान लिया था कि कक्षा में पढ़ाया कैसे जाता है। मैं उन शिक्षकों की शिक्षण शैली देख चुका था और स्वयं उसमें से गुज़र चुका था। तो मैं अब शिक्षण की ट्रेनिंग ऐसे प्रशिक्षण विद्यालय के लैक्चरर और प्रोफेसरों से क्यों लूँ जिनको खुद को स्कूलों में पढ़ाने का अनुभव नहीं के बराबर है। इन टीचर ट्रेनिंग कॉलेजों में कितने लैक्चरर, प्रोफेसर या प्रिंसिपल ऐसे हैं जिनको स्कूलों में पढ़ाने का लम्बा, मौलिक और गहरा अनुभव है। जिन्होंने शिक्षण कला के विकास में अपना कोई विशेष योगदान दिया है। जिन लोगों ने खुद टीचरी नहीं की, वे लैक्चरर और प्रोफेसर लोग भी ट्रेनिंग का काम धड़ल्ले से कर रहे हैं।
मैं जब तक अप्रशिक्षित या अप्रमाणित शिक्षक हूँ तब तक मुझे अपने कार्य में से स्वयं सीख सीख कर सुधार करते चले जाने की चिंता है। पर जैसे ही मैं प्रशिक्षित होने का प्रमाण पत्र लेकर टीचर बनता हूँ, मैं निश्चिन्त हो जाता हूँ कि अब मुझे शिक्षण कला में नया कुछ नहीं सीखना है। मैं तो स्वयंमेव प्रवीणता का प्रमाण पत्र लेने के बाद शिक्षक बना हूँ। अब मैं अपने शिक्षण में कितना भी लापरवाह और गैर जिम्मेदार क्यों न रहूँ मेरी बी. एड्. या एस.टी.सी. की डिग्री मुझसे कोई छीन नहीं सकता।
फौजियों की ट्रेनिंग हो, पुलिस कर्मियों की ट्रेनिंग हो, प्रशासकों की ट्रेनिंग हो, यह तो चलेगा, पर शिक्षकों की भी ट्रेनिंग हो और ट्रेनिंग के बिना उन्हें शिक्षक नहीं बनने दिया जाये, क्या शिक्षक को अशिक्षक बनाने का यह एक षड्यंत्र नहीं है? शिक्षक कहीं कोई मौलिक काम नहीं कर बैठे, कहीं कोई क्रांति न कर बैठे, कहीं कोई शिक्षक दुबारा गिजुभाई बन कर लकीर की फकीरी छोड़ बैठे बल्कि एक पालतू शिक्षक ही बना रहे, इसका एक प्रच्छन्न एवं कारगर उपाय है शिक्षक के लिये शिक्षण कला का प्रशिक्षण प्राप्त करने की यह अनिवार्यता।
जिस शिक्षक को वेतन भत्ता यानी सरकार से मिलता हो उसका ट्रेनिंगयाफ्ता होना या पालतू शिक्षक बन जाना जरूरी है। क्योंकि शिक्षा तो स्वयं एक शक्ति है जिसके आगे सत्ता को भी झुकना पड़ता है। शिक्षक द्वारा समाज में शिक्षा एक स्वतंत्र लोकशक्ति के रूप में नहीं उभारी जाय, बल्कि शिक्षा द्वारा दब्बू इंसान ही पैदा हों जो केवल सत्ता ही को समाज की एकमात्र नियंता शक्ति के रूप में स्वीकार करें, इसकी सुरक्षा व्यवस्था शिक्षकों की ट्रेनिंग व्यवस्था को अनिवार्य बनाकर हमारी सरकार द्वारा कर दी गई है। इसका मकसद है कि शिक्षक लोग अपने आप को नाम मात्र से भले ही शिक्षक या गुरू मानते मनवाते रहें, पर मूल रूप से वे अपने छात्रों के प्रति दायित्व भाव एवं निष्ठा रखने की बजाय सत्ता के प्रति ही अपना दायित्व भाव एवं निष्ठा रखते हुए भाड़े के टट्टू या स्कूली कामगार मात्र बने रहें। वे खुद कभी भी नहीं सोचें कि जो शिक्षा देश में प्रचलित है वह देश हित में है या नहीं? वे तो केवल उसी पाठ्क्रम तथा उसी परीक्षा पद्धति के ”मोस्ट ओबीडियेण्ट सर्वेंट” बने रहने को हैं जो राजकीय शिक्षा विभाग द्वारा निर्धारित है। जिस समय मैं यह लेख लिख रहा हूँ उस समय राजस्थान के स्कूली शिक्षक हड़ताल पर हैं। इस स्थिति में प्रदेश के आठ लाख विद्यार्थियों की वार्षिक परीक्षाओं का काम सरकार के अन्यायन्य विभागों के कर्मचारी लोग अपने विभागों की हानि करके अपने अकुशल हाथों से जैसे तैसे सम्हाल रहे हैं। यहॉं एक गंभीर एवं मौलिक प्रश्न यह खड़ा होता है कि येसभी शिक्षक प्रशिक्षित होने के बावजूद इस हड़ताल पर कैसे आमादा हुए? इसकी ट्रेनिंग द्वारा क्या यह नैतिकता इन शिक्षकों को नहीं सिखाई गई कि वे वेतन भत्ता तो भले ही सरकार से लें, पर उनकी जिम्मेदारी व वफादारी पूर्णतया अपने छात्रों के प्रति है। अपने वेतन भत्तों की बनिस्पत ज्यादा चिंता अपने विद्यार्थियों के भविष्य तथा उनके हितों की करनी है। निश्चय ही टीचरों के ट्रेनिंग कोर्स में यह आइटम सम्मिलित नहीं होता? क्योंकि सरकार और ट्रेनिंग कॉलेजों की निगाह में टीचरों को सरकार ही को मालिक मानना और अपने को मजदूर मानना अत्यावश्यक है।
पर प्रश्न यह है कि यदि सरकार ने तथा शिक्षकों के ट्रेनिंग कॉलेजों ने शिक्षकों के शिक्षकत्व का अवमूल्यन करके उन्हें ”स्कूल मजदूर” की निम्न श्रेणी में डाल दिया है तो क्या स्कूलों में इन स्कूली मजदूरों के माध्यम से जो तथाकथित शिक्षा दी जा रही है वह भी असली शिक्षा या वास्तविक शिक्षा बनी रह सकेगी? यदि शिक्षक ही शिक्षक नहीं रहा तो शिक्षा कैसे शिक्षा बनी रहेगी?