आज इस प्रश्न पर विचार करना अति आवश्यक हो गया है कि क्या शिक्षा का प्रप्ति स्थान केवल स्कूल ही है। यह प्रश्न अत्यंत महत्व का इसलिए हो गया है कि पूरे देश में हमारे तथा कथित शिक्षितों एवं तथाकथित अशिक्षितों में यह मान्यता जड़ जमा कर बैठ गयी है कि शिक्षा का प्राप्ति स्थान केवल स्कूल ही है और शिक्षित भी वही है जो कि स्कूल में हाजिरी दे चुका हो, स्कूल की कक्षाओं में पढ़ चुका हो जिसे स्कूल में शिक्षित होने का प्रमाण पत्र दे दिया गया हो। चाहे नौकरशाही वाले हों, चाहे राजनीति वाले हों, चाहे पत्र पत्रिकाओं के संपादक हों और चाहे अस्कूलित सामान्य जनता हो, हर व्यक्ति ऐसा मानता है कि अगर शिक्षा नामक वस्तु कहीं उपलब्ध है तो वह केवल स्कूल ही में मिल सकती है तथा स्कूल के अलावा कोई स्थान या स्रोत ऐसा है ही नहीं जहाँ शिक्षा मिल सके।
पर जैसे-जैसे मैं आगे तथा और आगे सोचता हूँ, मुझे तो ऐसा लगता है कि यह एक बहुत हानिप्रद एवं भयानक भ्रांति है कि यदि शिक्षा प्राप्ति का कोई स्थान है तो वह केवल स्कूल है और इसी के साथ यह भी एक महा भ्रांति है कि स्कूल के बाहर जो कुछ भी है वह अशिक्षा या अशिक्षा का अंधकार ही है। सारा देश इस घातक महा भ्रांति से बुरी तरह जकड़ लिया गया है। यहॉं तक कि हमारे संविधान की धारा 45 भी इसी भ्रांति पर आधारित है कि शिक्षा यदि बालकों या बालिकाओं को कहीं मिल सकती है तो वह केवल स्कूलों में ही मिल सकती हैा यही कारण है कि संविधान की धारा 45 में यह लिखा गया है कि 6 से 14 वर्ष तक की आयु के बीच आठ वर्ष तक सरकार देश के सभी बच्चों-बच्चियों का शिक्षा का अनिवार्य एवं मुफ्त प्रबन्ध करेगी। इस संवैधानिक प्रावधान की मान्यता भी यही है कि शिक्षा यदि कहीं है तो वह केवल स्कूल में ही है और स्कूल के बाहर या स्कूल के बिना शिक्षा असंभव है। इस प्रकार शिक्षा पर स्कूल की ठेकेदारी होने की भ्रांति को या स्कूल का शिक्षा पर एकाधिकार होने की भ्रांति को तो हमारे देश के संविधान तक ने मान्यता दे रखी है। तो ऐसी दशा में यदि देश के राजनीतिज्ञ, नौकरशाह, अध्यापकगण, पत्रकारगण तथा जनसाधारण, स्कूल ही को शिक्षा का एक मात्र तथा अनिवार्य स्रोत मानें तो इसमें आश्चर्य क्या हो सकता है।
मैने सन् 1941 से सन् 1955 तक बुनियादी शिक्षा का गांधेय प्रयोग किया जिसमें उत्पादक उद्यम को स्कूली समय विभाग का आधा समय दिया जाता था और जिसमें यह कोशिश की जाती थी कि भाषा, गणित, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि विषयों को पढ़ाने की जरूरतों एवं अवसरों को विद्यार्थियों के उत्पादक उद्यम में ढूँढा जाय या विद्यार्थियों के प्राकृतिक एवं सामाजिक वातावरण में उन्हें ढूँढा जाय। इसके अलावा स्कूल में चपरासी की कोई जगह नहीं थी और स्कूल की सफाई, सुथराई, पानी भरने, घंटी बजाने आदि का सारा काम शिक्षक एवं विद्यार्थी मिल कर करते थे। कक्षा 7 तक विद्यार्थियों को अंग्रेजी भाषा का परिचय अथवा शिक्षण बिल्कुल भी नहीं दिया जाता था। केवल आठवीं कक्षा में छात्रों को हिन्दी ज्ञान के सहारे से उन्हें अंग्रेजी पढ़ाई जाती थी और केवल उस एक वर्ष में ही विद्यार्थी अंग्रेजी में इतनी योग्यता प्राप्त कर लेते थे (उनके हिंदी ज्ञान तथा हिंदी व्याकरण ज्ञान के सहारे) कि दूसरे स्कूलों के कई वर्षों तक अंग्रेजी पढ़े हुए विद्यार्थियों के अंग्रेजी ज्ञान के बाराबर उनका अंग्रेजी ज्ञान हो जाता था। तो बुनियादी शिक्षा में काम करने से मुझे यह बात समझ में आयी कि किताबों में शिक्षा देने की जो क्षमता है, उससे कहीं ज्यादा शिक्षा देने की क्षमता उत्पादक उद्यम में है और अंग्रेजी के माध्यम से जितनी शिक्षा विद्यार्थियों को दी जा सकती है उससे कहीं ज्यादा शिक्षा विद्यार्थियों को अपनी मातृभाषा के माध्यम से दी जा सकती है। इसके अलावा एक और बात जो मैने शिक्षा के बारे में सीखी वह यह थी कि यदि स्कूल में झाड़ू-पोचा विद्यार्थी स्वयं करें, प्रार्थना-सभा में जाजम खुद बिछायें और समेटें, घंटी खुल बजावें तथा चपरासी के जगह काम विद्यार्थी खुल करें तो उनको ज्यादा आत्मविश्वास, ज्यादा जिम्मेदारी की भावना, ज्यादा सहयोग एवं मैत्री भावना सीखने को मिलती है और धनवान एवं निर्धन विद्यार्थियों को समानता के स्तर पर आने का बेहतर अवसर मिलता है। इस तरह की शिक्षा एक तरफ बच्चों को ज्ञान एवं कौशल देती है और दूसरी तरु उनका चरित्र बल भी बढ़ाती है।
आज के प्रचलित स्कूलों में उत्पादक उद्यम को कोई स्थान नहीं जबकि उत्पादक उद्यम शिक्षा का बहुत संपन्न खज़ाना है, आज के स्कूलों में मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम नहीं बनाकर अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाने की होड़ लग रही है जबकि मातृभाषा में किसी भी बात को ग्रहण करना तथा अभिव्यक्त करना कहीं ज्यादा सरल है (बनिस्पत उस बात को अंग्रेजी में ग्रहण या अभिव्यक्त करने के)। इसके अलावा आज के स्कूलों में झाड़ू-पोंछा विद्यार्थी नहीं करते, टॉयलेट की सफाई विद्यार्थी नहीं करते, कहीं जाजम बिछानी या समेटनी हो तो यह काम छात्र नहीं करेंगे जबकि इन तथाकथित नीचे के कामों में सहयोग, आत्मविश्वास, साम्यभावना, नम्रता आदि की चारित्रिक शिक्षा भरी हुई है। तो सवाल जो सहज ही उठता है वह यह है कि जिस स्कूल में शिक्षा के मूलस्रोत उत्पादक उद्यम का बहिष्कार है, जिस स्कूल शिक्षा में सर्वश्रेष्ठ माध्यम यानी विद्यार्थी की मातृभाषा का परित्याग है, जिस स्कूल में चपरासी की उपस्थिति लगातार यह संस्कार डालती है कि विद्यार्थी लोग नीचे दर्जे के माने जाने वाले कार्यों से परहेज करें, वह स्कूल शिक्षा प्राप्ति का स्थान कैसे हो सकता है। स्कूल तो वह व्यवस्था है जो कि कुदरत या खुदा की दी गयी संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था को नकार देती है। बेचारे ख़ुदा ने तो इंसान की शिक्षा की व्यवस्था उसके जीवन की सहज प्रक्रिया में ही कर रखी थी। पर स्कूल को यह भ्रांति फैलानी थी कि जीवन की जो सहज व्यवस्था एवं प्रक्रिया है उसमें तो शिक्षा की कोई भी व्यवस्था उस ‘नासमझ’ और ‘बेरहम’ ख़ुदा ने नहीं की है और इसलिए इन स्कूलों के आविष्कारक श्रीमान् मैकाले साहब को कोटि-कोटि धन्यवाद है कि उन्होंने इंसान की औलाद के लिए शिक्षा की यह स्कूली व्यवस्था कर दी है। ऐसी भ्रांति आज सारे भारत में व्याप्त है जिससे छुटकारा पाना जरूरी है।
सचमुच यह एक शोध का विषय है कि आज तक स्कूलों ने मनुष्य की शिक्षा की है या अशिक्षा की है। मनुष्य को विकृत किया है या मनुष्य को सुधारा है। सन् 1944 में श्री चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य जब उदयपुर की प्रसिद्ध शिक्षण संस्था ‘विद्याभवन’ के वार्षिकोत्सव पर मुख्य अतिथि के रूप में आये थे तो वे विद्याभवन के उस बुनियादी विद्यालय में भी आये थे जिसमें मैं काम करता था। वहॉं उन्होंने अपने भाषण में कहा था कि ”यह एक बड़े संतोष तथा हर्ष का विषय है कि मैकाले द्वारा द्वारा चलायी गयी शिक्षा की स्कूली व्यवस्था से अभी तक हमारे देश की अधिकांश जनता ने अपने आपको बचाकर रखा है।” बेशक हमें श्री राजगोपालाचार्य की यह बात इसलिए नहीं मानती है कि वे महान् थे। पर क्या यह एक प्रत्यक्ष कटु सत्य नहीं है कि हमारी स्कूली शिक्षा के अंधे फैलाव ने हमारे देश के तथाकथित शिक्षितों के चरित्र बल का घोर क्षरण कर डाला है। केवल वोट देने के अधिकार से ही प्रजा न तो स्वाधीनता की और न लोकतंत्र की रक्षा कर पायेगी। जिस देश का चरित्र बल घटेगा उस देश में लोकतंत्र तथा आज़ादी की रक्षा उस देश की सेना भी नहीं कर सकेगी। चरित्रबल ही देश की स्वाधीनता एवं देश के लोकतंत्र की रक्षा कर सकता है और शिक्षा तो बस वही शिक्षा कहलाने की हकदार है जो हमारे राष्ट्र के लोगों का चरित्र बल बढ़ावे। बेशक ज्ञान-विज्ञान एवं कला कौशल की निपुणता उपेक्षणीय नहीं। पर चरित्र बल का यदि दिवाला ही निकलता गया तो स्वाधीनता के लिए सारे बलिदान व्यर्थ होकर रहेंगे। आज की स्कूली शिक्षा के फैलाव से सारे देश का चरित्र बल घट जाने का खतरा देश पर आज मंडरा रहा है।
तो जीवन की मूल प्रक्रिया में जो सहज शिक्षा व्यवस्था ख़ुदा ने खुद ही कर रखी है उसका सहारा लेना जरूरी है। यह सहज शिक्षा व्यवस्था मूलत: उत्पादक उद्यम में है। नीचे से नीचा समझा जाने वाले श्रम-काम बिना लज्जित हुए स्वयं स्वावलंबनपूर्वक करने में है। आपसी प्रतियोगिता (जिसका स्कूलों में बोलबाला है) के बजाय आपसी सहयोग में है। अपनी स्वयं की मातृभाषा द्वारा शिक्षा को लेने-देने में है न कि उत्पादक उद्यम को ठोकर मार कर केवल किताबों में उलझने में है। न कि नीचे माने जाने वाले कामों को चपरासियों से कराने में है। न कि अपनी सामान्य जनता की भाषा को हेय मानकर अंग्रेजी के माध्यम से शिक्षा लेने देने में है। वास्तव में मैकाले द्वारा प्रवर्तित स्कूली व्यवस्था (जो कि आज भी धड़ल्ले से चल रही है) प्रकृति दत्त सहज शिक्षा व्यवस्था से जनता को विरक्त एवं वंचित करने की साजिश है। यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि स्वाधीन भारत ने भी मैकालेवादी स्कूलों की इस सहज शिक्षा विरोधी प्रवृत्ति को नहीं समझा, नहीं माना और एक अंधी धुन इसी मैकालेवादी स्कूल को (शिक्षा के नाम पर) अनिवार्य बनाने की लगातार लगा रखी है। तो इस स्थिति में जो भी लोग शिक्षा के विषय में मौलिक एवं स्वतंत्र चिंतन करना चाहते हैं, उनका परम कर्तव्य है कि स्कूल और शिक्षा के बीच जो यह पर्यायवाची संबंध होने का भ्रम देश में फैलाया जा रहा है उसका विरोध करते हुए प्रजा को इस विषय में सावधान किया जाये।