हम लोग अब तक प्रौढ़ शिक्षा को इस निगाह से देखते रहे हैं कि जो लोग बचपन में स्कूलों में पढ़ाई के दौर से गुजरे बिना ही प्रौढ़ हो गये हैं वे लोग ”शिक्षा से वंचित” रह गये हैं और उन बेचारों पर दया करके हमें चाहिए कि हम उनके लिए रात्रि-शालाएँ चलाएँ और ”देर आयद, दुरुस्त आयद” के सिद्धान्त पर (या better late than never के सिद्धान्त पर) उन ”अशिक्षित” प्रौढ़ों को भी यंत्किंचित अंकाक्षरी ज्ञान देकर ”शिक्षित”बना लें ताकि उन लोगों के माथे पर जो अशिक्षित होने के कलंक का टीका लगा हुआ हे वह धुल जाये और देश की शोभा बढ़ सके और किसी सीमा तक ये शिक्षित प्रौढ़ अपना तथा राष्ट्र का जीवन भी (जो उनकी अशिक्षा से बिगड़ रहा है) सुधार सकें।
इस तरह की प्रौढ़ शिक्षा के प्रयत्न हमारे देश में तभी से चल रहे हैं जब से देश के लोगों में इस बात का अहसास होने लगा कि अन्त में भारत को आजादी चाहिए और आजादी की तैयारी का एक अंग यह भी है कि जनता में कुछ चेतना आए तथा जनता का पिछड़ापन दूर हो। क्योंकि शिक्षा से चेतना आती है और पिछड़ापन दूर होता है इसलिए प्रौढ़ शिक्षा होनी चाहिए। इस प्रकार यद्यपि ध्येय तो यह था कि स्वाधीनता की तैयारी के लिए जनता में आवश्यक चेतना जागे, पर व्यवहार की दृष्टि से प्रौढ़ शिक्षा का स्वरूप इससे बढ़कर नहीं रहा कि लोग साक्षर हों तथा थोड़ा बहुत आवश्यक ज्ञान अर्जित कर लें। प्रौढ़ शिक्षा का ऐसा स्वरूप या ऐसी परिकल्पना प्राय: बनी रही। फलस्वरूप प्रौढ़ शिक्षा एक ऐसा कार्य माना गया कि जो एक निर्धारित पाठ्यक्रम का ज्ञान प्रौढ़ों का प्राप्त हो जाय तब प्रौढ़ शिक्षा का कार्य समाप्त भी हो जाए। अर्थात् अनपढ़ प्रौढ़ों को साल छ: माह तक रात्रिशाला में पढ़ाना, उनको थोड़ी बहुत सत्संगति देना, थोड़ा-बहुत ज्ञान देना तथा अंकाक्षरी योग्यता प्रदान करना- बस इसे ही प्रौढ़ शिक्षा का अन्त माना जाता रहा और आज भी यद्यपि नाम तो काफी मोटे मोटे लिये जाते हैं पर सब कुछ मिलाकर प्रौढ़ शिक्षा की परिकल्पना का दर्शनशास्त्र या स्वरूप यही है कि प्रौढ़ शिक्षा की एक कक्षा खोली जाय, उसमें एक मास्टर रखा जाय तथा उसमें एक पाठ्यक्रम पूरा किया जाय और तब या तो प्रौढ़ शिक्षा की कक्षा बन्द की जाय या उसमें नये अनपढ़ लोगों का भर्ती किया जाय।
प्रौढ़ शिक्षा की इस संकल्पना एवं प्रणाली में यह बात हमारे दिमाग में लगातार रहती है कि ये अनपढ़ लोग बेचारे निर्धन, निर्बल और निरक्षर लोग हैं जो कई प्रकार से वंचित हैं और मानवता का तथा न्याय का यह तकाजा है कि उनको भी थोड़ी-बहुत तालीम दी जाय। इस प्रकार प्रौढ़ शिक्षा आज तक एक उदारता, परोपकार, सेवा और मेहरबानी का पुट अपने में हमेशा ही लेकर रही है, लेकर चली है जिसमें अधिक भाग्यशाली लोग अपनी बनिस्बत कम भाग्यशाली लोगों के प्रति अपनी बन्धुता और उदारता दिखाते आये हैं।
प्रौढ़ शिक्षा के साथ आधुनिक युग में एक नवीन दर्शन भी विशेषकर श्री पावलो फ्रेयरे नामक प्रौढ़ शिक्षा विशेषज्ञ के प्रभाव से जुड़ा है और वह दर्शन यह है कि ये अनपढ़ तथा अशिक्षित लोग कुलीन वर्ग के व्यवस्थित शोषण के शिकार हैं और प्रौढ़ शिक्षा द्वारा उनका ऐसा चैतन्यीकरण (कांशंटाइज़ेशन) कराया जाना चाहिए कि वे कुलीन वर्ग के शोषण तथा दमन से अपनी आपको मुक्त करने की कार्रवाई प्रभावी ढंग से कर सकें।
पर मेरा विचार अब ऐसा बनता जा रहा है कि प्रौढ़ शिक्षा के ऊपर लिखे दोनों ही स्वरूप निर्वाह के योग्य (अथवा कारगर) नहीं होंगे न ही तो प्रौढ़ शिक्षा का यह पारम्परित विचार ठीक है कि प्रौढ़ शिक्षा द्वारा अनपढ़ प्रौढ़ों को कुछ साक्षरता तथा कुछ ज्ञान देने से देश का या निर्बल वर्ग का कल्याण हो जायेगा और न प्रौढ़ शिक्षा के विषय में पावलो फ्रेयरी का यह सिद्धान्त ठीक है कि प्रौढ़ शिक्षा द्वारा प्रौढ़ों में अपने शोषण एवं दमन के लिए कुलीन वर्ग के विरुद्ध संघर्ष करने हेतु चैतन्यीकरण करने से राष्ट्र अथवा निर्बल वर्ग का कल्याण हो जायगा। यदि केवल कुछ सामान्य ज्ञान तथा कुछ अंकाक्षरी विद्या की खैरात बाँटने में ही प्रौढ़ शिक्षा की इतिश्री मान ली जाय तो ऐसी प्रौढ़ शिक्षा न तो व्यापक रूप से चल पायेगी और न उससे देश या निर्बलों का ही कल्याण होगा। दूसरी तरफ़ इसके विरुद्ध यदि प्रौढ़ शिक्षा द्वारा शोषितों तथा दलितों के मनों में कुलीन शोषक वर्ग के विरुद्ध विद्रोह भड़का दिया जाय तो उस प्रौढ़ शिक्षा को न तो कुलीन वर्ग चलने देगा और न दलित और शोषित लोग ही ऐसा विद्रोह करने को तैयार होंगे क्योंकि ऐसा करने से उनका और भी ज्यादा दमन किया जायगा और प्रौढ़ शिक्षा वालों को अपना दण्ड-कमण्डल समेट कर भाग जाना होगा। तो प्रौढ़ शिक्षा का परम्परित दृष्टिकोण तो प्रौढ़ शिक्षा को सर्वथा अप्रभावी बना कर असफल कर देता है और प्रौढ़ शिक्षा का पावलो फ्रेयरे वाला आधुनिक दृष्टिकोण प्रौढ़ शिक्षा द्वारा ऐसा वर्ग संघर्ष खड़ा करता है जिसमें निर्बल वर्ग का दमन पूर्वापेक्षा बढ़ जायगा और प्रौढ़ शिक्षा असफल कर दी जायगी। पहली प्रकार की प्रौढ़ शिक्षा सत्वहीन होने से निरर्थक है और दूसरी प्रकार की प्रौढ़ शिक्षा वर्ग संघर्ष को भड़काने वाली होने से आत्मघातक है।
इधर कुछ समय से मैने कुछ नया प्रयोग तथा अनुभव किया है जिससे मुझे प्रौढ़ शिक्षा का एक नया स्वरूप समझ में आया है और जिसे मैं उपर्युक्त दोनों प्रकार की प्रौढ़ शिक्षाओं की बीच का एक व्यावहारिक तथा उदात्त मध्यम मार्ग मानता हूँ। मेरी मान्यता ऐसी बनी है कि प्रौढ़ शिक्षा का मूल मर्म तथा धर्म यह है कि वह जनता में आत्मानुशासन तथा चरित्र पैदा करे। प्रौढ़ शिक्षा का मूल स्वरूप यह होना चाहिए कि जनता में नैतिक आत्मनिर्भरता पैदा हो। इस विचारधारा की मूल मान्यता यह है कि कुलीन शोषक वर्ग को दोष देने तथा गालियाँ बकने से, उनके विरुद्ध विद्रोह तथा वर्ग संघर्ष भड़काने से कुछ भी हाथ लगने वाला नहीं है। जो निर्बल, निरक्षर, निर्धन लोग हैं उनको यह स्वीकार करना होगा कि उनके शोषण की तो ताली बजती जाती है वह एक हाथ से नहीं बजती जाती है बल्कि दोनों ही हाथों से बजती है। इसलिए दोष केवल कुलीन शोषक वर्ग ही का नहीं है, बल्कि निर्धन, निर्बल, शोषित वर्ग का भी समान मात्रा में ही दोष है और शिक्षा नाम उसी का है जो अपने दमन और शोषण में अपने ही दोष तथा अपनी ही भागीदारी को पहले समाप्त करे ताकि दूसरे को उसका अवसर या तो बिलकुल नहीं मिले या कम से कम मिले।
मैं अपने विचार के लिए मौलिकता का क्षेय स्वयं ग्रहण नहीं करूँगा क्योंकि मैने शुरूआत की थी लोकनायक श्री जयप्रकाश नारायण के लोक समिति वाले विचार से। पर मेरा कहना यह है कि श्रीकृष्ण यद्यपि जन्मे तो मथुरा की राजनीति में थे, पर बचपन में उनका लालन-पालन तथा उनकी शिक्षा-दीक्षा मथुरा में संभव नहीं थी। इसलिए बालक श्रीकृष्ण गोकुल की लोकनीति में ही पल सके, बड़े हो सके। तो लोक समिति का विचार भी यद्यपि जन्मा तो है राजनीति में पर उसका संपोषण, संवर्धन तो शिक्षा के क्षेत्र में ही हो सकता है। मैं भी चाहता हूँ कि शोषित लोग शोषकों के विरुद्ध चैतन्यीकृत (कांशंटाइज़्ड) हों, संगठित हों, शक्तिशाली हों तथा विद्रोह करें एवं अपना अधिकार प्राप्त करें। पर मेरा कहना है कि आत्मशुद्धि के बिना शक्ति नहीं बढ़ेगी और शक्ति बढ़े बिना विद्रोह सफल नहीं होगा। इसलिए विद्रोह की शुरूआत, क्रांति की शुरूआत (यदि क्रांति को हिंसात्मक न बना कर शिक्षात्मक बनाना है तो) लोकशुद्धि या लोकानुशासन से ही करनी होगी। जनता को निर्वाचित प्रतिनिधियों की नकेल या लगाम अपने हाथों में लेनी है, जनता को नौकरशाही की धींगामस्ती पर प्रभावी अंकुश लगाना है, पर जो जनता जड़ है, जो जनता भ्रष्ट है, जो जनता एक दूसरे को आपस में नोचती है, काट खाती है, एक दूसरे की छाती पर चढ़ती है, एक दूसरे की थाली में से रोटी छीनती है, वह जनता जो स्वयं अपनी नैतिकता का दिवाला निकाल कर बैठी है वह निर्वाचित प्रतिनिधियों तथा नौकरशाही पर पहरेदारी या चौकसी क्या करेगी, कैसे करेगी? आकाश की दिशा में मजबूत भवन के निर्माण का प्रारंभ भूमि के गर्भ की ओर नींव खोदने से होता है। उसी प्रकार दमनकारियों, शोषकों, अन्यायियों तथा आततायियों के विरुद्ध सफल विद्रोह का प्रारंभ आत्मसंयम की साधना से होगा। यह राजनीति या राजदृष्टि नहीं है यह शिक्षानीति या शिक्षादृष्टि है। इसी को हम बुनियादी इनकलाब या मूल क्रांति कर सकते हैं। जे पी ने जिसे सम्पूर्ण क्रांति कहा, मैं नहीं जानता कि उसका वास्तविक अर्थ क्या था। पर मैं मानता हूँ कि जब क्रांति दार्शनिक भूमिका से वैचारिक भूमिका पर, वैचारिक से नैष्ठिक भूमिका पर, नैष्ठिक से सामाजिक भूमिका पर, सामाजिक से राजनैतिक भूमिका पर और अन्त में राजनैतिक भूमिका से शैक्षिक भूमिका पर भी आरूढ़ हो जाती है तभी वह क्रांति सम्पूर्ण होती है अन्यथा वह क्रांति अधूरी तथा अपूर्ण ही रहती है और उस क्रांति के फिसल कर फिर से विफलता के गर्त में गिर जाने का खतरा लगातार बना ही रहता है।
भारत की स्वाधीनता की क्रांति ने काफी मंजिलें पार की हैं। मुक्ति की दार्शनिक भूमिका तो यहाँ सदा से रही है पर स्वाधीनता की वैचारिक और नैष्ठिक भूमिका में से देश को रामकृष्ण परमहंस, दयानन्द, विवेकानन्द आदि संतों ने पार किया। उसके बाद तिलक, गोखले, गाँधी आदि नेताओं ने हमें सामाजिक तथा राजनीतिक स्वाधीनता की भूमिकाओं उतारा पर स्वाधीनता की यह क्रांति जो लगभग 100 वर्षों से चल रही है राजनीतिक मंजिल से आगे बढ़ कर शैक्षिक भूमिका में प्रवेश ही नहीं कर पायी है तो इस वजह से हमारी आजादी का इनकलाब अधूरा है, हमारी स्वाधीनता की क्रांति असंपूर्ण है और यह चेतावनी मैं पूर्वमेव दे चुका हूँ कि यदि हम क्रांति को उसकी अंतिम मंजिल (अर्थात् शिक्षा) पर आरूढ़ नहीं करेंगे तो सारी क्रांति जो रामकृष्ण परमहंस से जयप्रकाश नारायण तक चली है, वह फिसल कर फिर से अक्रांति के गर्त में गिर सकती है और गत 100-150 वर्षों का राष्ट्रीय स्वाधीनता का संघर्ष मटियामेट हो सकता है।
जब तक हमारी नैतिकता दण्ड-भय पर आश्रित है (यानी कानून, अदालत, पुलिस तथा जेलों पर आश्रित है) तब तक न तो हम शिक्षित हैं और न आजाद हैं। जो नैतिक दृष्टि से आत्मनिर्भर हैं उसी का नाम शिक्षित है, उसी का नाम स्वतन्त्र है। साथ ही जब तक हम मूर्ख हैं, जड़ हैं और राष्ट्र के नवनिर्माण में प्रबुद्ध तथा स्वैच्छिक सहयोग नहीं देते बल्कि ढोरों की तरह राजकीय योजनाओं से ही आंके जा सकते हैं तब तक भी न तो हम आजाद हैं और न हमारा लोकतंत्र सार्थक है। तो प्रौढ़ शिक्षा को राष्ट्रीय स्वाधीनता की क्रांति की अंतिम मंजिल का स्वरूप ग्रहण करना होगा और शिक्षा के इसी स्वरूप को मैं लोकानुशासन मानता हूँ। शिक्षित का मतलब हम आज तक यह लेते रहे कि जो व्यक्ति पढ़-लिख लेता है, जो व्यक्ति कुछ भूगोल, इतिहास, कुछ विज्ञान, कुछ कला जानता है वह शिक्षित है। पर मैं चाहता हूँ कि शिक्षित शब्द का अर्थ बिलकुल बदल जाय क्योंकि शिक्षित होने में मूल बात यही है कि मुनष्य को न्यायिक तथा नैतिक आत्मनिर्भरता प्राप्त हो। जो कानून, अदालत, पुलिस तथा जेल से निरपेक्ष होकर भी अनुशासित है वही तो शिक्षित है। नैतिकता के निर्माण हेतु जिसके लिए कानून, अदालत, पुलिस तथा जेल की आवश्यकता है, वह शिक्षित हरगिज भी नहीं है, चाहे वह कितना ही पंडित, विद्वान, वैज्ञानिक या कलाकार हो।
रामराज्य की कल्पना में राज्य के आस्तित्व का लुप्त हो जाना शामिल नहीं है। राज्य संस्था रामराज्य की कल्पना में भी जीवित रखी गयी है पर रामराज्य की कल्पना यह है कि राज्य दशरथ के लड़के रामचन्द्र का नहीं होगा बल्कि मनुष्यों में ही ऐसा रामधर्म होगा कि वे नैतिकता के निर्वाह के लिए राज्य दण्डाश्रित न हों। इसे हम राम राज्य के बजाय शिक्षा राज्य कह सकते हैं। वास्तविक स्वाधीनता का स्वर्ण दिवस तो तभी हो सकता है जब कि स्कूलों के बल पर समाज में नैतिकता फैलेगी और पुलिस थानों को कोई भी काम नहीं मिलेगा। आज तो स्थिति यह है कि अनैतिकता की गन्दगी तो इस समाज में स्कूलों से फैलती है और उसकी सफाई के लिए झाड़ू पुलिस वाले लगाते फिरते हैं। तो यह है प्रौढ़ शिक्षा की भूमिका, प्रौढ़ शिक्षकों की भूमिका। जिस बस्ती में प्रौढ़ शिक्षा हो उस बस्ती में पुलिस आ सकती है पर वहाँ उसके लिए विश्राम के सिवाय कुछ काम नहीं होना चाहिए, जिस बस्ती में प्रौढ़ शिक्षा हो वहाँ अस्पताल हो सकता है, पर उसमें मरीजों की भरमार नहीं होनी चाहिए, वहाँ साहूकार हो सकते हें पर साहूकारों की कर्जदारी लोगों पर नहीं रहनी चाहिए, वहाँ म्यूनिसिपैलिटी हो सकती है पर वहाँ लोगों को गन्दगी फैलानी नहीं चाहिए, वहाँ अदालत हो पर लोगों को अदालत की शरण में जाना नहीं चाहिए, वहां दानी हो सकते हैं पर वहाँ भिखारी नहीं रहने चाहिए, वहाँ मृत्यु भोज खाने वाले, शराब पीने वाले, दहेज ग्रहण करने वाले नहीं मिलें, वहाँ जितने पेड़ काटे जाते हों उसके दुगुने लगाये जाते हों। ये ही प्रौढ़ शिक्षा के मुख्य काम और ये काम किसी सिलेबस या किसी ”कोर्स” को पढ़ कर पूरा करने के काम नहीं हैं, जो साल-छ: माह में समाप्त हो जायें। यह तो अनन्त कार्य है, स्थायी कार्य है। इस सारे कार्य को (जिसका वर्णन विस्तार के भय से बहुत संक्षिप्त रखा गया है) मैं राज्य की छत्रछाया में लोकानुशासन के विकास का काम मानता हूँ और मेरी राय में यही वह प्रौढ़ शिक्षा है जो न तो इतनी नपुंसक है जितनी कि वह आज तक रही है और न जो इतनी विग्रहकारिणी और आत्मधातिनी है जितनी कि कुछ आधुनिक शिक्षा-शास्त्री उसे बना देने पर उतारू हैं।
शिक्षा नीति एवं राजनीति में यही मौलिक भेद है। राजनीति जिस कार्य को ”आपरेशन” द्वारा या उग्र साधनों से करना चाहती है, शिक्षा उसे औषधि द्वारा सौम्य साधनों से कती है और इसी में क्रांति की संपूर्णता तथा स्थायित्व है। राज्य के शासन की नींव में जनता का आत्मानुशासन होना जनतंत्र के लिए अनिवार्य है। जब राज्य का शासन जनता के अनुशासन से अनुशासित होगा तभी जनतंत्र स्थापित होगा और टिकेगा। बस यही प्रौढ़ शिक्षा का कर्म है, धर्म है, मर्म है ओर इसी को मैं लोकानुशासन कहता हूँ।
— दयाल चन्द्र सोनी
यह लेख शिविरा पत्रिका के अक्टूबर 1980 अंक में प्रकाशित हुआ था।
— 000 —