प्रौढ़ शिक्षा में आज एड़ी से चोटी तक एक महा विडम्बना भरी हुई है और यह महा विडम्बना इसमें से जब तक निकाली नहीं जायगी, न तो प्रौढ़ शिक्षा व्यावहारिक बनेगी और न यह राष्ट्र की जनता के हित में होगी। पश्चिम से, और खास कर साम्यवादी-समाजवादी विचारधारा से, एक असर हमारे देश में घुसा है जो यह बताता है कि मनुष्य राजकीय योजनाओं से ”बनाया” जाना चाहिये। उस विचारधारा की मान्यता है कि ईंट, पत्थर, चूने, मिट्टी, लकड़ी, लोहे की मदद से जिस प्रकार भौतिक निर्माण की योजनाएँ बनाकर क्रियान्वित की जा सकती हैं उसी प्रकार तालीमी योजनाओं से मनुष्य को भी ”बनाया” जा सकता है। इसका मतलब बिलकुल स्पष्ट है कि एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य से भेदभाव ऐसी तालीमी योजनाओं के मूल में ही जाकर बैठ जाता है। प्रश्न उठेगा कि यह भेद कौन-सा है, कैसा है? जवाब यह है कि ”कुछ” मनुष्य तो तालीम की योजना का निर्धारण करते हैं ओर ”कुछ दूसरे” मनुष्य ऐसे होते हैं जो उन तालीमी योजनाओं के ”शिकार” बनने वाले होते हैं। तालीमी योजना की मूल शुरूआत तो इस मान्यता पर होती है कि सारे मानव एक समाज हैं और इसलिए तालीम सबको बिना भेदभाव के मिलनी चाहिए। पर तालीमी योजना के निर्माण तथा अमल में वह बुनियादी मान्यता ही नष्ट कर दी जाती है। कैसे ? इस प्रकार की तालीम का भोजन बना कर परोसने वाला तबका बिलकुल अलग होता है और तालीमी भोज में पंगत बना कर बैठने वाले और परोसा हुआ तालीमी भोजन खाने वाले बिलकुल दूसरे लोग होते हैं। इस प्रकार जहाँ कुछ लोग तालीम को ”देने वाले” बन जाते हैं और कुछ दूसरे लोग तालीम को ”लेने वाले” बना दिये जाते हैं, वहाँ यह बुनियादी मान्यता कहाँ बची रह सकती है कि सारे मनुष्य समान हैं।
थोपी हुई तालीम का मौन विरोध-
प्रौढ़ शिक्षा को गाँवों में तथा झुग्गी-झौंपड़ियों में जैसे-तैसे कुछ सहयोग मिल ही जाता है, लेकिन उसके पीछे जनता में जो एक ”रिज़ेटमेंट”, एक मौन विरोध, एक उपेक्षा वृत्ति, आमतौर पर पायी जाती है जिससे निपटने के लिये प्रौढ़ शिक्षाकर्मियों के लिए जनता का ”प्रॉपर मोटिवेशन” (समुचित उत्प्रेरण) एक अविराम चिंता का विषय बना हुआ रहता है उसके पीछे भी मूल कारण यही है कि समाज का तथाकथित निर्धन, निरक्षर, निर्बल वर्ग इस भेदभाव मूलक मानवीय संबंध को स्वीकार करना नहीं चाहता कि ”आप” तो तालीम को देने की काबलीयत रखने वाले हैं और ”वह बेचारा” तालीम को लेने वाले की निम्नतर मानवीय स्थिति स्वीकार करने के लिए मजबूर है। वास्तव में निर्धन, निरक्षर तथा निर्बल समुदाय तालीम का विरोधी नहीं है। उसका जो विरोध है, उसका जो असहयोग है वह आपके उस भेदभावपूर्ण बर्ताव के खिलाफ है जिसके अन्तर्गत आप उसके ”स्वयंभू शिक्षक” बन जाते हैं। इतिहास में राज्य तो फिर भी जनता पर जबर्दस्ती थोपा ही जाता आया है, पर तालीम भी जनता पर जबर्दस्ती थोपी जाय, ऐसा तो इतिहास में बहुत कम हुआ है और इसलिए जनता ऐसी थोपी हुई तालीम का शांत तथा मौन रूप से विरोध करती है। व्यक्तिगत रूप से मैं स्वयं हरगिज भी इस बात को पसन्द नहीं करूंगा कि कोई व्यक्ति एक दिन अचानक मेरे दरवाजे पर आकर कहे कि ”देखिये आप अशिक्षित हैं और मैं शिक्षित हूँ और मेरे पास आपकी शिक्षा का कार्यक्रम तथा पाठ्यक्रम है। आप थोड़े समय के लिए रोज मेरे पास आइये, मैं आपकी शिक्षा करूंगा। और देखिये, आपके पैसा इसके लिए नहीं देना है, वह सारी व्यवस्था किसी दूसरे स्रोत से हो चुकी है जो आपसे बहुत हमदर्दी रखता है और उसी ने मुझे आपकी शिक्षा के लिये भेजा है।” वस्तुत: ऐसी बात कोई भी मनुष्य पसन्द नहीं करेगा क्योंकि इस बात का श्रीगणेश और इस बात का आधार ही यह है कि एक मनुष्य तो मनुष्य नहीं है बल्कि जानवर है तथा दूसरा मनुष्य साधारण मनुष्य नहीं है बल्कि फरिश्ता है और यदि कोई मनुष्य बार-बार की मनुहार या खुशामद या अनुरोध या आग्रह से इस स्थिति को स्वीकार कर भी ले तो मनाना होगा कि उसने एक ऐसा रिश्ता स्वीकार कर लिया है जिसमें और चाहे कुछ भी सम्भव हो, लेकिन तालीम तो हरगिज भी सम्भव नहीं है क्योंकि तालीम तो तभी सम्भव है जबकि कुछ मनुष्य समाज धरातल पर आपस में एक-दूसरे से शिक्षा लेने में सहयोग करें। तालीम उस हालत में या उस रिश्ते में संभव ही नहीं है जिसमें कुछ इन्सान तो इन्सानियत की सीढ़ी से नीचे उतार कर जानवर बना दिये जाएं और कुछ इन्सान इन्सानियत की सीढ़ी से ऊपर उठा कर फरिश्ते बना दिये जायं।
तालीम की मौलिक धारणा यह है कि पारस्परिक व्यवहार में प्रत्येक मनुष्य के ”मनुष्यत्वपद” की जो मौलिक समानता है उसका उल्लंघन या अतिक्रमण नहीं होना चाहिए। इसीलिए, राष्ट्र पर जिन शक्तियों का राजनीतिक प्रभुत्व हो उन्हीं शक्तियों के हाथों में राष्ट्र का शैक्षिक प्रभुत्व भी न पहुँच जाय, ऐसी मान्यता भारत की प्राचीन व्यवस्था में रही है और यह नयी मान्यता हमें पाश्चात्य संपर्क से प्राप्त हुई है कि राष्ट्र पर जिन शक्तियों का राजनीतिक प्रभुत्व हो उन्हीं के हाथों में राष्ट्र का शैक्षिक प्रभुत्व भी सौंप दिया जाय। इधर शिक्षा का काम ऐसा है जिसे विश्वसनीय चरित्र तथा निर्भरणीय स्थायित्व वाली शक्तियों के हाथों में होना चाहिए।
अब लीजिये हमारी तथाकथित स्वयंसेवी संस्थाओं को जो कि हमारे राष्ट्र में स्वयंभू शिक्षाधिपतियों की भूमिका अदा कर रही हैं। जहाँ तक इन स्वयंभू तथा स्वयंसेवी शिक्षा संस्थाओं के संस्थापकों का सम्बन्ध है, ऐसी एक आम राय पास कर देना तो बड़ा अन्याय होगा कि ये लोग निर्धनों, निर्बलों, निरक्षरों के प्रति सहानुभूति नहीं रखते अथवा इन लोगों में कोई निष्ठा नहीं होती या इन लोगों में कोई त्याग या कोई तपस्या या साधना नहीं होती। साथ ही यह भी कहना गलत होगा कि इन लोगों में समाज के लिए कोई समुचित शैक्षिक दृष्टि नहीं होती। पर मैंने यह देखा है कि संस्था की जो कार्यकारिणी संस्था के जन्म के समय बनती है बस लगभग वही कार्यकारिणी लगातार चलती रहती है। जिस समुदाय की सेवा की जाती है तथा जिन कार्यकर्ताओं की मार्फत वह सेवा की जानी है उस ”सेव्य” समुदाय का, उस कार्यकर्ता समूह का कोई प्रभावी प्रतिनिधित्व उस काय्रकारिणी में कभी भी स्वीकार नहीं किया जाता। इस प्रकार आम तौर पर ये स्वयं सेवी संस्थाएँ तथा उनकी कार्यकारिणियाँ एक संभ्रांत समूह विशेष के निहित स्वार्थों का अड्डा बन कर अन्त में भ्रष्ट तथा अव्यवस्थित हो जाती हैं। हाँ, आजकल एक नई परिस्थिति भी निर्मित हो रही है कि जैसे ही राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम की घोषणा हुई, बरसाती मेंढकों की भांति कई नवीन प्रौढ़ शिक्षण संस्थाएँ रातों-रात कायम हो गयीं और सरकार से प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों का अपना ”कोटा तथा परमिट” मांगने लग गयीं और इसमें वे कामयाब भी हो गयीं। मैं ऐसा तो नहीं कहूँगा कि ये सारी नवीन प्रौढ़ शिक्षण संस्थाएँ ढकोसला हैं, ऐसा कहना तो अन्याय होगा पर प्रश्न यह है कि यदि राजकीय बजट की बाढ़ से ही ऐसी संस्थाएँ पनपें और राजकीय बजट के सूखने से ही ऐसी संस्थाएँ मर जायें तो यह संस्थाएँ प्रौढ़ शिक्षा का क्या भला कर सकेंगी? ऐसी संस्थाएँ तो प्रौढ़ शिक्षा का एक मजाक तथा मखौल मात्र बना सकेंगी। कोई शिक्षा शिक्षा नहीं होती जब तक कि उसमें एक सातत्य न हो। कुछ लोग प्रौढ़ शिक्षा के काम को कुछ वैसा ही काम मानते हैं जैसे कि कई जगहों पर आँखों की चिकित्सा तथा शल्यक्रिया के धर्मार्थ शिविर एक समय विशेष के लिये लगा कर उखाड़ लिये जाते हैं। लोग ऐसा मानते हैं कि निरक्षरता एक मोतियाबिंद जैसी बीमारी है और प्रौढ़ शिक्षा का कार्यक्रम उस मोतियाबिंद का ऑपरेशन है जो एक अस्थायी साक्षरता शिविर केन्द्र खोलने से सदा के लिए सम्पन्न हो जायेगा। हमारे राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम के योजनाकार भी कुछ-कुछ ऐसी ही धारणा रखते हैं। तभी तो वे मानते हैं कि ”अमुख अवधि में अमुख संख्या में निरक्षरों को साक्षर बना दिया जाना है।” मतलब यह है कि हम प्रौढ़ शिक्षा को भी वैसा ही काम मानते हैं जैसे दिवाली के दिनों में मकानों की पुताई करना। जिस प्रकार हम लोग ऐसा हिसाब लगाया करते हैं कि कितने समय में कितने मजदूर कितने मकानों की पुताई करेंगे, उसी प्रकार हम हिसाब लगा लेते हैं कि कितने वर्षों में कितने साक्षरता केन्द्रों द्वारा कितने लाख या कितने करोड़ लोग साक्षर (यानी शिक्षित प्रौढ़) बना दिये जायेंगे। मतलब यह कि ‘मनुष्य को वस्तु मानकर योजनाएँ बनाई जाती हैं और तथाकथित स्वयंसेवी संस्थाएँ ”शैक्षिक ठेकेदारों” की तरह अपने-अपने टेंडर भर-भर कर सरकार से अपना-अपना कोटा तथा परमिट प्राप्त करने के लिए उपस्थित हो जाती हैं।
तालीम शुरू होती है इस बात से, इस मान्यता से, कि मनुष्य वस्तु नहीं है, मनुष्य है; मनुष्य कोई यन्त्र नहीं है बल्कि मनुष्य है। तो विडम्बना मूल में ही है क्योंकि तालीम की जरूरत तो इसलिए है कि मनुष्य मनुष्य है, पर तालीम की व्यवस्था तथा तालीम की योजना का निर्माण इस प्रकार से किया जाता है मानों हम मनुष्यों के साथ काम नहीं करे मिट्टी के ढेलों के साथ तालीम का काम करने वाले हों। मनुष्य को मिट्टी का ढेला मत मानो बल्कि अपने जैसा ही मनुष्य मानो, बस इसी का नाम शिक्षा हे, इसी के लिए शिक्षा है। पर हम प्रारंम्भ से ही शिक्षा विज्ञान की इस मूल बात को काट कर चलते हैं। नतीजा यह होता है कि तालीम एक ”थोप” (एक इंपोजीशन) बन जाती है और जो ”थोप” बन जाय, एक इम्पोजीशन बन जाये, वह और चाहे जो कुछ हो, पर तालीम हरगिज नहीं होती।
तालीम वह है जिसके लिए विद्यार्थी गुरू से माँग करें, तालीम वह नहीं है जिसे सरकार तय करे और किराये के प्रचारकों से जिसका देश में प्रचार कराया जाय चाहे उन प्रचारकों में कुछ तथाकथित स्वयं सेवी संस्थाओं के काय्रकर्ता ही क्यों न सम्मिलित हों। मेरा मूल प्रश्न यह है कि आज असल में जनता द्वारा सरकार की तालीम होना ज्यादा आवश्यक है या सरकार द्वारा जनता की तालीम होना ज्यादा आवश्यक है? ”चरित्र” यदि शिक्षा की कसौटी है तो मानना होगा कि आज जनता द्वारा सरकार की तालीम होना ज्यादा जरूरी है।
मुख्य प्रश्न जनता को साक्षर तथा शिक्षित करने का नहीं है बल्कि जनता को सजीव तथा स्वतन्त्र करने का है। साक्षरता का परिणाम यदि सजीवता नहीं होता और शिक्षितता का अर्थ यदि स्वतन्त्रता नहीं होता तो साक्षरता और शिक्षा ये दोनों ही बेकार हैं और आज जिस खैराती तथा खुशामदी तरीके से, देश पर ऊपर से योजना बना कर, सरकारी बजट के आधार पर, प्रौढ़ शिक्षा थोपी जा रही है वह जनता की सजीवता, जनता की आत्मनिर्भरता तथा जनता की स्वतन्त्रता में वृद्धि के बजाय ह्रास करने वाली है। प्रौढ़ शिक्षा वर्षा की एक सामयिक झड़ी मात्र नहीं है बल्कि यह एक स्थायी जलवायु है। प्रौढ़ शिक्षा जीवन की एक सामयिक चमक-दमक ही नहीं है बल्कि वह जीवन की एक स्थायी पद्धति है। प्रौढ़ शिक्षा कोई अस्थाई उफान नहीं है बल्कि वह जीवन में स्थायी रूप से रहने वाली ऊर्जा है। इस दृष्टि से यदि देखा जाय तो निष्कर्ष यही निकलेगा कि हमने आज तक न तो प्रौढ़ों को इन्सानों के रूप में मान्यता दी है और न हमने प्रौढ़ शिक्षा को शिक्षा के रूप में मान्यता दी है। प्रौढ़ इंसानों को हम जीते-जागते इंसान नहीं मानते और प्रौढ़ शिक्षा को हम एक जीवन के साथ सातत्य सम्बन्ध रखने वाली प्रक्रिया नहीं मानते। इसलिए यद्यपि प्रौढ़ शिक्षा का प्रयत्न काफी लम्बे समय से चल रहा है और प्रौढ़ शिक्षा पर पैसा भी बड़ी मात्रा में खर्च हो रहा है, पर प्रौढ़ शिक्षा का कोई आँखें खेल देने वाला या चमत्कारी परिणाम देश के सामने प्रकट नहीं हुआ।
तालीम और विकास मनुष्य की नैसर्गिक वृत्ति-
यहाँ मेरे कथन पर यह आपत्ति उठेगी कि जब जनता शिक्षा के प्रति घोर उदासीनता के साथ जी रही है तो कैसे उसे शिक्षा दी जाय और कैसे उसे शिक्षा की लगाम सौंपी जाय? यदि हम ऐसा व्रत ले लें कि शिक्षा तो वही होगी जो जनता स्वयं करे और तभी होगी जबकि जनता शिक्षा को स्वयं चाहे तब तो शिक्षा होगी ही नहीं। ऐसी दशा में क्या हम लोग जनता को सदा के लिए अशिक्षा के अंधकूप में पड़ा हुआ ही रहने दें? इस तरह की आपत्ति उठाना हमारे घोर अज्ञान तथा दम्भ का द्योतक है। तालीम और विकास तो प्रत्येक मनुष्य की नैसर्गिक वृत्ति है। मनुष्य होकर भी कोई प्राणी तालीम न चाहे यह प्रचलित तालीम के स्वरूप, प्रचलित तालीम की पद्धति, प्रचलित तालीम के लक्ष्यों का दोष भले ही हो, पर यह मनुष्यों का दोष कदापि नहीं हो सकता। हम कैसे मान लेते हैं कि यदि ”हम” तालीम नहीं देंगे तो जनता बेतालीम रहेगी? यदि कोई मनुष्य इस समाज में कमा कर खाता है, शिष्ट व्यवहार करता है तथा समाज में अपने स्थान पर उपयुक्त साबित होता है तो हम कैसे मान लें कि वह अशिक्षित है? क्या साक्षरता अथवा स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी में गये बिना ही कयों न प्राप्त की हो! यदि राष्ट्र की समूची शिक्षा का शतप्रतिशत दारोमदार हमारे प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम पर ही रहा होता तब तो आज सारा देश या तो चोरों-डाकुओं से या जंगली मनुष्यों से लबालब भरा हुआ मिलता। इसलिए हमें यह अहंकार तथा दंभपूर्ण भ्रांति त्याग देनी चाहिए कि तालीम बस वहीं होती है जहाँ ”हम” तालीम देते हैं और सवेरा बस वहीं होता है जहाँ ”हम” बाँग देते हैं।
शिक्षा केवल वही होती है जिस पर केवल शिष्य का तथा शिष्य द्वारा स्वयंवरित गुरू का सम्मिलित नियंत्रण हो। जहाँ शिक्षक किसी का नौकर है और शिष्य पर (खैरात के तौर पर और खुशामद की विधि से) थोपा गया है वहाँ शिक्षा है ही नहीं। शिक्षा न तो खैरात से, न खुशामद से और न खरीद से मिलने की चीज है। शिक्षा खुद की मरजी से, खुद की खिदमत से कमाने की चीज है। अत: यदि प्रौढ़ शिक्षा को एक सरकारी कार्यक्रम मात्र बनकर नहीं रह जाना है बल्कि शिक्षा का रूप धारण करना है तो प्रौढ़ शिक्षा की मांग जनता के बीच से उठनी चाहिए, प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था जनता के खुद के द्वारा की जानी चाहिए, प्रौढ़ शिक्षा क्या हो, कैसे हो इसका निर्णय स्वयं जनता पर छोड़ा जाना चाहिए, प्रौढ़ शिक्षा में शिक्षक पर का दायित्व किसे सौंपा जाय इसका निर्णय या चुनाव स्वयं जनता को करना चाहिए और प्रौढ़ शिक्षा का खर्चा स्वयं जनता को अपने बीच से जुटाना चाहिए। जो संस्थाएँ इस तरह की स्थिति लाने तथा पैदा करने के लिए, काम करने के लिए एवं अपने को तद्नुसार ढालने के लिए तैयार नहीं हैं उनको प्रौढ़ शिक्षा के मैदान से तुरन्त हट जाना चाहिए।
अतिशासन और अतिप्रबन्ध कम हो-
प्रौढ़ शिक्षा यदि किसी सरकार का मान्यता प्राप्त कार्यक्रम है तो मैं उस सरकार से कहूँगा कि प्रौढ़ शिक्षा का मतलब राजनीतिक दृष्टि से एक ही है कि राज्य का वर्तमान ”अतिशासन” अथवा ”शासनात्यय” कम करना होगा और जनता के हाथों में कई प्रकार के प्रबन्ध सौंप देने होंगे। जीवन के हरएक पहलू को, जीवन के हर क्षेत्र को, जीवन की हर व्यवस्था को यदि कोई भी सरकार अपने शासन में घसीटती चली जाती है तो फिर जनता में से जीवन ही निकल जाता है जो कि शिक्षा का माध्यम हे, शिक्षा का मूल है। जैसे जलाशय के अभाव मं तैरने की कला निरर्थक है उसी प्रकार जीवन व्यवस्था की आत्म-निर्भरता के अभाव में शिक्षा निरर्थक है। जिस माता का शिशु मर जाय उसके स्तनों का दूध सुखाने के उपाय किये जाते हैं न कि स्तनों में अधिक दूध उतारने के उपाय किये जाते हैं। जब शिशु ही नहीं है तो स्तनों का दूध न केवल निरर्थक है पर एक मुसीबत भी है। उसी प्रकार जिस जनता से जीवन ही छिन गया उसके लिए शिक्षा न केवल निरर्थक है बल्कि एक व्यर्थ का बोझ है। प्रौढ़ शिक्षा के इस रहस्य को कोई नहीं देखता। शिक्षा उस जनता में रह ही नहीं सकती जो सरकार के अति शासन का, सरकार के अति प्रबन्ध का शिकार है। राजकीय अतिशासन ही जनता के जीवन को खोखला बना देता है और जहाँ जीवन ही खोखला हो जाय वहाँ शिक्षा की न तो कोई तलब होगी, न कोई जरूरत होगी और न कोई वक़त होगी। पहले जनता को जीवन चाहिए, पहले जनता को आत्मविश्वास चाहिए, पहले जनता को कुछ स्वायत्तता चाहिए, पहले जनता को आत्म निर्णय का कुछ अधिकार चाहिए, पहले जनता को कुछ सम्मान चाहिए ताकि एक ऐसा जलवायु पैदा हो जाय जिसमें शिक्षा का पौधा अंकुरित हो सके, पल्लवित, पुष्पित तथा फलित हो सके। क्या हम जनता को ऐसा जलवायु उपलब्ध कराने के लिए तैयार है? प्रौढ़ शिक्षा की सफलता या विफलता इसी प्रश्न के हमारे उत्तर पर निर्भर करती है।
— दयाल चन्द्र सोनी
शिविरा पत्रिका, के अक्टूबर 1979 में प्रकाशित लेख से साभार