नैतिक शिक्षा – क्या और कैसे ?

नैतिक शिक्षा पर बात करने से पूर्व ”नैतिकता” को समझना अत्यावश्यक है। नैतिकता की बात तो हम लोग प्राय: करते ही रहते हैं पर नैतिकता को परिभाषित करना अत्यन्त कठिन है। नैतिकता की परिभाषा प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग तरीके से करेगा। यहाँ यह बात याद रखने की है कि नैतिकता अलग वस्तु है और देशाचार या लोकाचार अलग वस्तु है। इसी प्रकार नैतिकता अलग वस्तु है और रीति-रिवाज, पूजा-पाठ, भगवद्भाती, कथा-कीर्तन, उपवास-तीर्थाटन आदि अलग वस्तु है। धर्मध्यान, दानपुण्य भी नैतिकता से अलग बातें हैं। जो लोकाचार एक देश, एक काल में सही माना जाता है वही दूसरे देश, दूसरे काल में गलत माना जाता है। किसी देश में एक परस्त्री दूसरे पुरुष से हाथ मिला कर अभिवादन कर सकती है तो किसी देश में ऐसा करना अनैतिक माना जायेगा। द्रोपदी पाँच पतियों के बावजूद अनैतिक महिला नहीं कहलायी क्योंकि उसमें एक विशिष्ट मजबूरी थी। कोई मांसाहार को गलत मानता है, कोई उसमें कोई गलती नहीं देखता। अत: याद रखना है कि मूल नैतिकता एक अलग बात है और देशाचार, समयाचार द्वारा आरोपित मान्य या अमान्य व्यवहार या शिष्टता अलग बात है।

मूल नैतिकता हमारे भीतर छिप कर बैठे हुए आत्मा की स्वच्छता तथा उसके स्वास्थ्य या उसकी पवित्रता को कायम रखने का नाम है। नैतिकता का प्रारंभ यहाँ से होता है कि हम केवल शारीरिक या भौतिक जीवन नहीं जी रहे हैं बल्कि हमारे भीतर एक आंतरिक आत्मा का जीवन समानान्तर रूप से और भी चल रहा है जिसकी खूराक दाल-रोटी नहीं है बल्कि नैतिकता है। उस आंतरिक जीवन की रक्षा तभी होती है जब हमारा बाह्य व्‍यवहार नैतिक बना रहे। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने आंतरिक जीवन को स्वच्छ, स्वस्थ तथा पवित्र रखने के लिए अपने सांसारिक एवं भौतिक जीवन में राजा से रंक बनने को तथा घर छोड़कर जेल में जाने को तथा भौतिक जीवन छोड़ कर फाँसी पर झूल जाने को भी श्रेयस्कर मानते हैं। जैसे एक पतिव्रता नारी अपने पति के जीवन तथा उसकी सुख-शांति तथा उसकी वफादारी के लिए अपने गहने, अपना घर, अपना आराम त्याग देती है वैसे ही एक नैतिक मनुष्य अपने सूक्ष्म आंतरिक जीवन की शांति, स्वच्छता, तन्दुरुस्ती तथा पवित्रता के लिए भौतिक जीवन में कई तरह का तप, त्याग तथा बलिदान कर सकता है। पति केवल स्त्रियों का ही नहीं होता। एक भीतरी पति पुरुषों के लिये भी है। इस प्रकार क्या तो स्त्री और क्या पुरुष, सबके भीतर एक आंतरिक पति है और पतिव्रत धर्म भी सभी के लिए है चाहे वे स्त्रियाँ हो या पुरुष हों। नैतिक जीवन शुरू ही नहीं होता जब तक कि हम अपने भीतर निवास करने वाले तथा विहार करने वाले आत्‍मारूपी अपने पति को न जाने, न देखें, न पहचानें तथा उसके प्रति पतिव्रत नहीं निभाते।

अब याद रखने की बात यह है कि हमारे भीतर जो आत्मा है उसकी प्रतीति अलग-अलग देहों में भले ही अलग-अलग होती हो, पर जिस मूल आत्मा की प्रतीति हमें अपने भीतर होती है वह मूल आत्मा अलग-अलग शरीरों में अलग-अलग नहीं है बल्कि सभी की आत्माओं में एक मौलिक या तात्विक एकता है। यदि किसी आरती के दीप पात्र में तेल तो एक ही भरा हो पर बातियाँ दस हों और सभी प्रज्ज्वलित की जावें तो दीपशिखा की ज्वालाएँ अनेक तथा भिन्न भले ही हों, पर जिस तेल से वे प्रज्ज्वलित हैं वह तेल तो एक ही होता है। उसी प्रकार हमारा जो भौतिक जीवन है वह दीपशिखा की ज्वाला है पर जिस तेल कुंड से हम बाती के रूप में डूब कर प्रज्ज्वलित हैं वह तेलकुंड और तेल तो एक ही है।

तो नैतिकता के मूलाधार तीन हैं –

1. हमारे भौतिक जीवन के भीतर एक समानान्तर आंतरिक आत्मिक जीवन निरंतर चालू है।

2. वह आंतरिक जीवन ही मूल जीवन है, वही शाश्वत तथा साध्य जीवन है जबकि बाहरी जीवन उस जीवन का अस्थायी साधन है।

3. उस आंतरिक जीवन में हम सभी मौलिक रूप से एक ही हैं, भिन्न या असमान या विचित्र नहीं हैं।

जब इतनी बात हम समझ लेते हैं तो एक बात आसानी से हमारी समझ में आ जायगी कि नैतिकता जीवन का एक सहज या कुदरती आयाम है, सहज या कुदरती तत्व है। नैतिकता ऐसी वस्तु नहीं है जो शिक्षा द्वारा, समाज द्वारा, धर्म द्वारा, गुरू द्वारा किसी को भेंट के रूप में बाहर से सौंपी जावे। नैतिकता कोई कलई या पॉलिश या मुलम्मा नहीं है जो स्कूलों या मठों द्वारा मनुष्यों पर चढ़ाया जावे। मूल बात याद रखने की यह है कि मनुष्य मूलत: तथा जन्म से ही नैतिकता को लेकर जन्मता है और नैतिकता में ही वह प्रसन्न, शांत, आनन्दित, सुखी तथा स्वस्थ रह सकता है। जब सत्य तथा तथ्य यह है कि हम सबके भीतर बसने वाला एक ही है, अभिन्न है, और वह भीतरी आत्मा ही हमारा मूल जीवन भी है तो उस एकता को आधार मान कर किया गया व्यवहार सहज रूप से नैतिक ही होगा तथा हम लोग सुखी, प्रसन्न तथा आनन्दित भी उसी में ही रह सकेंगे। यह है नैतिकता का आध्यात्मिक आधार।

अब नैतिकता का एक भौतिक आधार भी है जो कि विचारणीय है। नैतिकता का भौतिक आधर यह है कि जब हमारा आंतरिक नैतिक जीवन बाहरी रूप में एक दैहिक तथा भौतिक जीवन इख्तियार करके जीता है तब उस भौतिक जीवन का निर्वाह प्रकृति की भौतिक संपदाओं तथा क्रियाकलापों से ही हो पाता है। प्रकृति के भीतर जो भौतिक संपदाएँ हैं, तथा जो क्रिया चक्र चल रहा है मूलत: उसी का नाम यज्ञ है। यज्ञ तत्व को समझे बिना नैतिकता को न तो जाना जा सकता है और न समझा जा सकता है। यह बड़े ही दुर्भाग्य का विषय है कि आजकल यज्ञ का मूलार्थ तो लुप्त हो गया है और उसका तुच्छ एवं अपभ्रष्ट अर्थ ही से हम परिचित हैं। हम यज्ञ केवल इसको मानते हैं कि मंत्रोच्चारपूर्वक अग्नि में कुछ हव्य सामग्री का होम करें। पर मूल में यज्ञ इतनी सीमित या छोटी बात नहीं है। यज्ञ तो इस समूची सृष्टिचक्र की सहज लीला प्रक्रिया है जिसमें सूर्य, चन्द्र, तारे, समुद्र, बादल, वर्षा वनस्पति, पशु-पक्षी, मछली, कीटपतंग तथा सांप-गोह तथा मनुष्य सभी अपना-अपना हविर्भाग निरन्तर अर्पित कर रहे हैं और इसी यज्ञ से सृष्टि का उद्भव, पालन तथा संहार संभव होता है।

एक स्थान विशेष पर अग्नि प्रज्ज्वलित करके मंत्रोच्चार पूर्वक उसमें हव्य सामग्री का हवन करना उस शाश्वत एवं सर्वव्यापक सहज चालित यज्ञचक्र का एक प्रतीकात्मक अभ्यास मात्र है, वह पूर्ण अथवा सच्चा यज्ञ नहीं है। सच्चा यज्ञ तो इस बात में निहित है कि इस विराट सृष्टि लीलाचक्र अथवा सृष्टि नाटक में अपने योगदान की आवश्यकता का समझें, उसमें अपनी विशिष्ट भूमिका को भी समझें तथा उस भूमिका को पूरा भी करें क्योंकि हमारा जो उदय, अस्तित्व तथा अवसान है वह इसी चज्ञचक्र के भीतर तथा अन्तर्गत ही संभव है। इसलिए हम इस यज्ञ चक्र के निरंतर ऋणी हैं। इस सृष्टि लीला चक्र के प्रति या इस यज्ञचक्र के प्रति हमारा ऋणी भाव ही हमारी नैतिकता का भौतिक आधार है। इस यज्ञ चक्र से निरन्तर कुछ न कुछ प्राप्त करके ही हम जीते हैं, विकास करते हैं। अत: इस सृष्टिचक्र में या यज्ञचक्र में अपनी भी भूमिका को ठीक से पहचान करके अपनी भूमिका को भी निष्ठापूर्वक निभाना यह नैतिकता का मूल तकाजा है क्योंकि जहाँ भी हम में से एक भी व्यक्ति इस विराट सृष्टि के लीला चक्र में अपनी भूमिका का सम्यक निर्वाह नहीं करता वहीं इस सृष्टि लीला चक्र में एक विध्न, विकृति, बाधा या व्यवधान पैदा होता है जिसका दुष्प्रभाव समस्त विराट सृष्टिचक्र को भोगना पड़ता है और अन्त में स़ृष्टि के नियम ऐसे हैं कि हमारे द्वारा डाला गया व्यवधान हमसे ही वापस आकर टकराता है। इसलिए नैतिकता का ध्येय तथा अर्थ परोपकार तथा उदारता ही नहीं है, नैतिकता आत्मरक्षा तथा निज हित की साधना का भी एक श्रेष्ठ उपाय है।

तो इतने विचारविमर्श के बाद हम नैतिकता के व्यावहारिक पक्ष को ले सकते हैं। इसके लिए हमें नैतिकता की एक विश्लेषणात्मक परिभाषा प्रस्तावित करनी होगी जो मेरी राय में इस प्रकार हो सकती है-

”नैतिकता” ऐसी भावना, ऐसे चिन्तन तथा ऐसे व्यवहार का नाम है जिससे-

(क) मनुष्य के भीतर जो आत्मा है तथा मनुष्य के बाहर जो नाना रूपमय सृष्टि है उन दोनों के प्रति मनुष्य एक साथ अपना तादात्म्य स्थापित कर सके।

(ख) मनुष्य तथा मनुष्य के बीच भय तथा सन्देह का उन्मूलन हो।

(ग) मनुष्य ओर मनुष्य के बीच विश्वास, आस्था, सहयोग तथा सम्मान की स्थापना हो।

(घ) जिस विराट् सृष्टिलीला चक्र अथवा ब्रह्मयज्ञ में मनुष्य ने जन्म लिया है उसमें वह अपनी विशिष्ट भूमिका को समझ सके, प्राप्त कर सके तथा पूरी कर सके।

(ङ) मनुष्य के आन्तरिक जीवन अथवा अन्त:करण की शान्ति, स्वच्छता तथा स्वास्थ्य की सुरक्षा हो सके तथा मनुष्य उस आन्तरिक जीवन के साथ एकाकार हो सके।

नैतिकता को इस प्रकार समझ लेने के बाद ही यह प्रश्न उठता है कि नैतिकता की शिक्षा क्यों दी जानी चाहिए। इस प्रश्न का उत्तर हम आसानी से दे सकते हैं क्योंकि ऊपर हमने नैतिकता का स्वरूप समझने की कोशिश कर ली है।

नैतिक शिक्षा क्यों दी जाय, इस प्रश्न का उत्तर यह है कि नैतिकता पर ही जीवन आश्रित है बल्कि कहना चाहिए कि नैतिकता ही जीवन है और अनैतिकता ही मृत्यु है। मैने ऊपर कहा कि वास्तविकता यह है कि हमारा मूल जीवन आन्तरिक तथा आत्मिक है। हमारा जो ऊपरी भौतिक जीवन है वह हमारे आन्तरिक जीवन से गौण है बल्कि उसकी प्रतिच्छाया मात्र है। हमारा यह आन्तरिक आत्मिक जीवन केवल नैतिकता की ही खूराक से जीता है; पुष्ट होता है, हर्षित और पुलकित होता है। रोटी उसकी खूराक नहीं है, कपड़ा उसे पहनने को नहीं चाहिए और मकान की कैद भी उस को नहीं होती। वह व्यापक, शाश्वत, सनातन सूक्ष्म जीवन, वास्तविक जीवन हमारे भीतर है और पूर्ण रूप से नैतिकता पर ही आश्रित है। तो उस आन्तरिक जीवन को कुम्हलाने और मुर्झाने तथा मूर्च्छित होने से बचाने के लिए, उसे प्रफुल्लित रखने के लिए नैतिक शिक्षा की अनिवार्य आवश्यकता है।

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि हमारा भौतिक जीवन नैतिकता के निर्वाह के बिना सम्भव है। नैतिकता के बिना हमारा भौतिक जीवन भी दूभर हो जाता है और हम सभी लोग नैतिकता की रक्षा के बिना एकदम भौतिक द़ृष्टि से भी असुरक्षित हो जाते हैं, ख़तरे में पड़ जाते हैं क्‍योंकि विराट सृष्टि लीला का यज्ञ चक्र यूं दिखने में भौतिक हो सकता है पर उसका निर्वाह एक नैतिक आवश्यकता भी है। आज जो हमें यह आवाज सुनाई दे रही है कि शिक्षा में नैतिकता का भी समावेश होना चाहिए उसका मूल कारण आध्यात्मिक नहीं है बल्कि भौतिक जीवन जिन परेशानियों में आज पड़ गया है उसी के त्रास से हम नैतिक शिक्षा को याद करने लगे हैं। अब स्थिति यह है कि नैतिकता की शिक्षा के बिना देश की गाड़ी वर्तमान दल-दल से निकल कर आगे गति नहीं कर सकती। देश का विकास रुक गया है, मनुष्य निराश तथा व्याकुल हो गया है क्‍योंकि जीवन में अनैतिकता छा गयी है। विज्ञान का गर्व चूर हो गया है जो सारी भौतिक समस्याओं का समाधान करने का ठेका ले रहा था नैतिकता के प्रसार के बिना विज्ञान का प्रसार घातक होता जा रहा है।

तो अब प्रश्न उठता है कि नैतिक शिक्षा कैसे दी जावे। मैं इस प्रश्न को सही ढंग से रखने हेतु उसे उलट दूँगा और कहूँगा कि प्रश्न यों पूछिये कि अनैतिक शिक्षा कैसे रोकी जाय। बात यह है कि शिक्षा स्वयं ही एक अनैतिकता है। नैतिक जीवन कैसे खत्म किया जाय इस प्रश्न पर जब खोज हुई तो प्राचीन युग में ही स्कूल का आविष्कार हो गया। कुछ लोगों को खास कर राज्य चलाने हेतु अनैतिक लोगों की सख्त जरूरत थी। उसके लिए अनैतिक लोग मिलते नहीं थे। तब स्कूलों का आविष्कार हुआ जिसमें लोगों की जन्मजात नैतिकता को कुंठित करने की अच्छी-खासी ‍ व्यवस्था की गयी। यह व्यवस्था इस प्रकार की गयी कि यज्ञ प्रक्रिया को स्कूल के बाहर कर दिया गया तथा इतने ज्यादा वर्षों तक छात्रों को  यज्ञ कर्म से पृथक् रखा जाने लगा कि विद्यार्थी अनैतिकता में पक्के होकर स्कूलों से निकलने लगे। यदि सादी भाषा में कहा जाय तो हम यों कहेंगे कि स्कूलों में उत्पादक परिश्रम तो निषिद्ध कर दिया गया जो कि नैतिक जीवन का मूलाधार है और केवल बौद्धिक ज्ञान के व्यापार पर जोर दिया गया। इस प्रकार रूपान्तर से परोपजीवी जीवन का, शासक जीवन का दीर्घकालीन अभ्यास स्कूलों में दिया जाने लगा। इस प्रकार शिक्षा मूल में ही अनैतिक हो गयी। बाद में इसी शिक्षा को सार्वजनीन या यूनीवर्सल बनाने की कोशिश की गयी जिससे शिक्षा तो नहीं बल्कि अनैतिकता सार्वजनीन होती जा रही है। जैसे जैसे शिक्षा फैल रही है अनेकानेक रूपों में मुफ्तखोरी तथा प्रतियोगिता बढ़ रही है यानी अनैतिकता बढ़ रही है। गाँधीजी ने जो बुनियादी तालीम की बात की और कहा कि उत्पादक परिश्रम को शिक्षा की बुनियाद तथा शिक्षा की धुरी बनाओ। उसका खास कारण यह था कि शिक्षा की अनैतिक विषाक्तता को दूर करने का दूसरा कोई भी उपाय नहीं है।

– दयाल चंद्र सोनी

यह लेख शिविरा पत्रिका के मई-जून 1982 के अंक में प्रकाशित हुआ था।