लेखक – दयाल चंद्र सोनी
स्वास्थ्य का मतलब है मनुष्य का शरीर तो सही हालत में हो ही, साथ में उसका मन भी सही हालत में हो जो कि स्वस्थ हालत में तभी रह सकेगा, जबकि मनुष्य की बुद्धि शुद्ध हो जाये, शांत हो जाय, स्थिर हो जाय। ”स्वस्थ” मनुष्य वही है जो ”स्व” में यानी अपने में ”स्थ” हो, यानी टिका हुआ हो। तो ”स्व” में तो वही ”टिक” सकता है जिसके मन पर स्थिर, शांत, संतुलित बुद्धि का अंकुश हो। ऐसे व्यक्ति को गीता में ”स्थितप्रज्ञ” कहा गया है। यदि हमारे मन में शेष सृष्टि के प्रति भय, दुश्मनी, असहयोगिता या प्रतियोगिता, ईर्ष्या, द्वेष और आशंका और हार-जीत की भावना है तथा हम ईश्वर की तुलना में पद, पैसे तथा अमर्यादित भोग-उपभोग के शिकार हैं तो हम अस्वस्थ हैं चाहे हमारा शरीर नीरोग तथा भीमसेन सा बलिष्ठ ही क्यों न हो। स्वास्थ्य की इस अवधारणा पर आधारित पूरा लेख आगे पढ़िये।
अगर हम यों माने कि जो तनदुरुस्त है वह स्वस्थ भी है तो हम थोड़ी ग़लती करेंगे। तन का मतलब है शरीर और दुरुस्त का मतलब है ठीक हालत में होना। तो तनदुरुस्त होने के लिए तो बस अपने शरीर की हालत का ठीक रहना काफी है। पर स्वस्थ होने के लिए या स्वस्थ कहलाने के लिए केवल शरीर की हालत का ठीक होना काफ़ी नहीं है, क्योंकि स्वस्थ शब्द का अर्थ ही अलग हैा स्वस्थ शब्द में शरीर का मतलब रखने वाला कोई इशारा ही नहीं है। स्वस्थ शब्द से न तो शरीर का अर्थ निकलता है और न दुरुस्त होने का अर्थ निकलता है। स्वस्थ शब्द में दो शब्द जुड़े हुए हैं जिनमें से पहला है ”स्व” और दूसरा है ”स्थ”। अब जो पहला शब्द है ”स्व” उसका मतलब है अपना, यानी खुद का, यानी निजी। और ”स्थ” का मतलब है टिका हुआ, यानी ठहरा हुआ। तो पूरे स्वस्थ शब्द का अर्थ होता है वह व्यक्ति जो कि खुद में टिका हुआ है या जो व्यक्ति अपने में बैठा हुआ है। जैसे गृहस्थ शब्द का अर्थ होता है घर-परिवार में रहने वाला। वैसे ही स्वस्थ, शब्द का अर्थ होता है अपने में या खुद में रहने वाला। तो यहाँ शरीर का नाम नहीं है, तन का नाम नहीं है, न ही केवल तन की दुरुस्ती की कोई बात है। यहाँ तो खास बात यह है कि आप अपने आप में ही ठहरे हुए हैं या नहीं है? यदि आप अपने आप में यानी ”स्व” में टिके हुए हैं तो आप स्वस्थ हैं, वरना आप अस्वस्थ हैं, बीमार हैं, रोगी हैं।
तो अब तक की बात का सारांश यह है कि यदि हम स्वस्थ होने का मतलब ठीक से समझना चाहते हैं तो हमें ”स्व” शब्द को ठीक से समझना होगा, यानी ”स्व” की पहचान ठीक से करनी होगी। हमें यह भी समझना होगा कि उस ”स्व” में हम कैसे टिकेंगे ताकि हम स्वस्थ हो सकें और ”स्वस्थ” कहला सकें।
हमारा ”स्व” तो वही होगा जो हमें कभी भी नहीं छोड़े, जो हम से कभी भी अलग न हो। तो ज़ाहिर है कि हमारा जो शरीर है, वह हमारा ”स्व” तो नहीं है क्योंकि शरीर तो नाशवान् है। शरीर तो जब जर्जर हो जाता है तो हमें छोड़ देता है। हम सभी अनुभव करते हैं कि शरीर से तो हम अलग हैं। ”यह मेरा शरीर है” ऐसा तो हम बोलते हैं, परन्तु मैं स्वयं शरीर हूँ और मैं केवल शरीर हूँ ऐसा हम नहीं बोलते हैं। शरीर तो दिखता है पर शरीर में एक मन भी है जो आँखों से दिखाई नहीं पड़ता परन्तु जिसको हम अपने भीतर हर वक्त महसूस करते रहते हैं। इस मन में कभी अच्छी भावनाएँ उठती हैं और कभी बुरी भावनाएँ उठती हैं और उन भावनाओं के अनुसार ही शरीर भी कभी तो अच्छे कामों में और कभी-कभी बुरे कामों में लगता है। यानी शरीर पर मन का भी बहुत प्रभाव पड़ता है। पहले मन चोरी की भावना में फँसता है और तब शरीर चोरी में मन का साथ देता है। इस तरह भलाई के काम की भावना या प्रेरणा पहले मन में उठती है और तब शरीर भी भलाई में साथ देता है।
मन के साथ-साथ शरीर में ही बुद्धि भी अपना काम करती रहती है। मन तो मन है, उसमें तो अच्छी-बुरी कोई भी लहर उठ सकती है, पर बुद्धि वह तत्व है जो मन की उमंग या लहर को तोलता है, परखता है और उस तरंग के अनुसार काम करने या न करने का रास्ता खोजता है। तो बुद्धि का सही तथा संतुलित रहना या शांत रहना बहुत ज़रूरी है। यदि बुद्धि संतुलित या शान्त न हो तो मन अपनी तरंगों में बेलगाम या स्वच्छन्द हो जायेगा तथा वह शरीर को भी गलत-सलत कामों में लगा देगा। अत: मनुष्य के लिए सबसे ज़रूरी बात यह है कि उसकी बुद्धि सही रहे, संतुलित रहे तथा शांत रहे। इस प्रकार सार यह सामने आता हे कि जिस मनुष्य की बुद्धि स्वस्थ है, वही मनुष्य स्वस्थ है।
मैं जो यह बात यहाँ लिख रहा हूँ उसका आधर गीता के दूसरे अध्याय में है। यहाँ गीता में बुद्धि की स्थिरता को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है और यह बात स्पष्ट लिखी गयी है कि जिस यक्ति की बुद्धि स्थिर हो जाती है, जो अपने व्यवहार को इस संसार में सही रख पाता है, वही मनुष्य ईश्वर को पहचान सकता है तथा उसे प्राप्त कर सकता है। यानी वही मनुष्य अपने तत्व में, अपनी आत्मा में टिक सकता है या ठहर सकता है। हमने शुरू में ही यह बात कह दी थी कि ”स्वस्थ” मनुष्य वही है जो ”स्व” में यानी अपने में ”स्थ” हो, यानी टिका हुआ हो। तो ”स्व” में तो वही ”टिक” सकता है जिसके मन पर स्थिर, शांत, संतुलित बुद्धि का अंकुश हो। ऐसे व्यक्ति को गीता में ”स्थितप्रज्ञ” कहा गया है।
अब यदि हमें ऊपर कही गयी बातें समझ में आ जाती हैं तो हमें यह बात भी आसानी से समझ में आ जायेगी कि स्वास्थ्य या तनदुरुस्ती का संबंध केवल भौतिक शरीर से ही नहीं है, बल्कि स्वास्थ्य वास्तव में कहीं ज्यादा लम्बी-चौड़ी तथा गहरी बात है। स्वास्थ्य का मतलब है मनुष्य का शरीर तो सही हालत में हो ही, साथ में उसका मन भी सही हालत में हो जो कि स्वस्थ हालत में तभी रह सकेगा, जबकि मनुष्य की बुद्धि शुद्ध हो जाये, शांत हो जाय, स्थिर हो जाय और यदि हम ऐसा भी मानते हों कि स्वस्थ होने का मतलब केवल तन की दुरुस्ती है या शरीर ही की दुरुस्ती है तो भी हमें यह कहना तथा समझना पड़ेगा कि जो शरीर मरा नहीं है, वह जीवित शरीर केवल हाड़, मांस और खून ही नहीं है बल्कि शरीर में एक गहराई है और उस गहराई में शरीर में मन है, बुद्धि है, मैं की भावना है; यानी अहं भी है जिससे जीवित शरीर को अलग नहीं किया जा सकता है। तो जब तक शरीर जिंदा है तब तक शरीर अपने मन, अपनी बुद्धि अपनी ”मैं” की भावना से जुड़ा हुआ तथा अभिन्न है और इसलिए मनुष्य की तनदुरुस्ती का सवाल मनुष्य के शरीर के दिखने वाले भौतिक अंश की ही दुरुस्ती का सवाल नहीं है बल्कि शरीर की गहराई में जो मन, बुद्धि तथा अहंकार हैं, उन सब की सम्मिलित, संयुक्त, मिश्रित अथवा समग्र तनदुरुस्ती का सवाल है।
स्वास्थ्य या तनदुरुस्ती की समझ जो अब तक बाहर दिखते हुए शरीर तक ही सीमित मानी गयी, उससे मनुष्य का बहुत नुकसान हुआ है। यह नुकसान केवल व्यक्तिगत नहीं हुआ है, बल्कि पूरे समाज का हुआ है। भारत की जनता की प्रमुख बात यह रही है कि यह जनता आक्रमणकारी का रूप लेकर विदेशों में नहीं गयी। हाँ, विदेशों से इस देश पर आक्रमणकारियों ने जुल्म ज़रूर किये। तो हमको यह भ्रम हो सकता है कि विदेशी आक्रमणकारी लोग तो बड़े तनदुरुस्त थे और हम भारतवासी अस्वस्थ या बीमार थे। पर यदि स्वास्थ्य एवं तनदुरुस्ती को गहरी तथा समग्र दृष्टि से देखा जाय तो जो लोग आक्रामक हैं, हिंसक हैं, लोभी हैं, भ्रष्ट हैं, निर्दय हैं वे बीमार हैं, रोगी हैं, अस्वस्थ हैं। जिनका मन शुद्ध नहीं है, जिनकी बुद्धि संतुलित तथा स्थिर नहीं है, वे ही लोग आक्रमणकारी, क्रूर, लोभी और भ्रष्ट हो सकते हैं। दुनिया का इतिहास ऐसे ही रोगी लोगों की निर्दयता से तथा उनके द्वारा मचायी गयी तबाही से भरा हुआ है। चंगेज खाँ, नादिरशाह, हिटलर आदि क्रूर आक्रामक लोग क्या उस दृष्टि से और उस परिभाषा के अनुसार तनदुरुस्त या स्वस्थ माने जा सकते हैं जो परिभाषा स्वास्थ्य की हमने ऊपर की है? स्पष्ट है कि उस परिभाषा या उस दृष्टि से ये लोग स्वस्थ नहीं थे बल्कि महारोगी थे। ऐसे रोगी लोग दुनिया में पूर्वकाल में ही नहीं हुए, आज भी हमारे देश के जो युवक आतंकवादी बन गये हैं या जो लोग भ्रष्टाचार में डूब कर देश की आजादी का सारा गुड़-गोबर कर रहे हैं, वे सब हमारी उपयुक्त परिभाषा तथा दृष्टि के अनुसार बीमार या रोगी हैं। इन रोगी लोगों का इतना फैलाव इसलिए हो रहा है कि हमने तनदुरुस्ती या स्वास्थ्य का मतलब केवल शरीर तक सीमित रखा और मन तथा बुद्धि को स्वास्थ्य के सवाल से या विषय से अलग समझा और दूर रखा।
भारत के ऋषिमुनियों ने स्वास्थ्य के विषय को मनुष्य के शरीर की ऊपरी परत तक सीमित नहीं रखा बल्कि मनुष्य के शरीर की ऊपरी परत के नीचे जो मनुष्य का मन है और उसकी बुद्धि है, उसकी गहराइयों तक उतारा और इसी वजह से भारत में स्वास्थ्य का विषय एक प्रकार का योग-अभ्यास बन गया और भारत वर्ष में स्वास्थ्य का विषय संपूर्ण मनुष्य के संपूर्ण जीवन का विषय बन गया।
सम्पूर्ण मानव स्वस्थ होना चाहए न कि केवल उसका शरीर मात्र, यह दृष्टि गीता में जगह-जगह प्रकट है। दूसरे अध्याय में स्थिर बुद्धि या स्थितप्रज्ञता की याख्या इसी दृष्टि से की गयी है पर अन्यत्र गीता में स्वास्थ्य का विषय आया है। गीता के सत्रहवें अध्याय में मनुष्य के सात्विक भोजन, राजसी भोजन और तामसी भोजन का फ़र्क बताया गया है तथा उन भोजनों का मनुष्य के स्वभाव तथा उसके आचरण से संबंध भी बताया गया है। इसी तरह छठे अध्याय में यह कहा गया है कि योग में सफलता उसे नहीं मिलेगी जो खूब खावे ओर खूब सोवे या बहुत ही कम खावे और बहुत ही कम सोवे बल्कि जो व्यक्ति भोजन तथा निद्रा के सेवन में संतुलन रखेगा वही योग द्वारा अपने दु:खों को दूर कर सकेगा। इसी प्रकार गीता के सातवें अध्याय में स्त्रियों और पुरुषों की पारस्परिक कामवासना को भी हेय, घृणित या सर्वथा त्याज्य नहीं बताया गया है बल्कि उसके बारे में केवल इतनी पाबंदी या लगाम लगायी गयी है कि उसमें धर्म यानी मर्यादा का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। तो गीता, जिसे कि धर्म की किताब माना जाता है, शरीर के स्वास्थ्य, उसकी नींद, उसके भोजन तथा उसकी कामवासना तक को अध्यात्म से जोड़ती है जिससे स्पष्ट है कि स्वास्थ्य का विषय केवल भौतिक या शारीरिक नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक है।
इस प्रकार जब स्वास्थ्य का विषय शरीर से आगे बढ़कर मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक आयाम ग्रहण करता है तभी व्यक्ति का संबंध एक तरफ तो अपने समाज से सही हो पाता है तथा दूसरी तरफ प्रकृति एवं पर्यावरण के साथ भी सही हो पाता है। आज न तो व्यक्ति का संबंध समाज के साथ शुद्ध है और न मनुष्य का संबंध प्रकृति तथा पर्यावरण के साथ सही है। इसका अर्थ यह है कि आज न तो हमारा समाज स्वस्थ है और न हमारा प्राकृतिक पर्यावरण ही स्वस्थ है। इसका मूल कारण क्या है? इसका मूल कारण यही है कि हमने स्वस्थ होने का मतलब बहुत अधूरा ही माना तथा स्वस्थ होने के पूरे तथा गहरे मतलब को न सोचा और न समझा।
मैं इस बात को मंज़ूर करता हूँ कि भारत के लोगों में आज कई दोष हैं और कुछ दोष इतिहास में पुराने ज़माने में भी रहे हैं, परन्तु भारत में स्वास्थ्य को जितनी गहराई से समझा और माना गया उतना दूसरे देशों में शायद न तो समझा गया और न ही माना गया। इस देश पर आक्रमण करने वाले लोग पूर्वकाल में तो शस्त्रधारी थे और बाद में जो लोग आये वे शस्त्रधारी तो थे ही पर साथ-साथ मीठे ठग भी थे। यानी हमें जीतने के लिए तो उन्होंने शस्त्रों का प्रयोग अवश्य किया, परन्तु हमारा धन प्राप्त करने के लिए, हमें कमज़ोर निर्धन तथा भिखारी बनाने के लिये उन्होंने बहुत चालाकी से काम लिया। उन्होंने ऐसी शिक्षा का प्रचार किया कि जिससे हमारे उद्योग धन्धे नष्ट हो जायँ, हम अपने जीवन के ढंग को, अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति, अपनी भाषा, अपनी वेशभूषा को नीचे दर्जे की मानें और जीवन के आंतरिक मूल्यों को यानी अपने मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक स्वास्थ्य की चिंता छोड़ करके ऊँचे पद, ऊँची तनख़्वाह तथा हाकिम या अफ़सर बनने को जीवन का लक्ष्य तथा जीवन की सफलता मान लें।
इन लोगों को मनुष्य के स्वस्थ होने के पूरे तथा गहरे अर्थ का पता नहीं था और न आज है और उनकी नीतियों के शिकार होकर हम स्वयं भी अब मनुष्य के स्वस्थ होने के गहरे, समग्र तथा असली अर्थों को भूलते जा रहे हैं पर यह मनुष्य जाति के लिए कल्याणकारी बात नहीं है। इन लोगों ने विज्ञान में खूब कमाल कर डाला है, इन्होंने महाघातक तथा भयंकर शस्त्र या बम बना लिये हैं जो इतने खतरनाक हैं कि मानवता नष्ट हो सकती है। इन लोगों ने भारत जैसे शान्त तथा संतोषी देशों की जनता को और प्रकृति तथा पर्यावरण को भी बहुत बुरी तरह तथा बड़ी बेरहमी से लूटा है और इस पर भी इनकी शेखी यह है कि ये देश अपने को सभ्य, विकसित तथा ऊँचा मानते हैं और हम लोगों पर भी इन्होंने ऐसा जादू चलाया है कि हम भी उनको ही सभ्य, शिक्षित, सम्पन्न, विकसित मानकर उनसे धन उधार लेकर, उनसे विद्याएँ सीख कर, उनकी जी-हजूरी करके अपने को दीन-हीन तथा भिखारी बना रहे हैं। इस प्रकार हम अपना स्वास्थ्य खो रहे हैं और बीमार होते जा रहे हैं। आज़ादी से पहले यह देश ज्यादा स्वस्थ था, पर आज का भारत पहले की तुलना में बहुत रोगी हो गया है और आसार ऐसे हैं कि अभी हमारा रोगीपन बढ़ने ही वाला है, घटने वाला नहीं है। अत: हमें सोचना चाहिये कि फिर से स्वस्थ कैसे हो सकते हैं?
जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, मुझे तो ऐसा लगता है कि पश्चिमी एवं विकसित देशों का मूल विश्वास हमारे मूल विश्वास से बिलकुल उल्टा है। उनकी मूल मान्यता, उनकी मूल आस्था, उनका मूल दर्शन डार्विन नामक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक के सिद्धान्त पर आधरित है जिसने बताया था कि ”जीवन को बचाने के लिये संघर्ष करना यानी दूसरों से टकराना” पड़ता है, प्रकृति की शक्तियों से भी टकराना पड़ता है और दूसरे मनुष्यों से भी टकराना पड़ता है। जीने के लिए दूसरों के साथ संघर्ष भी करना पड़ता है, लड़ना-झगड़ना पड़ता है, उनसे होड़ करनी पड़ती है और हमारा बचाव तभी संभव होता हे, जबकि हम दूसरों को हरा दें, पराजित कर दें और स्वयं जीत जावें और विजयी हो जावें। अंग्रेज़ी भाषा में डार्विन के सिद्धान्त का नाम है ”स्ट्रगल फॉर एग्ज़िस्टेंस – सर्वाइवल ऑफ़ दी फिटेस्ट”। तो पूरी पश्चिमी संस्कृति या गोरे लोगों की पूरी संस्कृति ऐसा मानती है कि दुनिया दुश्मनी से तथा दुश्मनों से ही भरी है और हमें हर समय दूसरों से सावधान तथा चौकन्ना रहना चाहिए।
इसके विपरीत भारत के ऋषि-मुनियों ने भारत को तो ऐसा विश्वास दिलाया है कि यह सारी सृष्टि जिसमें जड़ और चेतन शामिल हैं, सूरज, चांद, पृथ्वी, पृथ्वी की मिट्टी, पानी, हवा, रोशनी, आग, पेड़-पौधे, जीव-जंतु, पशु-पक्षी, मगर-मछलियाँ, सर्दी-गर्मी-बरसात तथा दूसरे-दूसरे मनुष्य, उन सभी में केवल एक ही परम परमात्मा की सत्ता व्याप्त है और इसलिए यह सृष्टि पारस्परिक मित्रता, पारस्परिक रक्षा के कारण टिकी हुई है। इसलिए मनुष्य को सभी के साथ मित्र दृष्टि से या मैत्रीभाव से व्यवहार करना चाहिए क्योंकि जीवन की रक्षा इसी तरह संभव है। हमारे ऋषियों ने जो कुछ कहा वह गोरे लोगों के महर्षि डार्विन के सिद्धान्त से बिल्कुल उलटा है। हमारे ऋषियों ने कहा है कि सारी सृष्टि में एक ही सत्ता व्याप्त है, तुम सभी में हो और सभी तुम में हैं, इसलिए अपना भोग मर्यादित तथा सीमित रखो ताकि तुम्हारी तरह ही दूसरे भी आराम से जीने के लिए अपनी जरूरतों की वस्तुओं को पा सकें। उन्होंने यह भी कहा कि जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य भोग नहीं है, योग है।
तो ये दो सिद्धान्त हैं, दो विश्वास हैं, दो दर्शन हैं, दो मान्यताएँ या आस्थाएँ हैं उनमें से किसके पालन से व्यक्ति स्वस्थ रहेगा, प्रकृति या पर्यावरण स्वस्थ रहेगा और समाज स्वस्थ रहेगा, इसका निर्णय हमें आज तो करना ही होगा क्योंकि हब हम विनाश के कगार पर पहुँच गये हैं। अब तो वे लोग भी ढोल पीट-पीट कर कह रहे हैं कि पर्यावरण का प्रदूषण तथा विनाश हद से बाहर हो रहा है और वे भी यह मानते हैं कि मानव तथा मानव के बीच शत्रुता बढ़ती जा रही है जिसे रोकना जरूरी है पर पश्चिमी सभ्यता आज भी डार्विन को अपना मार्गदर्शक ऋषि मानकर इस संसार में प्रतियोगिता, होड़ाहोड़, द्वेष, ईर्ष्या तथा भोग-उपभोग को जीवन का मूल रहस्य मानती है और इस वजह से वह न तो प्रकृति और पर्यावरण को बचा सकती है और न मनुष्य जाति को। आजकल हमारे देश में शिक्षा भी वही चल रही है जो डार्विन के संघार्षात्मक, होड़ात्मक सिद्धान्त पर कायम की गयी थी। अत: इस शिक्षा का फैलाव होने से भारत अपने ऋषियों की सहयोगितात्मक शिक्षा को भूल गया, मर्यादित भोग की शिक्षा को भूल गया, अपने से दूसरे के प्रति मित्रभाव को भूल गया।
पर, सम्पूर्ण स्वास्थ्य या समग्र स्वास्थ्य की दृष्टि से यह सब गलत हो रहा है। इससे न व्यक्ति का स्वास्थ्य बचेगा न प्रकृति का स्वास्थ्य बचेगा और न ही समाज का स्वास्थ्य बचेगा और आगे अपने वाली पीढ़ियाँ इस का दुष्परिणाम भोगते हुए हमें गालियाँ देंगी।
सारांश यह है कि स्वस्थ होने का पूरा-पूरा तथा गहरा अर्थ न केवल समझना है बल्कि उसका पालन भी करना है। इसको समझने में खास बात यही समझनी है कि मन में यदि शेष सृष्टि के लिए मित्रता की, सहयोगिता की, पारस्परिक-संपूरकता की, पारस्परिक विश्वास तथा आश्वस्तता की दृष्टि रहती हे तो हम स्वस्थ हैं, चाहे शरीर से कभी कभी रुग्ण न हो जायं। दूसरी तरफ यदि हमारे मन में शेष सृष्टि के प्रति भय, दुश्मनी, असहयोगिता या प्रतियोगिता, ईर्ष्या, द्वेष और आशंका और हार-जीत की भावना है तथा हम ईश्वर की तुलना में पद, पैसे तथा अमर्यादित भोग-उपभोग के शिकार हैं तो हम अस्वस्थ हैं चाहे हमारा शरीर नीरोग तथा भीमसेन सा बलिष्ठ ही क्यों न हो।
नोट – यह लेख राजस्थान वॉलेंटियरी हैल्थ एसोसिएशन, सी – 41, देव नगर, टौंक रोड, जयपुर के त्रैमासिक प्रकाशन Dear Doctor के Oct.-Dec. 1995 के अंक में सर्वप्रथम प्रकाशित हुआ था।