गाँधी जी के सिद्धान्तों का हनन होने की पीड़ा, सत्याग्रह जैसे अचूक हथियार के मर्म और गाँधी-विचारधारा में वास्तविक विश्वास रखने वाले गिने चुने व्यक्ति तथा संस्थाएं किस प्रकार अपने विश्वास को क्रियान्वित कर सकती हैं, इन पर प्रकाश डालने वाला स्वर्गीय श्री दयाल चन्द्र सोनी का आज से 41 वर्ष पूर्व सन् 1971 में गाँधी निर्वाण दिवस पर लिखा एक विचारोत्तेजक लेख, जो आज और अधिक प्रासंगिक है, नीचे प्रस्तुत है।
तीस जनवरी सन् 1948 की संध्या को महात्मा गाँधी हमारे देश के एक युवक द्वारा मार दिये गये आज उस घटना को 22 वर्ष ही हुए हैं। (1971 में जब यह लेख लिखा गया) अपने युग में गाँधी जी को हमारे विशाल देश पर ऐसा भारी प्रभाव था कि हमारी कोटि कोटि जनता मानो किसी जादू से ग्रस्त हो गयी थी। मोहन दास गाँधी के व्यक्तित्व ने हमारे राष्ट्र के छोटे, बड़े, अमीर, शिक्षित, अशिक्षित, दक्षिणवासी और उत्तरवासी, पूर्ववासी और पश्चिमवासी, स्त्री और पुरुष, हिन्दू और मुसलमान सभी पर सचमुच एक सम्मोहन सा डाल दिया था। गाँधीजी से सब प्रभावित हुए। देश में एक नया संगठन, नयी शांति, नयी चेतना, नया हौसला पैदा हुआ और अंत में बिना युद्ध के मैदान में शस्त्रबल से विजय प्राप्त किये ही हमने अंग्रेज़ों की दासता से अपने देश को मुक्त कर लिया। फलस्वरूप आज हम आज़ाद कहलाते हैं।
पर इस आजादी में हमारी वास्तविक आंतरिक हालत क्या है? उस हालत से आज किसको सांत्वना है? किसको गर्व हे? गाँधीजी के जीते जी उनका जो प्रभाव दिखाई देता था, क्या उसे देखते हुए कभी यह कल्पना की जा सकती थी कि उनके मरते ही उनका प्रभाव, जो जादू की तरह प्रथक था, एक स्वप्न के टूटने की तरह समाप्त सा हो जायेगा। क्या कभी यह सोचा जा सकता था कि उनके पीछे जो लोग उनका अधिक से अधिक नाम लेंगे वे ही अधिक से अधिक उनके सिद्धान्तों का हनन भी करेंगे? क्या यह आशंका उसी समय किसी के मन में थी कि गाँधीजी के बताये हुए कार्यक्रम निर्जीव से होकर एक लीक पीटते रहने के समान निस्तेज से होकर रह जायेंगे? क्या उस समय कोई यह खयाल कर सकता था कि मानवीय समस्याओं पर गाँधीजी ने जो एक नवीन एवं आशाजनक-उत्साहजनक प्रकाश फेंका था उस प्रकाश के प्रति हमारी जनता आँखें मूंद लेगी? आचरण एवं व्यवहार में गाँधीजी जिस नैतिकता के प्रतीक थे, जीवन में जिस समग्र सादगी और सदाचार को वे स्थान देना चाहते थे, मानवीय समस्याओं को सुलझाने में वे जिस सदाशयता, समवेदना प्रेमाग्रह और सहिष्णुता से काम लेना चाहते थे, प्रत्येक साध्य को प्राप्त करने में साधन की शुद्धि का जो उनका आग्रह था, स्वाश्रम, स्वावलम्बन, स्वदेशी ओर विकेन्द्रीकरण वाली अर्थ व्यवस्था का उनका जो स्वप्न था, उनकी ये सारी बातें कहाँ लुपत हो गयीं? उनके समय में हमारे समूचे देश में जो एक राष्ट्रीय भावना, एकत्व की अनुभूति उत्पन्न हो गयी थी आज वह कहाँ गयी? उन्होंने हमारी वृत्तियों की विध्वंसकता दूर करके उनमें जो रचनात्मकता का मोड़ पैदा किया था, उसका क्या हुआ? गाँधीजी हमको किधर ले जाना चाहते थे और आज हम उसकी सर्वथा विपरीत दिशा में कैसे जा रहे हैं? कहाँ रह गयी वह बुनियादी तालीम, वह खादी और वे ग्रामोद्योग और कहाँ आज हमारी शिक्षा और हमारे भारी उद्योग हमें ले जा रहे हैं?
यह ठीक है कि राजघाट की समाधि पर आज भी फूल चढ़ते हैं, देश में आज भी जगह जगह गाँधी मार्ग पर कुछ रचनात्मक कार्य चल रहा है, गाँधीजी के आदर्शों और सिद्धान्तों के आधार पर संत विनोबा भूदान-ग्रामदान आदि का महान क्रांतिकारी कार्य करते जा रहे हैं परन्तु सब कुछ मिलाकर तो यही मानना होगा कि देश का जनमानस और देश का वर्तमान नेतृत्व गाँधी जी को तथा गाँधीजी के नैतिक मूल्यों को भुला चुका है। ऐसा महसूस होता है मानो गाँधीजी इस देश में कभी हुए ही नहीं थे। आज हमारे देश में जो पृथकवाद चल रहा है, छोटी से छोटी समस्या को लेकर जो तोड़फोड़ एवं हिंसक उपद्रव होते हैं, बात बात में जो छुरे चल जाते हैं, रात रात में हमारे राजनीतिक अगुए जिस प्रकार अपने दल बदला करते हैं और हमारी सरकार जिस निर्लज्जता से लूप और नसबन्दी को सारी बुराइयों का रामबाण इलाज मान कर उसके पीछे पागल सी हो रही है। क्या ये सब बातें देखते हुए कोई यह मान सकता है कि इस देश में 20 वर्ष पूर्व ही गाँधीजी जैसा क्रांतिकारी महान् नेता जीवित था। यह सब देखकर वास्तव में अत्यन्त पीड़ा होती है। पृथ्वी पर शायद ही कोई ऐसा दूसरा देश होगा जो अपने महानतम् नेता तथा उसकी महान् शिक्षाओं को इतनी जल्दी तथा इतनी अच्छी तरह श्रद्धांजलि एवं तिलांजलि एक साथ ही दे देता हो।
इस प्रकार अत्यन्त मायूस करने वाली यह स्थिति है और इस बात की कोई आशा नहीं की जा सकती कि निकट भविष्य में ही हमारी जनता या हमारी सरकार किसी विशाल पैमाने पर गाँधीजी के बताये हुए मार्ग का अनुसरण कर सकेगी। अत: आज की घड़ी में गाँधीजी द्वारा प्रज्वलित की गयी ज्योति को बुझने नहीं देने की जिम्मेदारी कुछ ऐसे इक्के दुक्के लोगों पर या कुछ ऐसी इक्की दुक्की संस्थाओं पर आ जाती है जो अपनी सहज आंतरिक प्रेरणा से ही गाँधीजी को तथा उनकी शिक्षाओं को अपने जीवन के विकास के लिए और समाज की वर्तमान समस्याओं को हल करने के लिए अनुकूल मानती हों। इस समय तो बस जो स्वयं समझता है उसी की अपनी जिम्मेदारी है और वास्तव में गाँधीजी के विचार की यही खूबी है और यही उसकी खराबी भी कही जा सकती है कि गाँधी-विचार किसी पर थोपा नहीं जा सकता और न थोपा जाना चाहिए। जो समझे वह उसे माने और जो माने वही उस पर चले और चलता जाय। समाज पर उसका प्रभाव होगा या नहीं होगा और होगा तो कब होगा, कितना होगा इसका तखमीना लगाने का यह समय नहीं है। अभी तो कम से कम आत्म विकास, आत्मशांति के लिए एवं स्वान्त:सुखाय ही जो भी व्यक्ति गाँधीजी के विचारों पर चलना चाहता हो उसे चलना चाहिये।
तो अब हमारे सम्मुख मूल प्रश्न यही बचता है कि जो इक्के दुक्के लोग ईमानदारी से गाँधीजी को कुछ मानते हैं और गाँधीजी के आदर्श को अपने जीवन के अनुकूल समझकर उस पर चलने की आंतरिक भावना रखते हैं वे क्या करें और कैसे चलें ताकि इस अत्यन्त विपरीत वातावरण में वे अपने आपको निभा सकें और उन्हें कुछ सफलता भी मिल सके। वास्तव में आज की परिस्थिति में यह प्रश्न इतना महत्वपूर्ण नहीं रह जाता है कि गाँधीजी की विचारधारा का पूरे समाज के लिये व्यापक रूप से किस प्रकार अमल किया जाय क्योंकि यह बहुत वांछनीय होते हुए भी बहुत दूर का प्रश्न बन चुका है। अत: आज की घड़ी में गाँधी-विचारधारा की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यही बचता है कि वे इक्के दुक्के व्यक्ति तथा संस्थाएँ जो गाँधी-विचारधारा में विश्वास रखती हैं, किस प्रकार अपने विश्वास को वर्तमान परिस्थितियों में क्रियान्वित कर सकती हैं?
जब इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर विचार किया जाता है तो सबसे पहला सवाल यही उठता है कि वास्तव में गाँधीजी की विचारधारा का क्रांतिकारी तत्व है क्या जिसे हमें ठीक तरह ग्रहण करना चाहिए। एक तरफ़ गाँधीजी सत्य एवं अहिंसा पर जोर देते हैं, अनासक्ति और साधन शुद्धि का आग्रह रखते हैं तथा आध्यात्मिकता एवं समाज सेवा का समन्वय करना चाहते हैं और दूसरी तरफ़ उनके कुछ ठोस और व्यावहारिक कार्यक्रम हैं जो समाज की राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन पैदा करना चाहते हैं। इस प्रकार हमारे सामने गाँधीजी की विचारधारा के दो पहलू प्रत्यक्षत: हो जाते हैं जो एक दूसरे के पूरक हैं। अब यदि हम गाँधीजी की विचारधारा पर चलना चाहते हें तो हमें इन दोनों पहलुओं का तुलनात्मक महत्व और उन दोनों पहलुओं का पारस्परिक संबंध समझना होगा अन्यथा हम जैसे लोग जो कि आज के प्रतिकूलतापूर्ण वातावरण अपने आप को गाँधीजी की विचारधारा को मानने और अमल में लाने वाले मानते हैं स्वयं भी गाँधीजी को गलत रूप से पेश करने वाले बन जायेंगे और गाँधीजी की विचारधारा को बढ़ाने वाले साबित न हो कर उस विचारधारा को रोकने वाले साबित होने लगेंगे।
उदाहरण के लिए खादी और ग्रामोद्योग पर गाँधीजी ने ज़ोर दिया है। यदि मैं खादी और ग्रामोद्योग के कार्यक्रम को ही गाँधीवाद मानकर खादी और ग्रामोद्योग को आगे बढ़ाने के लिये झूठ कपट करने को तैयार हो जाऊँ या खादी और ग्रामोद्योग का कार्य चलाने के लिए गलत या अनैतिक तरीके काम में लूँ तो मैं गाँधीजी के नाम पर ही गाँधीजी का हत्यारा बनूंगा इसमें कोई शक नहीं। अत: हम जैसे गाँधीप्रेमियों को सबसे पहले जो बात समझनी है सो यह है कि वास्तव में गाँधीजी की आत्मा तो गाँधीजी के उन नैतिक आदर्शों में है जिनके प्रकाश में मनुष्य को अपने आचरण एवं चरित्र का निर्माण करना चाहिए और उन्होंने जो आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं शैक्षिक नीतियाँ तथा कार्यक्रम बताये हैं वे यदि उनके जीवन के नैतिक सिद्धान्तों एवं नैतिक आदर्शों से अलग थलग पड़ जाते हैं तो वे कोरे पाखंड साबित होकर गाँधीजी की विचारधारा को बदनाम करने वाले तथा उसके प्रभाव को उलटा कम करने वाले ही साबित होंगे।
अब इस ठिकाने पर उन संस्थाओं का सवाल ज्वलंत हो जाता है जो गाँधीजी की नीतियों तथा गाँधीजी के बताये हुए आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक या शैक्षिक कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने के लिए काम करने का दावा करती हैं। हमारे देश में आम तौर पर यह पाया जाता है कि संस्थाओं को चलाना काफी टेढ़ी खीर हैं। संस्थाएँ आम तौर पर ऐसी नहीं होतीं जो अपने खर्च के बारे में अपने पांवों पर खड़ी हों। उनको समाज तथा सरकार से आर्थिक सहायता लेनी ही होती है। इस आर्थिक सहायता को प्राप्त करके अपने आपको जीवित रखने हेतु आज की परिस्थितियों की जटिलता में संस्थाओं को कई बार अपने प्यारे से प्यारे सिद्धान्तों तथा आदर्शों का हनन करना पड़़ता है। व्यक्ति की तरह संस्था के सामने भी जीवित रहने का प्रश्न प्रमुख हो जाता है और अपने धयेय तथा अपने आदर्शों को जीवित रखने का प्रश्न गौण पड़ जाता है और यहीं गाँधीजी की विचारधारा का अन्त हो जाता है। इसके अलावा जहाँ एक संस्था बनती है, वहीं कुछ रोजगार के द्वार खुल जाते हैं और रोजगार के द्वार खुलते ही, इस बेरोज़गारी की स्थिति में, संस्था में ऐसे व्यक्ति भी घुस आते हैं जिनका उस संस्था के आदर्शों से कोई सरोकार नहीं होता, केवल खादी भंण्डार में रोजगार पाने के लिये ही झटपट खादी का लिबास धारण कर लेते हैं और खादी भण्डार का रोजगार छूटते ही पुन: खादी छोड़ देते हैं। इस प्रकार प्रथम तो संस्था को जीवित रखने के लिए जो पैसा और साधन चाहिए उसी को जुटाने में कई बार आदर्शों से गिरना पड़ता है और फिर रोजगार की भीषण समस्या के कारण कुछ ऐसे कार्यकर्ता घुस आते हैं जिनका विश्वास संस्था के मूल आदर्शों के अनुकूल नहीं होता। ऐसी दशा में संस्थागत प्रयास द्वारा गाँधीजी के आदर्शों तथा जीवन के मूल सिद्धान्तों को आगे बढ़ना काफी कठिन साबित होता है। अत: जब तक कोई संस्था मरने की तैयारी के साथ नहीं चलती और जब तक वह एक महज़ रोजगार का क्षेत्र होती है तब तक संस्था द्वारा भी कुछ खास होना जाना नहीं है। गाँधीजी के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक तथा शैक्षिक कार्यक्रमों को चलाने हेतु जो संस्थाएँ बनें उन्हें समाप्त हो जाना ज्यादा पसंद होना चाहिये बनिस्बत गलत रास्तों से या या अशुद्ध साधनों से धन प्राप्त करके जीना और उनकी आंतरिक व्यवस्था ऐसी नहीं होनी चाहिए जैसी कि सरकारी महकमों की होती है कि जहाँ केवल रोजगार के लिए मनुष्य भरती होते हैं और जहाँ भाईचारा एवं परिवार भावना नहीं होती बल्कि जहाँ पदों में ऊँच नीच रहती है। ऐसी संस्थाओं की आंतरिक व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि उनमें गाँधीजी के नैतिक आदर्शों में विश्वास रखने वाले लोग मिलें और एक सहयोगी टोली की तरह समानता की भावना रखते हुए काम करें। बेशक यह काफी मुश्किल है, पर यदि गाँधीजी के विचार को आगे बढ़ाना है तो यह सब करना होगा।
आम तौर पर समाज सेवा के नाम पर चलने वाली संस्थाएँ समाज के लिए ही काफी खतरनाक चीजें बन जाती हैं जिसका मूल कारण यह हे कि जब मनुष्य व्यक्ति की हैसियत में रह कर कोई झूठ-कपट करता है या अशुद्ध साधन काम में लेता है तो उसे ग्लानि होती है क्योंकि उसे मालूम होता है कि वह अपने स्वार्थ के लिए अपनी नैतिकता को गिरा रहा है। परन्तु जब मनुष् एक संस्था बना कर बैठता है और उसको ऐसा महसूस होता है कि संस्था का जीवित रहना तथा आगे बढ़ना उसके व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए नहीं बल्कि समाज का हित करने के लिए आवश्यक है तब वह झूठ कपट एवं अनैतिक या अशुद्ध साधन काम में लेने से उतना परहेज नहीं करता जितना व्यक्तिगत हैसियत में स्वयं अपने लिए कार्य करने में कर सकता है। संस्था का संचालक बन कर मनुष्य अशुद्ध साधन काम में लेता है तब वह अपनी अंतरात्मा को ऐसा कह कर आसानी से बहका देता है कि मैं जो भी झूठ, कपट, निर्दयता, अन्याय कर रहा हूँ वह आखिर अपने स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि समाज के लिए कर रहा हूँ। खादी ग्रामोद्योग, सर्वोदय एवं भूदान ग्रामदान तथा अंत में गाँधी विनोबा के लिए कर रहा हूँ। बस फिर क्या है? फिर तो गाँधी और विनोबा ही संस्था संचालक के मन में बैठ कर मानो पाप की प्रेरणा देने लगते हैं और संस्था तथा संस्था के संचालकों का पतन और पाखंड शुरू हो जाता है और यह उक्ति चरितार्थ होती है कि-
कचरे को साफ करने झाड़ू लगा रहे हैं,
झाड़ू बिखर बिखर कर फैला रहा है कचरा।
यही कारण है कि एक तरफ़ देश में संस्थाएँ बढ़ती जाती हैं और दूसरी तररफ़ देश में भ्रष्टता फैलती जाती है। तो सवाल पैदा होता है कि क्या संस्थाएँ खोली ही न जावें? क्या वर्तमान संस्थाओं को बंद कर जावे? नहीं। इसका उपाय यह नहीं है। इसका उपाय यह है कि संस्थाओं में और खास कर गाँधी विचार को आगे बढ़ाने वाली संस्थाओं में आंतरिक व्यवस्था सरकारी महकमें जैसी न होकर जनतांत्रिक या सर्वोदयी परिवार जैसी होनी चाहिए और वहाँ हर कार्यकर्ता को संसथा के निर्णयों को प्रभावित करने का हक होना चाहिए और संस्था का हर निर्णय ऐसा सोच कर किया जाना चाहिए कि संस्था एक बहुत ही शुद्ध विचार एवं ऊँची से ऊँची नैतिक कसौटियों पर खरा उतरने वाला महान् व्यक्ति हैा संस्था कोई व्यक्ति नहीं है पर संस्था के संचालकों को चाहिए कि संस्था को एक आदर्श नैतिक मानव मानें जिसमें सभी मानवीय गुण विद्यमान हैं। वास्तव में होना यह चाहिए कि हम अपने व्यक्तिगत जीवन में अपनी व्यक्तिगत कमजोरियों के कारण जिस ऊँचे नैतिक एवं मानवीय गुणों के स्तर को प्राप्त नहीं कर सकते हैं, जहां तक संस्था को जीवित रखने, चलाने और आगे बढ़ाने का प्रश्न हे, हम उस ऊँची नैतिकता एवं मानवीय गुणों की रक्षा तथा प्रतिष्ठा करें। संस्था यदि मरती है तो मर जाने दें लेकिन संस्था के लिए और संस्था के नाम पर झूठ कपट और अशुद्ध साधन काम में न लें। संस्था हमारे व्यक्तिगत दुर्गुणों एवं दुर्बलताओं से ऊपर एक आदर्श मानव का प्रतीक बने, न कि हमारे दुर्गुणों एवं हमारी दुर्बलताओं की खुल कर खेलने का मौका देने वाली ढाल। ऐसा परिवर्तन संस्था संचालकों के दृष्टिकोण में यदि आ जाता है तब तो बेशक संस्था अपने संचालकों तथा अपने समाज का भी कुछ भला कर सकती है पर यदि ऐसा नहीं होता और संस्था ऐसे ढंग से चलायी जाती है कि जिन दुर्गुणों और दुर्बलताओं को अपने व्यक्तिगत जीवन में अपनाने से हमें डर लगता है संस्था के भीतर संस्था के नाम पर उन्हीं दुर्गुणों और दुर्बलताओं को एक समाज सेवा का पहनावा ओर लाइसेंस मिल जाता है, तब तो वास्तव में संस्थाएँ ही बंद कर देनी चाहियें। इससे तो अच्छा है कि संस्था के लोग, और लोगों की तरह, अपना अपना कुछ काम धन्धा करके व्यक्तिगत हैसियत से कमा खावें और समाज समाज ओर सेवा सेवा चिल्लाना बंद करें।
वास्तव में आज जिसे देखो, बस समाज सेवा का मसीहा बना फिरता है। लोग ऐसी बातें करते हैं मानों सारे समाज की चिंता उन्होंने ही अपने सिर पर ओढ़ रखी है मानो उनके बिना यह समाज न तो पहले टिका हुआ था और न भविष्य में टिकेगा। वे भूल जाते हैं कि इस सृष्टि को किसी ईश्वर ने रचा है और वही उसकी स्थिति और प्रलय का कारण है तथा वे समाज सेवक महाशय इस समाज में बस घड़ी भर के मेहमान हैं और समाज से लेते भी हैं और समाज को देते भी हैं। भारत वर्ष में प्राचीन काल में शायद यह समाज समाज और सेवा सेवा की चिल्लाहट कम थी। यह समाज और समाज सेवा की चिल्लाहट हमारे यहाँ बाहर से ज्यादा आई है। हमारे प्राचीन संत महात्मा समाज का नाम उतना नहीं लेते थे। वे केवल अपने आध्यात्मिक जीवन का महान् विकास करते थे और उनके आध्यात्मिक विकास से जनता प्रभावित होकर प्रेरणा ग्रहण करती थी और सुधरती थी।
कबीर, नानक; दादू, तुलसीदास आदि ने हमारे समाज में जो क्रांति की, जो चेतना फूँकी, उसमें समाज सेवा और संस्थावाद का नारा नहीं था, उसमें समाज की ठेकेदारी नहीं थी। उसमें एक व्यक्ति द्वारा जीवन का एक आदर्श विकसित किया गया था और उस विकसित आदर्श ने आसपास के व्यक्तियों को प्रभावित करते करते पूरे समाज पर एक व्यापक प्रभाव डाला था। यहाँ यह तात्पर्य नहीं है कि समाज सेवा और संस्था निर्माण अनुचित या अनावश्यक है पर ऐसे कामों के पीछे नम्रता होनी चाहिए। समाज सेवा और संस्था के कारण या उसके नाम पर हमारा नैतिक और आध्यात्मिक पतन नहीं होना चाहिए बल्कि संस्था से हमें तथा हर एक को अपने नैतिक उत्थान का अवसर तथा प्रेरणा मिलनी चाहिए। संस्था का आचरण हर हालत में ऐसा होना चाहिए जो हमारी व्यक्तिगत कमज़ोरियों का प्रतीक न हो बल्कि जो हमारी कल्पना के आदर्श नैतिक पर पुरुष के आचरण का प्रतीक हो। वास्तव में आज की संस्थाओं के दृष्टिकोण में ऐसा परिवर्तन उत्पन्न होना आवश्यक हो गया है।
महात्मा गाँधी ने भी यदि देश को प्रभावित किया है तो उसके पीछे उनके व्यक्तिगत जीवन की साधना एवं उनके हृदय की शुद्धता का महान् बल था। महात्मा गाँधी अपनी नीतियों एवं अपने कार्यक्रमों की तुलना में व्यक्तिश: बहुत ऊँचे महापुरुष थे। वास्तव में वे आध्यात्मिकता और ईश्वर भक्ति से ओत प्रोत संत थे और राजनीति तथा समाज सुधार में भी उन्होंने आध्यात्मिकता तथा ईश्वर भक्ति ही उतारी थी। और स्पष्ट शब्दों में हम यों कह सकते हैं कि वे एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें हम गीता का कर्मयोगी कह सकते हैं।
अत: अब यदि हम इस पर विचार करें कि हम जैसे लोग अपनी व्यक्तिगत हैसियत में गाँधी विचार से कैसे लाभान्वित हो सकते हें तथा किस प्रकार समाज में भी अपना व्यवहार चला सकते हैं तो हमें गाँधीजी के व्यक्तिगत जीवन से प्रेरणा लेनी होगी। ज़ाहिर है कि हम लोग गाँधीजी की तुलना में कुछ नहीं हैं और उनकी होड़ करने में हम लोग कभी कामयाब हो ही नहीं सकते क्योंकि गाँधीजी तो एक युगपुरुष थे जो अनेकानेक युगों में कभी कभी पैदा होते है। उनकी होड़ करने वाले आसानी से नहीं जन्मेंगे।
पर अपनी तुच्छता के बावजूद गाँधीजी की प्रेरणा तो हमें सर्वथा तुच्छ नहीं मानती। अपने व्यक्तिगत जीवन में गाँधी विचार को उतारने का प्रयत्न करते हुए समाज को व्यापक रूप से प्रभावित करने की आशा चाहे हम न कर सकें पर यदि हममें नैतिक जीवन की कुछ भूख है और हम अपने नैतिक जीवन का विकास चाहते हैं तो अपने लाभ के लिए तो हम गाँधीजी के सिद्धान्तों को अपनी जीवन में उतारने का प्रयत्न कर ही सकते हैं और हमें अवश्य ही ऐसा प्रयत्न करना भी चाहिये।
दुर्भाग्य सारा यह है कि युगों से औसत मनुष्य या तो किसी बात को भयभीत होकर मानता आया है या किसी लोभ में आकर मानता आया है। भय एवं लोभ से विचलित न होकर किसी बात को इसीलिए मानना या न मानना कि हमारा दिलोदिमाग ईमानदारी से वैसा महसूस करता है, ऐसी आदत आम तौर पर औसत मनुष्यों में नहीं पायी जाती। फल यह है कि समाज का कोई भी वर्ग या व्यक्ति हो, जब वह दूसरे वर्ग या व्यक्ति से अपनी बात मनवाना चाहता है तो या तो भय दिखाता है या लालच दिखाता है और जिस वर्ग या व्यक्ति को बात माननी होती है वह भी उस बात को तभी मानता है जबकि या तो वह डर जावे या लोभ में आ जाय। दिल और दिमाग के रास्ते से आम तौर पर न तो बात को मनवाने का प्रयत्न किया जाता है और न उस रास्ते से लोग बात मानने के लिए तैयार ही हैं। यह जो व्यापक एवं वर्तमान हालत है उसमें मानवता का विकास असंभव है यह स्पष्ट है। हालत इस हद तक गंभीर हे कि कई बार धर्म शास्त्रों में भी मनुष्य को दिल और दिमाग के रास्ते से बदलने का प्रयत्न करने के बजाय स्वर्ग का लालच और नरक का भय बताकर सुधारने का प्रयत्न किया गया है। तो हम इस बात को बहुत आसानी से समझ सकते हैं कि भय और लालच का हमारे समाज में कितना भारी, कितना भयंकर तथा कितनी दृढ़ता से जमा हुआ प्रभाव है।
गाँधीजी द्वारा जिस क्रांति की ओर इशारा किया गया है वह यह है कि मनुष्य भय और लालच से न तो स्वयं डिगे और न दूसरे को हाँकने का प्रयत्न करे बल्कि दिल और दिमाग के रास्ते से ही स्वयं समझने और मानने को तैयार हो और दूसरे को भी दिल और दिमाग के रास्ते से ही समझाने और मनाने की कोशिश करे। बस यही संक्षेप में और सरल रूप में गाँधीजी की महान् क्रांतिकारी देन है कि मनुष्य को भय और लाभ से मत हाँको बल्कि उसे दिल और दिमाग के रास्ते से प्रभावित करो और स्वयं भी इसका आग्रह रखो कि कोई तुम्हें भय और लालच से न हाँके और तब तक हाँके जाने से इनकार कर दो जब तक कि तुम्हें तुम्हारे दिल और दिमाग की गवाही नहीं दिला दी जाय। वास्तव में इसी दिल और दिमाग के मार्ग को ही प्रेम तथा सत्य का मार्ग भी कहा गया है।
गाँधी विचार की मूल या बुनियादी मान्यता यह है कि प्रत्येक मनुष्य चाहे वह पूँजीपति हो या सामंत हो, गरीब हो या गया गुज़रा हो, शिक्षित हो या अशिक्षित हो उसमें एक ही परमेश्वर की ज्योति का निवास है और इसलिए मनुष्य से अपनी बात मनवाने हेतु या मनुष्य के साथ बर्ताव करने में भय और लालच से काम लेना उस सर्वव्यापक ईश्वर ही का अपमान है जो हमारे भीतर एवं दूसरों के भीतर भी समान रूप से विराजमान है। जिन लोगों को मानवता के भीतर रहने वाली ईश्वरता या एकता का अटूट और दृढ़ विश्वास नहीं है, जो दूसरे की ग़लती या कमज़ोरी को केवल उसी की कमज़ोरी या ग़लती मानकर उसमें अपनी जिम्मेदारी महसूस नहीं करते हैं ऐसे लोगों के लिए गाँधीजी की कोई देन नहीं है और अभी समाज में भारी बहुमत ऐसे ही लोगों का है जो सब मनुष्यों को अलग अलग और पृथक मानकर उनके भीतर जो ईश्वरीय एकत्व है उसे स्वीकार नहीं करते और जिनके स्वयं मानने और दूसरों को मनाने के लिए बस भय और लोभ ही मुख्य साधन हैं।
तो जो इक्के दुक्के लोग, यत्र तत्र गाँधीजी की विचारधारा पर अपने व्यकितगत जीवन में चलना चाहते हैं उनके लिए आज का वातावरण वास्तव मेंअत्यन्त प्रतिकूल है। ऐसी हालत में किसी इक्के दुक्के व्यक्ति के लिए भय या लालच के आगे झुकने से इन्कार करना एक बड़ी भारी मुसीबत की चीज़ हो जाती है। विपरीत वातावरण के कारण आज के ज़माने में गाँधीजी के सिद्धान्त पर चलना अत्यंत टेढ़ी खीर बन गया है। स्वयं गाँधीजी को, ख़ास कर, अपने जीवन के अंतिम दिनों में उनके निकट सहयोगियों से ही जो निराशा उठानी पड़ी और जिस तरह उनकी हत्या की गयी वह जहाँ आदर्शवादी साधनों के लिए एक प्रेरणास्पद उदाहरण है वहाँ जो आदर्श पर नहीं चलना चाहते उनके लिए तो गाँधीजी का उदाहरण भी यही शिक्षा देता हे कि सत्य और अहिंसा पर चल कर ख़तरा मोल नहीं लेना चाहिए। इसी प्रकार जब इक्के दुक्के गाँधीभक्त गाँधीजी के आदर्शों पर चल कर जीवन में कष्ट उठाते हैं तो वे भी कुछ लोगों के लिए तो प्रेरणास्पद उदाहरण बनते हैं पर कुछ दूसरे लोगों के लिए विपरीत सबक देने वाले उदाहरण साबित होते हैं। एक ही व्यक्ति के जीवन के उदाहरण से अलग अलग लोग बिलकुल भिन्न प्रेरणा ग्रहण करते हैं।
अत: गाँधीजी की विचारधारा पर चलने का प्रयत्न करने वाला कोई भी व्यक्ति ऐसा मानकर नहीं चले कि वह अपने उदाहरण से समाज को बदल देगा। समाज जो है, हमारे बूते की चीज नहीं है अत: समाज के बदलने हेतु नहीं बल्कि स्वयं अपने को बदलने के लिए, स्वयं अपने विकास के लिए ही हमें गाँधीजी के विचारों तथा आदर्शों को अपनाना चाहिए और यदि हमारे उदाहरण तथा प्रयत्न से समाज कुछ बदलता हुआ नजर भी आवे तो उस परिवर्तन या सुधार का श्रेय लेने से हमें बहुत सावधानी से इंकार कर देना चाहिए। समाज का परिवर्तन एक आभास के तुल्य है। समाज में वास्तविक परिवर्तन आता है या नहीं यह अत्यन्त विवादास्पद है।
सत्य ओर अहिंसा के मार्ग पर जो भी व्यक्ति चलना चाहते हों उन्हें तो सबसे बड़ी सलाह जो दी जा सकती है वह यही है कि आप माज से शाबाशी और सराहना की आशा हरगिज़ मत करना। समाज यदि आपके सत्य एवं आपकी अहिंसा के लिए आपको शाबाशी दे भी तो उसके भुलावे में मत आना। समाज रूपी देवता को झूठ और सच सभी प्रिय हैं। अंत में वही व्यक्ति सत्य पर, अहिंसा पर आरूढ़ रह सकेगा जिसमें समय पर अकेले पड़ जाने की तैयारी हो और जो स्वांत:सुखाय ही सत्य और अहिंसा पर चल सकता हो। आप चल कर देखिये सत्य पर। आपको समाज लगातार अपने बाहर और बाहर और बाहर फेंकता जायेगा। आप समाज में खप ही नहीं सकते। जिस प्रकार छाछ अपने में से मक्खन को निकाल तो देती है पर पुन: आत्मसात् नहीं कर सकती उसी प्रकार इस समाज के मंथन से सत्य और अहिंसा पर चलने वाले व्यक्ति पैदा होकर निकल सकते हैं पर वे समाज में पुन: आत्मसात् नहीं हो सकते। अत: गीता के
शब्दों में जो अपने संतोष के लिए अपनी आत्मा की ही शरण पकड़ने वाला है और समाज से निराश हो जाता है वही सत्य पर, अहिंसा पर चल सकता है।
अब इस प्रकार समाज के प्रति हम निराश हों जायेंगे और समाज से प्राप्त होने वाले थपेड़ों तथा प्रहारों को सहते जायेंगे तो हमें कष्ट तो आयेगा, निराशा भी होगी, ईश्वर के अस्तित्व में संदेह भी पैदा होगा और सत्य तथा अहिंसा में भी हमारी अनास्था जाग सकती है पर धीरज रखने पर मालूम होगा कि जो भी विपत्तियाँ हम पर समाज की तरफ़ से या अपने विरोधियों की तरफ से आयी हैं, शायद उनसे भी हम कुछ सीमा तक अपने विकास में सहायता प्राप्त कर सकते हैं। जीवन में सुख बेशक सुहावना लगता है, पर केवल सुख से न तो हमारी रक्षा हो सकती है और न विकास हो सकता है। सुख से प्रमाद, सुख से भोग, बरबादी तथा क्षीणता उत्पन्न होती है। अत: सुख के बीच बीच जब दु:खों के, मुसीबतों के, सदमों के धक्के लगते हैं तो मनुष्य एकाएक जाग जाता है और अपनी शक्ति को सुरक्षित रखने, अधिक सावधानी से आगे बढ़ने तथा इस संसार की असलियत को समझने में अधिक समर्थ होता है। दु:खों के झटके हमें जीवन की गहराइयों में गोता लगाने को प्रेरित करते हैं और यद्यपि दु:ख भी सुख की तरह ही हमसे बिछ़ड़ जाता है, पर जिस प्रकार सुख भी हमारा निर्माण कर जाता है उसी प्रकार दु:ख भी हमें कुछ दे जाता है और दु:ख हमें जो चीज दे जाता है उसका मूल्य किसी सुख से कम नहीं है। अत: इस समाज में जो भी इक्का दुक्का व्यक्ति सत्य तथा अहिंसा पर चलना चाहता है, उसे एक के बाद एक दु:ख का साक्षात्कार करना होगा तथा अपनी आत्मा को इतना सबल रखना होगा कि दु:ख उसे पीस कर विनष्ट करके नहीं चला जावे बल्कि उसे एक नया सबक सिखा जावे, नया प्रकाश दे जावे, नयी शक्ति दे जावे।
पर एक साधक को जहाँ अन्य लोगों से दु:ख और परेशानी मिल सकती है वहाँ वह स्वयं अपनी भूलों से तथा अपने आवेशों से भी गलतियाँ करके दु:ख मोल ले सकता है और दूसरों को भी वह दु:खी कर सकता है। दूसरों को दु:ख पहुँचाने के लिये सक्रिय हिंसा ही का ठेका नहीं है, मनुष्य अपने वचन, अपने वर्ताव तथा अपनी हथधर्मी से भी बिना शस्त्र दूसरों को उत्पीड़ित कर सकता है। गाँधीजी द्वारा प्रयुक्त सत्याग्रही तरीकों का भी बड़ा भारी दुरुपयोग हमारे समाज में हो रहा है। हम जैसे लोग जो गाँधीजी से प्रेरणा लेकर उनके मार्ग पर चलना चाहते हैं, हमें बहुत सावधान रहना होगा वरना दिया तले अन्धेरे वाली बात चरितार्थ होगी। हो सकता है कि हम अपने आपको सत्य तथा अहिंसा का अवतार मान कर ऐसे मतांध एवं दुराग्रही बन जावें कि हम सामने वाले की परिस्थिति, सामने वाले की मज़बूरी और सामने वाले के दृष्टिकोण को सहानुभूति पूर्वक देखने से ही इनकार कर दें और अपने आपको सत्य का ठेकेदार मानकर आत्मपीड़न द्वारा अपने लिए तथा सामने वाले के लिये उद्वेग खड़ा कर दें। अत: यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि सत्य अत्यंत व्यापक एवं अनेक पक्ष वाला तत्व है और यदि हम में से कोई इसका दावा करे कि सत्य का पूर्ण दर्शन बस उसी को होता है तो यह कोरा दंभ है। ऐसे दंभ के आधार पर यदि हम सत्याग्रह के नाम पर आत्म-पीड़न करेंगे तो यह गाँधी मार्ग न होगा।
गाँधीजी के जीवन को यदि हम देखेंगे तो यह पावेंगे कि गाँधीजी अपने आप पर अत्यधिक कठोर थे। वे अपनी छोटी सी भूल को हिमालय सी भूल मानकर उसको स्वीकार करते थे और भविष्य के लिए सावधान हो जाते थे। उनमें जबर्दस्त आत्म निरीक्षण था और महान प्रेम, सहानुभूति तथा विनय था। उनके हृदय में सबके लिए शुद्ध भावना थी अत: उनके सत्याग्रह में, उनकी तपस्या में शांति थी।
अत: यदि हम गाँधी मार्ग पर चलना चाहते हैं तो हमें अपनी कमियों तथा खामियों पर कड़ा प्रहार करना होगा, सामने वाले के लिए हृदय में सच्चा प्रेम तथा सच्ची हितेच्छा पैदा करनी होगी। सामने वाले की प्रतिष्ठा तथा आबरू को उतारने के बजाय उसकी रक्षा करने का भार ग्रहण करना होगा और गलत साधन काम में लेकर जीने की कोशिश करने के बजाय शुद्ध साधन काम में लेते हुए हार जाने की तैयारी रखनी होगी।
ऐसी साधना करने से हमें पता चलेगा कि वास्तव में हम स्वयं कितने अपूर्ण हैं और गाँधीजी का मार्ग वास्तवव में आत्म शुद्धि का मार्ग अधिक है और समाज सुधार उसका लक्ष्य नहीं है बल्कि वह तो स्वयं व्यक्ति के आत्म शुद्धि के प्रयत्न का एक फलितार्थ है। अत: समाज सुधारक वृत्ति के बजाय आत्म सुधारक एवं आत्म शोधन की वृत्ति से ही हमें गाँधीजी के मार्ग पर अग्रसर होना चाहिए तभी हमें कुछ सफलता मिल सकती है। अंत में एक छोटा सा पद लिखा जा रहा है जिसमें गाँधी मार्ग पर चलने का प्रयत्न करने वाले भाई बहिनों के लिए सात बातें जो इष्ट मानी जानी चाहियें, बतायी गयी हैं-
सत्यनिष्ठा, संयमितता, सरलता, सम वेदना।
समर्पण, साहस तथा स्वाध्याय इति सत्याग्रह।।
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