रामचरितमानस के लंकाकांड का एक प्रभावी अंश

सामान्यत: प्रसिद्ध धार्मिक ग्रंथ श्री रामचरितमानस के लंकाकांड को असुरों के साथ संग्राम और अंत में रावण वध की कथा से संबंधित माना जाता है और सुंदरकांड की तरह इसका बारंबार पाठ नहीं किया जाता लेकिन इसमें उच्च जीवन मूल्यों को प्रेरित करने वाला एक प्रभावी अंश है जो नीचे हिंदी भावार्थ के साथ प्रस्तुत है।

रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि विभीषन भयउ अधीरा।।

अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा।।

नाथ न रथ नहीं तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना।।

सुनहु सखा कह कृपा निधाना। जेहिं जय होइ सो स्‍यंदन आना।।

सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्‍य सील दृढ़ ध्‍वजा पताका।।

बल बिवेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे।।

ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना।।

दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिज्ञान कठिन कोदंडा।।

अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जन नियम सिलीमुख नाना।।

कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम विजय उपाय न दूजा।।

सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें।।

महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।

जाके अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर।।

इसका हिन्‍दी अनुवाद इस प्रकार से है-

रावण को रथ पर ओर श्री रधुवीर को बिना रथ के देख कर विभीषण अधीर हो गये। प्रेम अधिक होने से उनके मन में संदेह हो गया कि वे बिना रथ के, रावण को कैसे जीत सकेंगे। श्रीराम जी के चरणों की वंदना करके वे स्‍नेह पूर्वक कहने लगे- हे नाथ! आपके न रथ है, न तन की रक्षा करने वाला कवच है और न जूते ही हैं। वह बलवान् वीर रावण किस प्रकार जीता जायेगा। कृपानिधान श्री रामजी ने कहा हे सखे। सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है। शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिये हैं। सत्‍य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्‍वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंन्द्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं। ईश्‍वर का भजन ही उस रथ को चलाने वाला चतुर सारथि है। वैराग्‍य ढाल है और सन्‍तोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्‍ड शक्ति है, श्रेष्‍ठ विज्ञान कठिन धनुष है। निर्मल (पाप रहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम, ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरू का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है। हे सखे। ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिये जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है। हे धीर बुद्धि वाले सखा। सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार (जन्‍म-मृत्‍यु) रूपी महान् दुर्जय शत्रु को भी जीता जा सकता है, (रावण की तो बात ही क्‍या है)।

संकलन व भावार्थ – विनोद कुमार सोनी