बसंत
लेखक -दयाल चन्द्र सोनी
वह कहां लुका पावन बसंत, वह कहां उमंग हुलास कहां
वे कहां लताएं अलि मंडित वे पत्र पुष खग कहां
किस महा शिशिर का यह प्रकोप क्यों भरता ठंडी आह पवन
यों तुहिन दग्ध सुनसान म्लान क्यों उजड़ा यह नंदन कानन
कब से छाया है यह विषाद क्या तुम्हें होश है ए माली
और कब तक ध्वस्त रहेगा यों उपवन तेरा वैभवशाली
उठ त्याग निराशा भाग्यवाद भर श्वासों में आशा अनंत
दे कर्मयोग में बलि अपनी प्रिय कहां होलिका बिन बसंत
मुर्दनी शिशिर की जल जाये जीवन होली की जगे ज्वाल
फिर तप्त राख से उगे नये मधु ऋतु के अंकुर लाल लाल
छाये उर में फिर नव उछाह मुखरित हों फिर से दिगदिगंत
भारत के उजड़े उपवन में जागे फिर जागे नव बसंत
फिर पत्रित हो यह वट विशाल पुष्पित सुरभित हो राष्ट्र भाल
कल्लोल करें फिर प्रजातंत्र के विहग बाल
जन केशुचि मन के खिलें सुमन मधु पूरित अम़त दिव्य ज्ञान
गूंजे मंडराएं मधुप मुग्ध वे ह्वेनसांग वे फ़ाहियान
जागे बसंत फिर से अशोक उस गुप्त हर्ष का हो विलास
फिर फलें पकें तप के रसाल आये गाये पिक कालिदास