दादा (स्वर्गीय श्री दयाल चन्द्र सोनी) के कुछ और शेर प्रस्तुत हैं –
(8)
कोई मुरादे हरकत पानी में है न अपनी
धरती का ढाल ख़ुद ही सागर को जा रहा है।
22-12-1957
(9)
सूरज की रोशनी से रोशन है गर ज़मीं यह
तो है ज़मी से रोशन सूरज की रोशनी भी।।
31-03-1958
(10)
मसरूफियत से कुछ भी जब काम बन न पाया
बेकार हो गया हूं और काम बन रहा है।
29-04-1957
(11)
रख याद ऐ सिपाही मैदाने जिंदगी में
जितनी लड़ाइयां हैं अपने से जीतनी हैं
(12)
खुले मुंह रहे पर नज़र भी न हाये
जो घूंघट से झांका तो छुप ना सके तुम।
21-08-1958
(13)
इस क़दर नज़रों से ओझल हो गये क्यों ऐ ख़ुदा।
जो नुमाया तुमसे ज्यादा आजकल शैतान है।
24-08-1958
(14)
जब से हुई है हम में आपस में दुश्मनी यह
शागिर्द बन रहे हैं हम एक दूसरे के।
05-11-1958