बुनियादी शिक्षण में केन्द्रस्थ और क्षेत्रस्थ समवाय की पारस्परिक प्रणाली

बुनियादी तालीम, अप्रेल 1961 में प्रकाशित श्री दयाल चंद्र सोनी का लेख

 

शिक्षक की समस्या

सर्व विदित है कि बुनियादी शिक्षा का मौलिक तत्व समवाय है और विद्यार्थी के हस्तोद्योग तथा सामाजिक और भौतिक जीवन के द्वारा जो शिक्षा दी जाती है उसे समवाय शिक्षा कहा गया है।

परन्तु एक शिक्षक को जब कुछ निर्धारित पाठ्यपुस्तकें अथवा पाठ्यक्रम देकर यह कहा जाता है कि अब तुम जीवन के द्वारा ये पुस्तकें पढ़ाओ अथवा यह पाठ्यक्रम पूरा करो तब शिक्षक के सामने एक जटिल समस्या खड़ी हो जाती है। यह समस्या इस तरह उत्पन्न होती है कि एक ओर तो शिक्षक पाठ्य पुस्तकों अथवा पाठ्क्रम से बंध जाता है और दूसरी ओर इस नियम से कि जो कुछ पढ़ाओ उद्योग तथा सामाजिक और प्राकृतिक जीवन की मार्फत पढ़ाओ। इस परिस्थिति में कुछ ऐसा अन्तर्विरोध है मानो किसी कन्या का एक ओर स्वयंवर की अनुमति दी जाय और दूसरी ओर अमुक युवक से विवाह कर लेने की आज्ञा भी दे दी जावे।

केन्द्रस्थ समवाय 

 इस विषय में सब से पहला सवाल यह उठता है कि यदि समवायी शिक्षा का सिद्धान्त ठोस है तो पाठ्क्रम की रचना करने वाले लोग उद्योग तथा जीवन का ही कुछ शिक्षाक्रम बना कर संतुष्ट क्यों नहीं हो जाते। क्यों वे एक तरफ़ तो समवाय पर इतना बल देते हैं और दूसरी तरफ़ समवाय का इतना विश्वास करते हैं कि समवाय पर ही आश्रित रहने के बजाय बौद्धिक विषयों का सारा पाठ्क्रम परम्परित शिक्षा के अनुसार ही निर्धारित करते हैं?

शास्त्रीय अथवा आदर्श दृष्टि से यह प्रश्न सर्वथा उचित है। बुनियादी शिक्षा के सिद्धान्तों की दृष्टि से आदर्श परिस्थिति यही होगी कि प्रत्येक कक्षा के लिए हस्तव्यवसाय का पाठ्यक्रम तथा विद्यार्थी के सामाजिक तथा भौतिक पक्ष का एक जीवनक्रम निर्धारित किया जाय और यह बात शिक्षक की समवायी योग्यता पर छोड़ दी जाय कि वह इस केन्द्रीय जीवन क्रम की मार्फत ही यथासंभव विद्यार्थी का बौद्धिक और नैतिक विकास करे और इस प्रकार बिलकुल सहज स्वाभाविक रूप से जिस ज्ञान का समवाय हो जाय उसी से संतोष माना जाय। इस प्रकार की शिक्षा में आदर्श समवाय पाया जायगा जिस में किसी भी प्रकार की कृत्रिमता नहीं होगी। टेकनिकल दृष्टि से हम ऐसे ही समवाय को बुनियादी शिक्षा में ”केन्द्रस्थ समवाय” कह सकते हैं क्योंकि उद्योग तथा विद्यार्थी के जीवन के सामाजिक और भौतिक पक्ष को हम शिक्षा का हृदय या केन्द्र मानते हैं। केन्द्रस्थ समवाय घर बैठे गंगा स्नान के समान है। इस समवाय में शिक्षक और विद्यार्थी शिक्षा की केन्द्रीय प्रवृत्तियों में ही अवस्थित रहते हैं और उन प्रवृत्तियों में स्थित रहते हुए जो भी बौद्धिक या नैतिक या कलात्मक शिक्षा सहज रूप से प्राप्त हो जाती है उसी को प्राप्त करते हैं। केन्द्रस्थ समवाय में केन्द्रीय प्रवृत्ति साध्य रूप रहती है और उस प्रवृत्ति में उत्पन्न होने वाली समस्याओं को हल करने के लिए सहज रूप से जिस बौद्धिक ज्ञान की या नैतिक अभ्यास की आवश्यकता होती है वह साधन रूप माना जाता है। उदाहरण के लिए कृषि की प्रवृत्ति की सफलता के लिए मौसम का ईक्षण, बीज का वज़न, भूमि का नाप, बाज़ार में विभिन्न जिन्सों के भाव, लगान विषयक क़ानून, मिट्टी की रासायनिक जॉंच, जैसी अनेक बातों की जानकारी होना बहुत आवश्यक है और जब इन बातों की जानकारी कृषि कर्म करते हुए उपयुक्त प्रसंग होने पर आवश्यकतावश सहज रूप से दी जाती है जिस में शिक्षक या विद्यार्थी को ऐसा अनुभव न हो कि ये जानकारियाँ उनके द्वारा किये जाने वाले कृषि कर्म से भिन्न अथवा बाहर हैं तब जो समवाय होता हे उसे केन्द्रस्थ समवाय कहा जा सकता है।

क्षेत्रस्थ समवाय

यदि हम केन्द्रस्थ समवाय को भली प्रकार पहचान चुके हैं तो क्षेत्रस्थ समवाय को भी आसानी से समझा जा सकता है। जिस प्रकार उद्योग तथा विद्यार्थी के सामाजिक और भौतिक जीवन को हम बुनियादी शिक्षा क्रम का केन्द्र मानते हैं उसी प्रकार भाषा, गणित, सामाजिक ज्ञान, सामान्य विज्ञान आदि जो विषय हैं उन्हें हम बुनियादी शिक्षा क्रम का क्षेत्र मान सकते हैं। अब इन क्षेत्रीय विषयों के निर्धारित पाठ्यक्रम को साध्‍य मानकर तथा केन्द्रीय विषयों को क्षेत्रीय विषयों की शिक्षा का साधन मात्र समझ कर हम जिस प्रकार के समवाय में प्रवृत्त होंगे वह ”क्षेत्रस्थ समवाय” होगा। क्षेत्रस्थ समवाय में शिक्षक के सामने समस्या यह नहीं रहती कि उद्योग अथवा किसी सामाजिक अथवा प्रक़तिक प्रव़त्ति को अमुख बौद्धिक ज्ञान के बिना पूरा नहीं किया जा सकता और इसलिए वह बौद्धिक ज्ञान विद्यार्थी को अवश्य दे दिया जाना चाहिए। बल्कि क्षेत्रस्थ समवाय में शिक्षक के सम्मुख समस्या दूसरे सिरे से प्रारंभ होती है। उसके सामने समस्या यह होती है कि पाठ्यक्रम के क्षेत्रीय भाग में अमुक विषय में अमुक जानकारी निर्धारित है और वह जानकारी विद्यार्थियों को अवश्य दे दी जानी चाहिए। पर क्योंकि जो कुछ पढ़ाना है उसे जीवन के द्वारा पढ़ाना है (अर्थात् केन्द्रीय विषयों की मार्फत पढ़ाना है) इसलिए यह खोज करना शिक्षक का काम रहा कि उस जानकारी के लिए केन्द्रीय विषयों में कहाँ और किस प्रकार स्थान बनाया जाय, किस प्रकार क्षेत्रीय विषय की उस जानकारी को केन्द्रीय विषयों का अंग बनाया जाय। उदाहरण के लिए मान लीजिये कि हमें विज्ञान के निर्धारित पाठ्यक्रमानुसार यह सिखाना है कि गर्मी से वस्तुएँ फैलती हैं और सर्दी में सिकुड़ती हैं और साथ ही मान लीजिए कि केन्द्रीय विषयों का कार्य करते हुए विद्यार्थी को यह बात सिखाने का अवसर सहज स्‍वाभाविक रूप से अपने आप अब तक प्रकट नहीं हुआ पर यह ज्ञान महत्‍वपूर्ण है और विद्यार्थियों को इसकी अवगति अवश्य होनी चाहिए और इसीलिए यह बात पाठ्क्रम में निर्धारित है। तो शिक्षक को यह सोचना रहा कि विज्ञान की शिक्षा में जो यह अदद या ”आइटम” निर्धारित है क्‍या वह विज्ञान के बजाय विद्यार्थी के सक्रिय जीवन के किसी अंग का आइटम बन सकता है? सबसे पहले शिक्षक ने केन्द्रीय विषय कृषि कर्म को ढूँढा। उसे अधिक दूर नहीं जाना पड़ा। कृषि कर्म में बैलगाड़ी काम आती है। इस गाड़ी के लकड़ी के पहिए पर लोहे की पट्टी का घेरा चढ़ा रहता है जिसे पहिए पर चढ़ाने का उपाय यह है कि घेरे को खूब गर्म किया जाता है। गर्मी से जब वह फैल जाता है तब उसमें लकड़ी का पहिया फंसा दिया जाता है और तब पानी डाल कर लोहे का घेरा ठंडा किया जाता है जिस से वह सिकुड़ कर लकड़ी के पहिए को मजबूती से जकड़ लेता है। इस प्रकार लकड़ी के पहिए पर लोहे का घेरा चढ़ाने की कृषि कर्म की समस्या में विज्ञान के पाठ्क्रम का वह आईटम स्थानान्तरित सा हो जाता है और शिक्षक उस आइटम को कृषि कर्म के उक्त प्रयोग के प्रत्यक्ष संदर्भ में पढ़ा देता है। इस प्रकार के समवाय को क्षेत्रस्थ समवाय कहा जा सकता है क्‍योंकि इसमें शिक्षक और विद्यार्थी शिक्षाक्रम के क्षेत्रीय विषय में स्थित होकर केन्दीय विषय को अपने यहाँ निमंत्रित कर उसका उपयोग करते हैं।

पर क्षेत्रस्थ समवाय का जो उदाहरण ऊपर दिया गया वह बहुत आसान है। ख़ास कर भाषा और सामाजिक ज्ञान के पाठ्क्रम में ऐसे कई आइटम हो सकते हैं जो केन्द्रस्थ समवाय द्वारा पूरे होने तो मुश्किल हैं ही, जिनका क्षेत्रस्थ समवाय भी दुष्कर हो जाता है। उदाहरण के लिये इतिहास का एक महत्‍वपूर्ण पाठ है ‘पृथ्वीराज मुहम्मद गोरी का युद्ध”। अब इस पाठ का केन्द्रस्थ समवाय तो कठिन है ही पर क्षेत्रस्थ समवाय भी उतना आसान नहीं है। परन्तु तब भी यदि भारत का इतिहास बच्चों को जानना है तो उक्त पाठ को छोड़ा नहीं जा सकता। तो प्रश्न उठता है कि शिक्षक क्या करे? केन्द्रस्थ समवाय ही बुनियादी शिक्षा का समवाय है अथवा क्षेत्रस्थ समवाय भी अनुमत होना चाहिए और यदि हाँ तो किस सीमा तक?

इसमें कोई संदेह नहीं कि बुनियादी शिक्षा में केवल केन्द्रस्थ समवाय ही अपनाने के पक्ष में, तथा क्षेत्रस्थ समवाय को अपनाने के पक्ष में भी बहुत कुछ कहा जा सकता है। साथ ही इस पक्ष में भी बहुत कुछ कहा जा सकता है कि जिन पाठों का समवाय समझ में न आये उन्‍हें छोड़ दिया जाय और इस पक्ष में भी बहुत कुछ कहा जा सकता है कि बहुत से पाठ ऐसे होते हैं जिनका समवाय चाहे समझ में न आवे, पर समवाय समझ में न आने से ही उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता बल्कि उन्‍हें बिना समवाय के ही अवश्य पढ़ा दिया जाना चाहिए।

केन्द्रस्थ समवाय का पक्ष

केन्द्रस्थ समवाय के विरुद्ध मुख्य शंका यह प्रस्तुत की जाती है कि उसके द्वारा मिलने वाला बौद्धिक ज्ञान सुश्रृंखल अथवा क्रमबद्ध नहीं होता जबकि प्रत्येक बौद्धिक विषय का एक निराला व्यक्तित्व और अपना एक विशिष्‍ट क्रम होता है जिसे निभाये बिना विद्यार्थी के विषय ज्ञान में रिक्तियॉं रह जाती हैं और जो आगे की सुश्रृंखल शिक्षा में उसे दु:ख देते हैं। इसी विषय में दूसरी आपत्ति यह होती है कि केन्द्रस्थ समवाय द्वारा प्राप्‍त बौद्धिक ज्ञान में अभ्यास या ड्रिल के लिये पर्याप्त अवसर नहीं रहता। विद्यार्थी किसी प्रसंगवश किसी जानकारी को तत्कालिक उपयोग के लिए जानता है और उस प्रसंग के समाप्त होते ही उसे छोड़ देता है। इस प्रकार वह शीघ्र ही उपलब्ध ज्ञान को भूल जाता है या खो देता है।

परन्तु केन्द्रस्थ समवाय के समर्थन में यह बात कही जा सकती है कि जिस प्रकार अपना शब्द भंडार बढ़ाने के लिए अकारादि क्रम से शब्दकोष में से शब्दों को रटना न केवल आवश्यक नहीं है बल्कि अशैक्षिक है– अमनोवैज्ञानिक है, उसी प्रकार बौद्धिक ज्ञान की तार्किक सुश्रृंखलता बच्चे की शिक्षा की दृष्टि से अशैक्षिक अथवा अमनोवैज्ञानिक है। व्याकरण में भाषा पर क्रमबद्ध विचार होता है, परन्‍तु व्याकरण के क्रम से भाषा की शिक्षा नहीं दी जाती और यदि दी जाय तो वह अनुचित शब्द होगा। बच्चा सर्वप्रथम माँ, बाबूजी, पानी, दूध इत्यादि शब्‍द सीखता है न कि व्याकरण या शब्‍दकोष के क्रम से भाषा सीखता है। ज्ञान को ज्ञान के रूप में क्रमबद्ध करना विद्वानों का काम है और पंडित बनने के लिए उसकी आवश्यकता है, परन्तु छोटे बच्चे पर वह सुश्रृंखलता या क्रमबद्धता यदि लाद दी जाय तो वह उनकी शिक्षा के चरणों में बेडियॉं पहनाने के समान होगा। क्रमबद्धता हमेशा उपलब्धि के बाद आती है। पहले वस्तुएँ बटोरी जाती हैं और तब उन्‍हें क्रमबद्ध किया जाता है न कि पहले क्रम निर्धारित कर बाद में उन्‍हें प्राप्‍त किया जाता है। बालक तो विविध प्रसंगों और आवश्यकताओं के संदर्भ में जानकारियों को बटोरता है। बटोरे हुए ज्ञान को क्रम बद्ध करना बाद की मंजिल है।

इसी प्रकार ड्रिल या अभ्यास की आपत्ति भी भ्रामक है। अभ्यास या ड्रिल तब तक अनुपयोगी, कृत्रिम और निरर्थक है जब तक कि वह वास्तविक प्रयोजना के संदर्भ से रहित हो। कागज़ पर कृत्रिम अंकों की लम्बी लम्बी जोड़ बाकियों का लगातार दस दिन तक अभ्यास करना या ड्रिल करना इस बात का कोई आश्वासन नहीं कि विद्यार्थी सब्ज़ी खरीदते समय बाजार में अनपढ़ कुंजड़ी से ठगा न जायगा। सुन्दर लिपि लिखने का अभ्यास करना या ड्रिल केवल अभ्चास के लिए करना इस बात की गारंटी नहीं कि विद्यार्थी बड़ा हो कर उसका अपने जीवन में अवश्य प्रयोग करेगा। अभ्यास या ड्रिल भले ही कम हो परन्तु जो भी हो वह वास्तविक कर्म प्रसंग में हो, सप्रयोजन सहेतुक हो, किसी उद्देश्य या आवश्यकता के मातहत हो–यही अभ्यास या ड्रिल का मुख्य सार तत्व है।

परन्तु केन्द्रस्थ समवाय का सारा मसला इन छोटे छोटे प्रश्नों से ही तय नहीं हो सकता कि इसके द्वारा ज्ञान में क्रमबद्धता अथवा सुदक्षता या अभ्यस्तता उत्पन्न होती है या नहीं। ये प्रश्न तो उस रोक के लक्षण मात्र हैं जो ज्ञान को जीवन से स्वतन्त्र मानने मानने वालों ने आधुनिक समाज में पैदा कर दिया है। बुनियादी अथवा मूलगामी प्रश्न ज्ञान की क्रमबद्धता अथवा ज्ञान की ड्रिल का नहीं है। मूल प्रश्न यह है कि ज्ञान और जीवन एक दूसरे से स्वतन्त्र और पृथक् हैं या ज्ञान और जीवन एक दूसरे से ओतप्रोत है? एक विचारधारा यह चल पड़ी है कि ज्ञान का कोई प्रयोजन या हेतु या उपयोग नहीं सोचा जाना चाहिए क्योंकि ज्ञान स्वयं ही अपने में एक प्रयोजन या लक्ष्य है; ज्ञान ज्ञान के लिए है, उसका कोई दूसरा हेतु नहीं। गणित गणित के लिये, भाषा भाषा के लिए है, सामाजिक ज्ञान सामाजिक ज्ञान के लिये है, सामान्य विज्ञान सामान्य विज्ञान के लिए है, कला कला के लिए है, इनकी अपनी हस्ती है, इनका अपने में ही स्वतन्त्र उपयोग है, ऐसी विचारधारा से हमारा युग ग्रस्त रहा है और इस विचारधारा के प्रभाव से ही परम्परित शिक्षा में बौद्धिक ज्ञान की उपासना और साधना जीवन के कर्म पथ के प्रति उदासीन और तटस्थ रह कर की गयी है।

परन्तु बुनियादी शिक्षा इस अर्थ में एक महान् क्रांति है कि ज्ञानपथ हमारे जीवन के कर्मपथ के प्रति उदासीन और तटस्थ रह कर की गयी है।

यदि यह स्पष्ट है कि ज्ञान की सार्थकता जीवन के संदर्भ में ही है तो यह भी स्पष्ट हो जाता है कि बुनियादी शिक्षा में केन्द्रस्थ समवाय का सिद्धान्त समीचीन है। विद्यार्थी ज्ञान को जीवन से पृथक् कोई स्वतन्त्र साध्य न माने बल्कि जीवन को ज्योतित करने के लिए ज्ञान का प्रयोग करे य‍ही बुनियादी शिक्षा की दृष्टि है जो केन्द्रस्थ समवाय से सिद्ध होती है। शाला से बाहर समाज में हम जितना भी जीवन देखते हैं उसमें मनुष्य केन्द्रस्थ समवाय से ही ज्ञानार्जन करता है। अपने जीवन में जो मनुष्य किसी न किसी उद्देश्य, हेतु अथवा प्रयोजन से चुम्बकीकृत है वही लौहचूर्ण की तरह ज्ञान के विभिन्न पाठों को अपनी तरफ़ आकृष्ट कर उन्हें व्यवस्थित रूप से अपने से आबद्ध कर सकता है, ग्रहण कर सकता है। जहाँ जीवन में प्रयोजन या हेतु का अभाव है वहाँ रुचि, उत्साह आदि के बिना विद्या कैसे उपलब्ध होगी? केन्द्रीय विषयों से विद्यार्थियों में हेतुग्रस्तता और रुचि उत्पन्न होती है जिसके कारण वे अज्ञात को जानने और ज्ञात को बरतने की प्रेरणा पाते हैं। अत: केन्द्रस्थ समवाय समीचीन है।

परन्तु कुछ पाठक शंका करेंगे कि यदि केन्द्रीय विषयों के शिक्षण के भरोसे पर ही बौद्धिक विषयों का शिक्षण छोड़ दिया जायगा तो जो बातें केन्द्रीय विषयों की मार्फ़त सिखायी जा सकती हैं वे तो कुछ ही दिनों में समाप्‍त या नि:शेष हो जाएंगी। उसकी बाद उद्योग को या दूसरी प्रवृत्तियों को यंत्रवत् करते रहने के सिवाय कुछ काम ही न रह जायगा। किन्तु अनुभव यह बताता है कि यदि कर्म का प्रत्येक अंग गांधी जी के प्रस्तावानुसार हर समय ”क्यों और कैसे” के प्रश्नों की तुला में तोला जाता रहे तो कर्म या उद्योग की मार्फ़त जितनी बातें जानी जा सकती हैं, उनका कोई अन्त ही नहीं है। इस प्रकार केन्द्रस्थ समवाय का पक्ष बड़ा ठोस तथा प्रबल है, परन्तु अब हम तनिक क्षेत्रस्थ समवाय का पक्ष भी समझने का यत्न करेंगे।

क्षेत्रस्थ समवाय का पक्ष

जिस प्रकार केन्द्र‍थ समवाय का रूप यह है कि कर्म में स्थित होकर ज्ञान की उपलब्धि करो, कर्म के संदर्भ में अथवा कर्म हेतुत्व से ज्ञान का संवर्द्धन करो उसी प्रकार क्षेत्रस्थ समवाय की दृष्टि यह है कि जानकारी को शाब्दिक जानकारी तक सीमित मत रखो बल्कि उसे कर्म में उसी प्रकार मिलाओ जिस प्रकार खेत में खाद मिलाया जाता है। क्षेत्रस्थ समवाय की दृष्टि यह है कि जिस प्रकार बेकार पड़ी हुई पूंजी संकट का कारण होती है और व्यापार में सम्यक् रूप से प्रयुक्त होने वाली पूंजी निर्वाह का साधन बर कर अभिवृद्ध होती है उसी प्रकार प्राप्त ज्ञान को दिमाग के कोठे में उस प्रकार नहीं भरना चाहिए जिस प्रकार राख मिला कर भविष्य के लिये अन्न भरा जाता है बल्कि ज्ञानांग का उपयोग कर्मांग में होना चाहिए ताकि वह सार्थक तथा अभिवृद्ध हो।

क्षेत्रस्थ समवाय की दृष्टि यह है कि जिस प्रकार लड़के के लिए लड़की के घर जाकर ही विवाह करना अनिवार्य नहीं बल्कि लड़की भी लड़के के घर जाकर विवाह कर सकती है और लड़के को अपने घर ला सकती है और दोनों अवस्थाओं में विवाह तो विवाह ही होगा, उसी प्रकार यह अनिवार्य नहीं कि जब कर्म में स्थित होकर ज्ञान प्राप्त किया जाय तभी ठीक समवाय हो और जब ज्ञान में स्थित होकर कर्म प्राप्त किया जाय तब ठीक समवाय न हो बल्कि दोनों अवस्थाओं में समवाय तो समवाय ही होगा। अत: समवाय के इन दो द्वारों को अथवा दोनों तरफ़ खुलने वाले द्वार को उपेक्षित कर यह आग्रह करना कि केवल कर्म की मार्फत ज्ञान दिया जायगा और ज्ञान की मार्फ़त कर्म नहीं दिया जायगा यह नादानी है।

ज्ञान और कर्म इन में से कौन साध्य है और कौन साधन इसका एक पक्षीय निर्णय असंभव है। यह अण्डे और मुर्गी में से किसी एक को प्राथमिकता देने की चक्करदार पहेली के समान निरुत्तर प्रश्न है। अत: श्रेयस्कर तथा संगत बात यही है कि हम ज्ञान और कर्म को अन्यान्य साधन और अन्योन्य साध्य मान लें। ज्ञान ओर कर्म एक दूसरे के साध्य साधन नहीं बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं जैसे कि स्त्री-पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं। अत: केन्द्रस्थ समवाय और क्षेत्रस्थ समवाय में उसी प्रकार कोई भेद नहीं जिस प्रकार लड़की या लड़के के घर विवाह होने से विवाह में कोई भेद नहीं। ज्ञान और कर्म के विवाह का नाम समवाय है चाहे वह कर्म के घर पर, हो चाहे ज्ञान के घर पर।

वास्तव में यदि केन‍द्रस्थ समवाय तक ही समवाय को सीमित कर दिया जाय तो बड़ा अनर्थ होगा, जिसका मूल कारण यह नहीं है कि केन्द्रस्थ समवाय के उपर्युक्त समर्थन में कोई दोष है बल्कि उसका मुख्य कारण यह है कि शिक्षक की योग्यता बहुत सीमित होती है। ऊपर हमने मिसाल दी है कि वस्तुओं के गर्मी से फैलने और सर्दी से सिकुड़ने के वैज्ञानिक सिद्धान्त को एक शिक्षक अपनी योग्यता की सीमा के कारण केन्द्रस्थ समवाय से नहीं पढ़ा सका, परन्तु जब उसने इस आइटम को पाठ्क्रम में निर्धारित पाया और पढ़ाना आवश्यक समझा और जब उसने इस आइटम के संदर्भ में केन्द्रीय विषयों को टटोला तो उसे बैलगाड़ी के पहिए में इस पाठ को पढ़ाने का उपयुक्त अवसर मिल गया। तो क्षेत्रस्थ समवाय शिक्षक की दृष्टि को पैनी बनाता है, उसके अनुभव को व्यापकता प्रदान करता है। अत: यह आवश्यक है कि केवल केन्द्रीय विषयों का जीवनक्रम ही निर्धारित न हो अपितु बौद्धिक अथवा क्षेत्रीय विषयों का भी पाठ्क्रम निर्धारित हो और शिक्षक केन्द्रीय विषयों को क्रमपूर्वक पढ़ाते या सिखाते समय बौद्धिक जानकारियों का उनमें समवाय करे चाहे बौद्धिक जानकारियां इस प्रकार के केन्द्रस्थ समवाय में उसी क्रम से न आवें जिस क्रम से वे बौद्धिक पाठ्यक्रम में निर्धारित हों और शिक्षक जब क्षेत्रीय अथवा बौद्धिक विषयों को क्रमपूर्वक पढ़ावे तब केन्द्रीय विषयों का उनसे उपयुक्त समवाय करे चाहे केन्द्रीय विषयों के आईटम इस क्षेत्रस्थ समवाय में उसी क्रम से न आवें जिस क्रम से वे केन्द्रीय विषयों के शिक्षाक्रम में रखे गये हैं। इस प्रकार केन्द्रस्थ और क्षेत्रस्थ समवाय की यह पारस्परिक प्रणाली ही बुनियादी शिक्षण पद्धति की समस्या को भली प्रकार हल कर सकती है।

वास्तव में क्षेत्रस्थ समवाय की मुख्य आवश्यकता इसलिए है कि शिक्षक पूर्ण ज्ञानी नहीं होता और न हो सकता है। इसके सिवाय प्रत्येक शिक्षक के अपने अपने विशेष प्रिय या फ़ेवरिट विषय भी होते हैं। उदाहरण के लिए एक शिक्षक भूगोल में अच्छा ज्ञान रखता है और इसमें उसे रुचि है परन्‍तु गणित में वह कमजोर है और गणित से उसे घृणा है। अब यदि कक्षा 4 में यह शिक्षक शिक्षण करता है और केवल केन्द्रस्थ समवाय ही की उसे अनुमति है तो आप पावेंगे कि इस शिक्षक द्वारा जो केन्द्रीय विषय पढ़ाये जायेंगे उनके माध्यम से वह बार बार भूगोल विषय पर आ जावेगा और केन्द्रीय विषयों के शिक्षण में गणित के शिक्षण की अच्छी से अच्‍छी संभावनाएं भी उसका ध्यान आकृष्ट नहीं कर सकेंगी। संत ने कहा है, ”मेरो मन अनत कहां सुख पावे? जैसे उडि जहाज को पंछी फिरि जहाज पै आवे।” तो जहाज का पंछी जिस प्रकार कुछ समय उड़ने के बाद पुन: जहाज पर ही आ बैठता है, उसी प्रकार हमारा उपर्युक्त शिक्षक बार बार भूगोल की शरण लेगा और इसमें उसका कोई दोष नहीं क्योंकि यह नितान्त स्वाभाविक है। इस कठिनाई को हम क्षेत्रस्थ समवाय द्वारा ही हल कर सकते हैं। क्षेत्रस्थ समवाय की मातहत गणित भी अपने तार्किक क्रम में पढ़ाया जायगा और गणित की मार्फत जिस केन्द्रीय विषय का जहां पर भी संयोग होगा किया जायगा। इसके लिए शिक्षक को दिमाग़ लगाना होगा और जब उसे जहां गणित की कोई संभावना या आवश्यकता नहीं दीख पड़ती थी वहीं केन्द्रीय विषयों में उसे गणित का सुअवसर सूझने लगेगा। इस प्रकार क्षेत्रस्थ समवाय शिक्षक की ख़ामियों को दूर करके उसकी समवायी योग्यता में वृद्धि करेगा।

इसके अतिरिक्‍त जो आक्षेप केन्द्रस्थ समवाय के विरुद्ध उठाये गये हैं (कि केन्द्रस्थ समवाय के अन्तर्गत जो बौद्धिक ज्ञान दिया जायगा वह श्रृंखलाबद्ध या सुव्यवस्थित न होगा बल्कि उसमें रिक्तियां रह जायेंगी, अथवा उसमें अभ्यास या ड्रिल की गुजायश नहीं है अथवा उसमें बौद्धिक ज्ञान की संभावनाएं एक सीमा के बाद समाप्त या नि:शेष हो जायेंगी) वे क्षेत्रस्थ समवाय के लिए लागू नहीं होते बल्कि उन सबका समाधान तथा निराकरण क्षेत्रस्थ समवाय की पद्धति से हो जाता है। परन्‍तु इससे कदापि यह नहीं समझा जाना चाहिए कि अकेला क्षेत्रस्थ समवाय केन्द्रस्थ समवाय के अभाव में काम दे सकता है अथवा उचित है। नहीं। न अकेला केन्द्रस्थ समवाय बुनियादी शिक्षण की समस्या को हल करेगा और न अकेला क्षेत्रस्थ समवाय, परन्‍तु दोनों की पारस्परिक प्रणाली से ही हम बुनियादी शिक्षण में समवाय की समस्या भली प्रकार हल कर सकते हैं।

पारस्परिक प्रणाली का दुहरा शिक्षण

यदि प्रस्तुत लेख का अभिप्राय ऊपर की पंक्तियों में स्पष्ट हो पाया है तो यह बात देख ली जायगी कि जिस शिक्षण पद्धति की यहां सिफ़ारिश की गयी है वह न केवल पारस्परिक प्रणाली है बल्कि दुहरी प्रणाली है। इस प्रणाली में जब केन्द्रीय विषय मुख्य होता है जब बौद्धिक बातें सहायक और पूरक रूप में बिना सिलसिले के समाविष्ट होती है और इस समावेश में यह आवश्यक नहीं है कि जो बातें आवें वे सब बौद्धिक पाठ्क्रम में पूर्वमेव निर्धारित हों बल्कि कुछ बातें पाठ्क्रम से बाहर की भी हो सकती हैं और इस प्रणाली में जब बौद्धिक विषय मुख्य रूप से तथा कर्मबद्ध रूप से सिखाये या पढ़ाये जाते हैं जब केन्दीय विषय सहायक या पूरक रूप में बिना सिलसिले के समाविष्ट होते हैं और इस तरह समावेश होने में शिक्षाक्रम से बाहर की कुछ बातें भी शामिल हो जाती हैं। इस प्रकार सारा शिक्षण स्वत: दुहरे रूप में पढ़ाया जाता है। अपनी अपनी जगह पर बारी बारी से बौद्धिक और क्रियात्मक दोनों ही विषय मुख्य और दोनों ही विषय गौण रूप से या पूरक रूप से सिखाये या पढ़ाये जाते हैं और इस प्रकार परम्परित शिक्षा प्रणाली की तुलना में बुनियादी शिक्षण बहुत ठोस और उच्च कोटि का होता है। प्रस्तुत लेखक ने समवाय की इसी पारस्परिक प्रणाली को कई वर्षों तक विद्याभवन बुनियादी मदरसा, उदयपुर में प्रयोग किया जिसका परिणाम संतोषजनक रहा। ऊपर से यह लगता होगा कि यह प्रणाली अधिक समय साध्य है और शंका उठती होगी कि इसमें सारे पाठ्यक्रम या शिक्षाक्रम के दुहरे शिक्षण की जो कल्पना है उसके लिए समय कहां से मिलेगा। परन्तु जब इस प्रणाली को व्यवहार में लाया जाता है जब यह प्रणाली समय की बरबादी करने वाली नहीं बल्कि समय की बचत करने वाली साबित होती है। समवाय शिक्षक के लिए रोड़ा नहीं है, वह शिक्षक के लिए मानों एक अतिरिक्त साथी है जो उसका काम हलका करता है।

क्षेत्रस्थ समवाय में सावधानी

क्षेत्रस्थ समवाय करते समय इस बात की सावधानी रखने की आवश्‍यकता है कि समवाय कृत्रिम न हो। ऊपर के उदाहरण के अनुसार यदि ”पृथ्वीराज चौहान और मुहम्मद गोरी का युद्ध” सोच विचार करने पर भी केन्‍द्रीय विषयों में उपयुक्त अवसर नहीं पा सके तो उसे जबर्दस्ती समवायित नहीं किया जाना चाहिए, कृत्रिम रूप से उसे केन्द्रीय विषयों पर नहीं थोपना चाहिए बल्कि उसे बिना समवाय के परम्परित पद्धति से पढ़ाना चाहिए और पढ़ाने के बाद विद्यार्थियों के सामने यह समस्या रखनी चाहिए कि इस पाठ का समवाय क्या होगा! शिक्षक को कहना चाहिए कि उसे इसका समवाय समझ में नहीं आया। यहां लज्जा या झेंप का कोई प्रश्न नहीं है। समवाय की जिम्मेदारी सदैव शिक्षक ही को नहीं उठानी है। विद्यार्थियों को समवाय करने की शिक्षा भी देनी है। अत: बिना समवाय भी यदि पढ़ाना एक मजबूरी बन जाय तो पढ़ाना चाहिए और कक्षा में स्वीकार किया जाना चाहिए कि इस पाठ का समवाय समझ में नहीं आया। तब मुमकिन है बच्चे समवाय ढूंढ लें, मुमकिन है बच्चे पृथ्वीराज का एक नाटक खेलें और उसे अपने सामाजिक जीवन में अभिव्यक्त करें और इस प्रकार यदि उद्योग से समवाय न हो तो सामाजिक जीवन से समवाय हो जाय।

या फिर जहां क्षेत्रस्थ समवाय द्वारा भी बौद्धिक पाठ्क्रम का कोई अदद समवायित न हो वहां शिक्षकों को मिल कर गंभीरता से सोचना चाहिए कि यह अदद वास्तव में इस कक्षा के विद्यार्थियों के पाठ्क्रम में स्थान पाने योग्य है या नहीं। यदि विचार करने पर कोई खास वजह समझ में आ जाय जिसके आधार पर उस अदद का पाठ्क्रम में रखा जाना उचित है तो फिर उसके औचित्य की वह ख़ास वजह ही समवाय की चाबी है और यदि उस अदद के लिए बालक के जीवन में औचित्य समझ में न आवे तो उस अदद को पाठ्यक्रम से निकाल दिया जाना चाहिये।

जो भी हो, समवाय को हम शिक्षण का अनुप्राण कह सकते हैं। समवाय शैक्षिक बीजों का अनुकरण है। जो बात पढ़ाई जाती है वह अपने में इतनी महत्वपूर्ण शिक्षा नहीं जितना कि उस बात का समवाय। आज मानव जीवन में खण्डखण्डता, बिखरापन, आंतरिक और बाह्य द्वन्द्वों का बोलबाला है। समवाय से ही जीवन में एकीकरण, सामंजस्य तथा समग्रता उत्पन्न होगी और समवाय से ही चरित्र का निर्माण होगा। समवाय द्वारा ही शिक्षा चरित्र में रूपान्तरित होती है। अत: शिक्षा में समवाय निष्ठापूर्वक सेव्य है जिसका एक कारगर उपाय समवाय की पारस्परिक प्रणाली के रूप में इस लेख में सुझाया गया है।

 

ABSTRACT IN ENGLISH

Reciprocal Method of Teaching Through Centrifugal and Centripetal Correlation

 

A Basic school teacher finds himself in a difficult situation when be attempts to teach through life experiences in a rigid imposed frame work of a syllabus and text books. The ideal way of practicing correlation would be to let teaching develop from life activities of pupils. This way of correlation may be called centrifugal correlation, as the central activities relating to the environments- physical, social and productive work are pursued as the main goal and educational attainment of school subjects comes in as a means of attaining that goal. We can regard the three environments as the nucleus or the centre of /Basic education and the school subjects as constituting its field. If we try correlation by treating the central activities as the means of attaining the goal of achievement in school subjects, we are attempting what may be called the centripetal correlation. The main problem before a teacher in centripetal correlation is how he can teach the prescribed syllabus in different subjects through the life activities.

Much can be said in favour of and against the two systems of correlation. The main doubts raised against centrifugal method of correlation are:- the knowledge gained through such a teaching is not systematic, there are not enough opportunities for drill and such teaching may result in gaps in knowledge. It can, however, be said that the desired order in human knowledge, sensible as it may be from the logical point of view, may be quite unpsychological for the child. It may be unfair to impose such a system of knowledge on the child. Similarly, drill work for its own sake, devoid of relevant context, may be quite meaningless, artificial and a waste of effort. The central question in this connection is whether knowledge and life are separate and independent entities. Basic education revolutionized thinking by intimately relating knowledge to action. From this point of view the vitality of centrifugal correlation is established. The purpose in the life activities should function as a magnet to attract and systematize into a pattern the various elements of knowledge.

The main idea behind centripetal system of correlation is that we should not confine knowledge merely to the verbal level, but it should be intimately related to action. It tries to liberalise the concept of correlation by presenting the possibility of bearing action on important aspects of knowledge. Centripetal system of correlation becomes meaningful when we consider the limitation of an ordinary teacher. Moreover, a teacher may tend to draw upon the matter of his favourite subject, if he does not keep into consideration the necessary portions of knowledge to be imparted to the child from other fields.

A better approach to correlation may be to regard these two methods as reciprocal and supplementary. Experience shows that this approach of a reciprocal method, utilizing the two approaches according to the needs, may go a long way in improving teaching in Basic Schools. While practicing centrifugal system of correlation one may guard against the possibility of degenerating correlated teaching into an artificiality. Whenever one finds that a particular item cannot be correlated naturally, one should think seriously if that is important for the pupils of that particular age. If it is found so, it may be taught without getting into the ritual of correlation. In short, correlation should be treated as the vitality of teaching. It should provide unity, integrity and totality to human life which is disintegrating by internal conflicts and external differences.