जिस प्रकार केवल वही पानी पानी नहीं है जो सरकार के नल जल विभाग से शहरी जनता के घरों में वितरित किया जाता है और कुओं में, नदियों में और तालाबों में या जंगल के किसी जल स्रोत में पाया जाने वाला पानी भी पानी ही होता है, उसी प्रकार वही शिक्षा, शिक्षा नहीं होती जो स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में होने के बाद प्रमाणपत्रित हो जाती है बल्कि वह शिक्षा भी शिक्षा ही होती है जो बिना स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय में भर्ती हुए कोई बालक-युवक या प्रौढ़ अपने घर में अपने समाज में या अपने भौतिक परिवेश में अपने या अपने परिवार के निर्वाह हेतु किये गये कर्म के भीतर से प्राप्त करता है। शिक्षा स्कूल की सीमाओं में कैद नहीं है, वह स्कूल के बाहर भी अनेकानेक साधनों एवं विधियों से होती है। साथ ही जैसे केवल वही धर्म धर्म नहीं होता जो किसी एक धर्म प्रवर्तक ने प्रवर्तित किया हो बल्कि बौद्ध, जैन, सिक्ख, ईसाई, मुस्लिम एवं हिन्दू ये सभी धर्म भी धर्म ही होते है, वैसे ही शिक्षा केवल स्कूलों में ही नहीं होती बल्कि हर परिस्थिति में जो बाते सीखी जाती हैं वे सभी बाते शिक्षा ही हैं।
वास्तविकता यह है कि जैसे ऑक्सीजन के बिना कोई जिंदा नहीं रह सकता है, उसी प्रकार शिक्षा प्राप्त किये बिना तथा सतत् रूप से शिक्षा प्राप्त करते रहने के बिना कोई भी मनुष्य अपने समाज एवं अपने भौतिक परिवेश में फिट होकर जी ही नहीं सकता। इसलिये देश में लगातार ऐसा भ्रम फैलाना कि स्कूल के भीतर ही शिक्षा है और स्कूल में गये बिना कोई भी इंसान शिक्षित हो ही नहीं सकता एक पाप है, एक घोर अपराध है। यह पाप यदि हमारे देश में धड़ल्ले से चल रहा है, तो कोई भी पाप केवल घड़ल्ले से चलने के आधार पर ही पुण्य में परिवर्तित नहीं हो सकता। भारतवर्ष के शासक, राजनीतिज्ञ, राजकर्मचारी, अधिकारीगण और मेरे जैसे बुद्धिजीवी लोग (यानी भौतिक श्रम से कुछ भी जीवनोपयोगी वाले उत्पादन से परहेज करके अपना गुजर-बसर करने वाले विशिष्ट वर्गीय लोग) यदि यह कहें कि जिसने शिक्षित होने का प्रमाणपत्र किसी कागज के टुकड़े पर किसी स्कूल से प्राप्त नहीं किया वह तो बस अशिक्षित ही है, वह अधिक्षित के सिवाय कुछ भी नहीं है और इसलिये वह मानवता के लिये, हमारे समाज के लिये तथा हमारे देश के लिये कलंक है तो उसमें आश्चर्य की कोई भी बात नहीं है।
एक तरफ तो हमारे देश में वर्तमान स्कूली व्यवस्था एवं स्कूली शिक्षा की भारी निंदा एवं आलोचना चल रही है और दूसरी तरफ बड़े-बड़े धुरंधर, आदरणीय विचारक लोग भी लगातार यही रोना रोते रहते हैं कि देश के इतने प्रतिशत लोग अशिक्षित एवं निरक्षर हैं और उन्हें भी वही वर्तमान दूषित एवं निंदनीय शिक्षा (जो आज के स्कूलों में दी जा रही है) जल्दी से जल्दी दे दी जानी चाहिये। समझ में नहीं आता कि इस विडंबना से हमारा देश कब मुक्त होगा। मुझे चिंता यह है कि इस दूषित स्कूली अपशिक्षा के अपूर्ण फैलाव ने भी जब हमारे देशवासियों की नैतिकताका विगत पचार वर्षों में इतना दिवाला निकाल दिया है कि हमारा देश भीतर ही भीतर आर्थिक दिवालियेपन का शिकार होकर अपनी राजनीतिक स्वाधीनता को खोखली बना चुका है, तो जिस दिन यही स्कूली शिक्षा सारे देश की जनता में शत प्रतिशत मात्रा में फैल जायेगी उस दिन इस देश की कैसी घोर दुर्गति होगी, क्या इसका कोई भी अनुमान उन लोगों कोहे जो चारों तरफ तथा आठों पहर इस बात का रोना रोते हैं कि भारत में शिक्षा एवं साक्षरता अभी तक सव्रव्यापी या सार्वजनीन या ”यूनीवर्सल” नहीं हुई है। उनको यह पता नहीं है कि –
”शिक्षा नाना रूप धारिणी, है खुद ही ”यूनीवर्सल”
”यूनीफार्म स्कूल यो नीं, है सार्वभौम शिक्षा रो हल।।”
अर्थात् शिक्षा का स्वरूप विराट है और वह सैंकड़ों रूपों में आज भी प्रत्येक मनुष्य को उपलब्ध है और जो केवल एक ही सांचे में ढली हुई है और एक ही स्वरूप की शिक्षा स्कूलों में उपलब्ध है उससे सार्वजनीन शिक्षा की समस्या का समाधान असंभव है।
शिक्षा को ही फैलाने का राग अलापते रहने के पहले जरा यह तो तय कर लें कि एक शिक्षित व्यक्ति की परिभाषा क्या है, एक शिक्षित व्यक्ति के लक्षण कैसे होते हैं। स्कूलों ने तो एक शिक्षित व्यक्ति की जो परिभाषा सुनिश्चित की है, क्या वह इस प्रकार नहीं है कि ”शिक्षित मनुष्य वही है जो हर प्रकार के उत्पादक हस्तोद्योग से पूरी तरह नफरत करे तथा परहेज करे, जो कृषक, गोपालक, मजदूर, कारगर बनने से नफरत तथा परहेज करे, जिसको झाड़ू लगाने, पानी भरने, चाय बनाने, अधर से उधर फाइलें तथा कागज पहुँचाने के लिये एक चपरासी श्रेणी का सहायक हर समय चाहिये, जिसको सादगी से संतोष नहीं हो सके और अपने ठाठ बाट में जो हर समय दूसरों की होड़ में लगा रहे, जिसकी भैतिक लालसाऍं इतनी बढ़ जायें कि उन लालसाओं के कारण अपनी नैतिक मर्यादाओं का पालन उसके लिये कठिन हो जाए और भ्रष्टाचार अपनाना जिससे एक मजबूरी बन जाये, उत्पादक परिश्रम का कोई भी अनुभव नहीं होने से और हर समय प्रतियोगिता की परिस्थिति में रहने से जिसकी मानवीय संवेदनशीलता कमजोर पड़ जाये, जो अपने वंशानुगत निजी पैतृक व्यवसाय को ठोर मारकर ”साहिबी” या हुकूमत के मोह एवं लोभ में नौकरी (यानी प्रच्छन्न दासता) अपनाने में अपना गौरव तथा अपनी महान सफलता एवं प्रतिष्ठा मानें जो अपनी वेशभूषा एवं भाषा से तथा समाज के जन सामान्य से भी कट करके, अंग्रेजी वेशभूषा एवं भाषा को अपनाने में ही शान तथा सफलता माने तथा जो इतना आत्मकेन्द्रित हो जाए कि उसे यह परवाह नहीं रहे कि उसके आचारण या उसके कर्मों का प्रभाव पूरे समाज पर तथा समस्त पर्यावरण पर अनुकूल पड़ेगा कि प्रतिकूल पड़ेगा” (मैं यहॉं ऐसा आरोप हरगिज नहीं लगा रहा हूं कि आधुनिक स्कूली शिक्षा पाने वाला प्रत्येक व्यकित निर्वावाद रूप से ऐसा ही बन जायेगा। मेरी दृढ़ मान्यता है कि वर्तमान दूषित स्कूली शिक्षा के बावजूद, कई शिक्षित लोग ऊपर लिखे हुए विकारों से मुक्त हैं। पर जो प्रभाव मनुष्य पर वर्तमान स्कूली-कालेजी-विश्वविद्यालयी शिक्षा द्वारा डाला जा रहा है, उसका सामान्य परिणाम तो ऐसे प्रदूषित मानस वाले मनुष्यों का निर्माण ही है।)
यदि शिक्षा सचमुच शिक्षा हो तो उसका परिणाम यह होना चाहिये कि मनुष्य अपने भरण पोषण के लिये उत्पादक परिश्रम द्वारा स्वावलम्बी बने, वह अपने साथियों के साथ प्रतिद्वन्द्विता या ईर्ष्या-द्वेश संबंध रखने के बजाय उनके साथ सम्बेदना, सहयोग एवं मैत्री का संबंध रखे, जो ऐसा कर्म करे या ऐसा व्यवहार करे कि उसकी वजह से समाज में गड़बड़ी या हानि न हो और उसकी वजह से पर्यावरण में प्रदूषण नहीं फैले यानि शिक्षित व्यक्ति के आचरण से व्यष्टि एवं समष्टि के बीच सामंजस्य पैदा हो। यदि मनुष्य सचमुच शिक्षित होगा तो वह खरी कमाई करके ईमानदारी की रोटी खायेगा तथा भ्रष्टाचार से बचेगा। जो व्यक्ति वास्तविक रूप से अपने अंत:करण को कुंठित या मूर्च्छित या विरस्कृत नहीं होने देगा और बिना किसी चौकीदार या पहरेदार की निगरानी के ही स्वयं अपनी मर्यादाओं का पालन करेगा। जो वास्तव में सही रूप से शिक्षित होगा वह जनसामान्य वर्ग में भी खुशी से बना रहेगा तथा वह धन्धों या कर्म व्यवसायों के बीच ऊँच नीच नहीं मानेगा बल्कि जो भी कर्म व्यवसाय परिस्थिति के अनुसार उसे मिल जायेगा वह उसी धंधे या कर्म व्यवसाय को ईमानदारी तथा निष्ठापूर्वक करेगा तथा उसमें निपुणता एवं उत्कृष्ठता का स्तर प्राप्त करने की साधना करेगा।
मैं यह दावा तो नहीं कर रहा हूँ कि जो लोग साक्षर हैं, खूब पढ़-लिखे विद्वान् हैं या इंजीनियर, डॉक्टर, प्रोफेसर, मैनेजर, एडमिनिस्ट्रेटर, जज, कलैक्टर, वकील वगैरह हैं वे तो सब के सब खोटे तथा भ्रष्ट हैं और न मैं यह दावा कर रहा हूँ कि जो लोग निरक्षर हैं और जिन्होंने स्कूली शिक्षा नहीं पायी है वे सबके सब दूध के धुले, पुण्यात्मा है। लेकिन मैं यह जरूर मानता हूँ कि आज हमारे देश में वे लोग देश का ज्यादा भार वहन कर रहे हैं जो निरक्षर हैं तथा स्कूलों में नहीं भरती हुए हैं। देश में जो अन्न, दूध, साग, सब्जी, फल पैदा हो रहे हे, देश में जो सड़कें बन रही हैं, उनकी पीछे अस्कूलित निरक्षर लोगों की शक्ति एवं भूमिका अपेक्षया अधिक है। ये अस्कूलित निरक्षर लोग इतने भ्रष्टाचारी नहीं हैं जितने भ्रष्टाचारी, कामचोर, बल्कि हरामखोर लोग हमारे तथाकथित शिक्षित वर्ग में पाए जाते हैं। पर्यावरण को प्रदूषित करने में किन लोगों की भूमिका ज्यादा है1 स्कूलों में शिक्षित साक्षर लोग आज पर्यावरण को प्रदूषित करके पृथ्वी को संकट में डालने में अग्रणी हैं या स्कूलों के प्रभाव से बचे हुए निरक्षर लोग इस पर्यावरण को ज्यादा प्रदूषित कर रहे हैं। साथ ही एक सीधा-सादा सवाल यह है कि कौन लोग तो देश में उत्पादन करने के बाद ही थोड़ा उपभोग कर रहे हैं और कौन लोग बिना उत्पादन किये ही अधिक उपभोग कर रहे हैं। और इसी के साथ जुड़ा हुआ एक सवाल यह भी है कि कौन लोग संगठित होकर और हड़तालें करके अपने वेतन भत्ते बढ़वा रहे हैं और कौन लोग बिना हड़ताल किये जो भी मिल रहा है उसी में सब्र से गुजारा कर रहे हैं। कौन लोग हैं जिन्हें केवल अट्ठावन या साठ साल तक की आयु तक ही काम करना पड़ता है और बाद में जिन्हें बिना काम किये ही अपने गुजारे के लिये ग्रेच्यूटी तथा पेंशन मिलती है और कौन लोग हैं जिन्हें कोई भी सवेतन छुट्टी नहीं मिलती तथा बुढ़ापे में भी जिन्हें बिना काम किये रोटी नहीं मिलती। इन प्रश्नों के जो जवाब हैं वे निर्विवाद हैं और उनसे स्पष्ट हो जाएगा कि जो निरक्षर एवं अस्कूलित लोग हैं वे देश पर उतने भार रूप नहीं हैं जितने भार रूप साक्षर एवं स्कूलित लोग हैं।
जो मैकालेवादी अपशिक्षा इस देश मं चलाई जा रही है उसके दोषों को नहीं सुधारना तो एक राष्ट्रीय अपराध है ही पर उस एक राष्ट्रीय अपराध के ऊपर दूसरा राष्ट्रीय महा अपराध यह है कि जिसे देखो वही इसी अपशिक्षा को सार्वजनीन बनाने पर तुला हुआ है और इस प्रकार से तुला हुआ है मानो वही सबसे बड़ा देशभक्त हो तथा बेचारे गरीबों निरक्षरों एवं अशिक्षितों का उद्धारक एवं मसीहा केवल वही हो। इसके अलावा तीसरा महा अपराध इस देश में ऐसी भ्रांति फैलाने का है कि यदि शिक्षा कहीं है तो स्कूल ही में है जब कि सत्य यह है कि शिक्षा जितनी तथा जितनी अच्छी स्कूल के बाहर है उतनी तथा उतनी अच्छी स्कूल के भीतर नहीं है।
हमारे संविधान की धारा 45 में केवल इतना ही लिखा गया है कि स्कूली शिक्षा मुफ्त, सार्वजनीन तथा 6 से 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिये अनिवार्य होनी चाहिये। मेरी विनम्र सम्मति में यह धारा यदि गलत नहीं है तो भी अपूर्ण एवं भ्रामक तो अवश्य है क्योंकि इसमें सही शिक्षा की कोई परिभाषा नहीं दी गई है और इसलिये सरकार को शिक्षा के नाम पर उसी दूषित मैकालेवादी शिक्षा को फैलाने की छूट मिल गयी है जो आजादी की प्राप्ति होते ही सन् 1947 में ही बदल दी जानी चाहिये थी। गॉंधी जी ने भारत की गुलामी को पुष्ट करने वाली इस मैकालेवादी शिक्षा को बदलने के लिये बुनियादी शिक्षा की योजना आजादी के दस वर्ष पूर्व ही प्रस्तुत कर दी थी। तो शायद संविधान की धारा 45 के पीछे मान्यता यह रही होगी कि गांधीजी द्वारा प्रतिपादित शुद्ध शिक्षा ही इस धारा 45 के अन्तर्गत फैलाई जायेगी। संविधान निर्माताओं को पता नहीं था कि इस धारा का दुरुपयोग उसी अशुद्ध मैकालेवादी शिक्षा का प्रसार करने में लगातार किया जाता रहेगा। बस इसी भोलेपन में संविधान निर्माताओं ने धारा 45 के साथ साथ स्वाधीनता पोषक नयी शिक्षा की परिभाषा भी संविधान में जोड़ने की आवश्यकता नहीं समझी होगी। वरना वे इस धारा में स्वाधीन भारत के लिये अनुकूल नवीन शिक्षा का स्वरूप भी परिभाषित कर देते।
जब किसी स्त्री की किसी निहायत गलत आदमी से शादी हो जाती है तो वह दुखी होकर अंत में यों बोलती है कि ऐसी शादी से तो मैं कुंवारी ही बेहतर रहती। उसी प्रकार मेरा यह विचार है कि ऐसी गलत स्कूली शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने से तो जनता को बिना स्कूलों के अपने हाल पर छोड़ देना ही बेहतर है। जैसे सवेरा तो वहॉं भी होता ही है जहॉं कोई मुर्गा बांग न दे, उसी प्रकार शिक्षा तो वहॉं भी होती है जहाँ मैकालेवादी सरकारी स्कूल नहीं होते। मेरी मान्यता के अनुसार’
”है मनुज जीवन प्रक्रिया जग में स्वत: शिक्षामयी।
जीवन बिना शिक्षा नहीं, शिक्षा बिना जीवन नहीं।।”
इन मैकालेवादी सरकारी स्कूलों का प्ररारंभ हुए तो लगभग डेढ़ सौ वर्ष हुए हैं, पर मानव इतिहास में शिक्षा एवं व्यवस्था तो हजारों वर्षों से होती आ रही है। प्रजा इन हजारों वर्षों में हमेशा शिक्षा के विषय में स्वायत्त एवं आत्मनिर्भर रही। विदेशी ब्रिटिश राज से पहले जनता ने कभी भी सरकार से शिक्षा को भिक्षा के रूप में नहीं मांगा। राजा तथा गुरू दोनों का अपना अपना अलग आसन प्रजा के बीच में था। गुरू के आगे राजा अवश्य नमन करता था पर गुरू कभी भी सरकारी कर्मचारी बनने की हीन स्थिति का आकांक्षी नहीं बना। गुरू में अपनी तेजस्विता अपनी अस्मिता थी। मैकाले ने भारत को गुलाम बनाने के लिय, भारतीय गुरू की उस तेजस्विता एवं अस्मिता को समाप्त करने के लिये ही शिक्षक को राजकर्मचारी के रूप में नीचे गिराया। आजाद भारत की सरकार ने भी शिक्षक को पुन: प्राचीन गुरू के उच्चासन पर बैठाने का साहस नहीं किया। नतीजा यह रहा कि शिक्षा नाम से तो शिक्षा बनी रही, पर शिक्षा का खरापन, शिक्षा की तेजस्विता जाती रही। शिक्षा फैलती गयी और देश का नैतिक स्तर गिरता गया और यह क्रम आज भी जारी है।