प्रौढ़ शिक्षा के नये क्षितिज

बदलती प्रौढ शिक्षा की अवधारणा

सर्व प्रथम मुझे यह कहना है कि इस देश एवं इस शताब्‍दी में ‘प्रौढ़ शिक्षा’ का जो विचार पैदा हुआ और पनपा उसके मूल में मान्‍यता यह थी और यह लगातार बनी रही कि जो लोग किसी भी कारण से अपने बाल्‍यकाल में स्‍कूली शिक्षा से वंचित रह गए हैं, वे अपने जीवन में एक बड़ी सुविधा या लाभ से वंचित रह गए हैं और जो लोग स्‍कूली शिक्षा प्राप्‍त करने वाले सौभाग्‍यशाली हैं, उनका फर्ज है कि स्‍कूली शिक्षा से वंचित प्रौढ़ों को भी उस शिक्षा का कुछ लाभ, (खासकर लिखने-पढ़ने ओर साधारण हिसाब-किताब करने की योग्‍यता) देने का प्रयत्‍व करें। मान्‍यता यह थी कि यों तो शिक्षा बाल्‍यकाल से ही संबंध रखती है और यों तो शिक्षा का कार्य स्‍कूलों के भीतर ही होता है, फिर भी दुर्भाग्‍य से जो व्‍यक्ति बाल्‍यकाल में शिक्षा की प्राप्ति हेतु स्‍कूल में नहीं रह सका, उसे बाल्‍यकाल के बीत जाने पर भी स्‍कूल बाहर भी वही शिक्षा प्रसाद यथा संभव बॉंटा जसय जिसका मूल स्रोत स्‍कूल है। मैं किसी और को दोष नहीं दूँगा क्‍योंकि जब सन् 1965 में डॉ; मोहनसिंह मेहता की इच्‍छानुसार सेवामंदिर में प्रौढ़ शिक्षा का काम शुरू किया तो मैं खुद प्रौढ़ शिक्षा की इसी अवधारणा को मान कर चला था। उससे पूर्व सन् 1945 के आसपास विद्याभवन के बुनियादी विद्यालय के पड़ौस में एक गांव में मैंने स्‍वयं प्रौढ़ शिक्षा का काम किया तो मैं शिक्षा की इसी ‘बाल्‍यकालवादी’ एवं ‘स्‍कूलवादी’ अवधारणा से ग्रस्‍त था। मुझे तब इस बात का ज्ञान नहीं था कि शिक्षा जितनी स्‍कूल एवं बाल्‍यकाल में है उससे कहीं ज्‍यादा वह बाहर है।

पर सेवा मंदिर में प्रौढ़ शिक्षा का काम करने के बाद अपने प्रतयक्ष अनुभवों के आधार पर मेरे विचारों में बहुत बदलाव आ गया और धीरे-धीरे आज जिस तरह हमारा सरकारी तंत्र प्रौढ़ शिक्षा को कोरी साक्षरता में और साक्षरता को भी अंगूठा लगाने के बजाय हस्‍ताक्षर करने की योग्‍यता में बदलने हेतु अंधा-धुंघ करोड़ों रुपया उंड़ेलता जा रहा है (ताकि देश के सब तरह से उजले भाल पर से निरक्षरता का काला कलंक मिट सके) उससे प्रौढ़ शिक्षा के बारे में मेरे विचारों को बहुत बदल दिया है और आज मैं ऐसा मानता हूँ कि हमें आज प्रौढ़ शिक्षा उन प्रौढ़ों की पहले करनी चाहिए जो बाल्‍यकाल में स्‍कूली शिक्षा प्राप्‍त करके अपनी मानसिकता को इतनी ज्‍यादा विकृत एवं प्रदूषित कर चुके हैं कि जिनकी निर्लज्‍ज भ्रष्‍टता, जिनकी कामचोरी और मुफ्तखोरी, जिनकी शेखी और शान-शौकत, जिनकी अतर्पणीय तृष्‍णा और असीम भोगलिप्‍सा की वजह से इस देश की स्‍वाधीनता, इसके लोकतंत्र एवं इसकी आर्थिक मजबूरी का बंटाढार हो रहा है। मनुष्‍य जैसा अनमोल प्राणी बढ़ती आबादी के रूप में आज हमारी निकम्‍मी अर्थात् कर्महीन स्‍कूली बाल शिक्षा के कारण सौभाग्‍य के बजाय दुर्भाग्‍य अथवा ‘ऐसट’ के बजाय ‘लायबिलिटी’ बनता जा रहा है। मेरा मूल प्रश्‍न यह है कि क्‍या हमारी आज की स्‍कूल शिक्षा वास्‍तव में वही चीज है कि जिसे हम शिक्षा का पावन नाम दे सकें और जिसने उस शिक्षा को बचपन में प्राप्‍त नहीं किया उसे हम अशिक्षित कह सकें। साथ ही मेरा दूसरा प्रश्‍न है कि क्‍या असली मानवी शिक्षा अंकाक्षरी विद्या की जेल में कैद करके रखी हुई है? हम किस आधार पर और कौन सी कसौटी पर कसने के बाद यह दावा करते जा रहे हैं कि जो अस्‍कूलित एवं निरक्षर हैं वह तो अशिक्षित है और जो स्‍कूलित एवं साक्षर हैं वह शिक्षित हैं? क्‍या यह हमारी ‘आत्‍ममुग्‍धता’ या हमारा ‘नारसियिज्‍म’ नहीं है कि हम अपने-आपको तो शिक्षित मानते हैं और जो निरक्षर एवं अस्‍कूलित होते हुए भी देश की आबादी के भरण-पोषण हेतु उत्‍पादक कला-कौशल एवं परिश्रम में लीन हैं उन्‍हें हम अशिक्षित मानते हैं?

निरक्षर-साक्षर का भेद छोड़कर समस्‍त प्रौढ़ों की सम्‍यक् शिक्षा-

तो मेरा सुझाव यह है कि प्रौढ़ शिक्षा का यह अर्थ अब दफना दिया जाना चाहिए कि जो लोग बचपन में स्‍कूली प्रक्रिया से गुजरे बिना ही प्रौढ़ हो गए हैं उन प्रौढ़ रूपी ‘नादानों’ की विलंबित यत्किंचित् शिक्षा का नाम प्रौढ़ शिक्षा है। अब प्रौढ़ शिक्षा का मतलब तथा मकसद यह होना चाहिए कि स्‍कूलों में जो दूषित शिक्षा लोगों ने बाल्‍यकाल में मोहवश ग्रहण कर ली है उसके नशे का और उसके प्रभाव को यथासंभव घटाकर मनुष्‍य को चारित्रिक, नैतिक एवं आध्‍यात्मिक दृष्टि से पुन: स्‍वस्‍थ करने का प्रयत्‍न किया जाए। प्रौढ़ शिक्षा का मूल काम आज यही है कि देश के समक्ष प्रौढ़ों को यह समझाया जाय कि मानव की सही शिक्षा कहते किसे है, उस सही शिक्षा का स्रोत क्‍या है, उसका स्‍वरूप क्‍या है, जीवन में उसका प्रयोजन क्‍या है? शिक्षा कोई विशेषज्ञों की थीसिस का या बी.एड्., एम.एड्. की उपाधियों का विषय नहीं है बल्कि आटे-दाल की तरह रह मनुष्‍य के जानने का विषय है। खुराक शुद्धि जिस प्रकार एक सार्वजनिक विषय है, वैसे ही शिक्षा रूपी खुराक यह तो शुद्ध एवं सात्विक हो, यह भी प्रत्‍येक मानव के जानने एवं मनन करने का विषय है। साथ ही यह विषय प्रौढ़ों का है क्‍योंकि शिक्षा के स्‍वरूप का नियंत्रण प्रौढ़ माता-पिता, प्रौढ़ मंत्री और प्रौढ़ अधिकारी करते हैं न कि बालक। बेचारा बालक तो असहाय है– उसी प्रक्रिया में से गुजरने की दृष्टि से कि जिसका निर्धारण प्रौढ़ करते हैं। इसलिए प्रौढ़ शिक्षा का मूल काम यह बताना है कि सही मानव शिक्षा और गलत मानव शिक्षा का अन्‍तर क्‍या है? इस प्रश्‍न का सही उत्‍तर पाने के लिए हमें और गहरे उतर कर यह प्रश्‍न करना होगा कि मानव जीवन की वास्‍तविक मंजिल या मानव जीवन का वास्‍तविक साध्‍य क्‍या है? क्‍या सरकारी कुर्सी मानव जीवन का चरम लक्ष्‍य एवं सार्वजनीन ध्‍येय है? क्‍या उत्‍पादक देय श्रम से मुक्ति पाकर संयमहीन-सीमारहित उपभोग मानव-जहीवन की सर्वोच्‍च सफलता की कसौटी है? शिक्षा तो साधन मात्र है जो मनुष्‍य जाति को उसके चरम अथवा परम लक्ष्‍य की प्राप्ति में सहायता करे। तो प्रौढ़ शिक्षा का मूल काम है मानव जीवन के चरम लक्ष्‍य के बारे में गहन चिंतन करके उस चरम मानव लक्ष्‍य में मददगार होने वाली शिक्षा का देश में प्रचार-प्रसार करना। आज के बेचारे वेतनदास टीचरों या बच्‍चों में गलत शिक्षा के प्रति विद्रोह करने की क्षमता नहीं है। प्रौढ़ माता-पिताओं को ही आज समझाना है कि भगवान ने उन्‍हें जो संतान दी है, उसका अर्थ एवं लक्ष्‍य क्‍या है? जीवन आत्‍म-शुद्धि के लिए मिलता है या केवल सत्‍ता की दीर्घा में कुर्सी की प्राप्ति के लिए समूचे बाल्‍यकाल एवं यौवन को झौंक देने के लिए? और आगे प्रौढ़ों से यह चर्चा की जानी चाहिए कि यदि शिक्षा गलत होने दी गई तो जीवन का मूल लक्ष्‍य ही गड़बड़ा जायगा और जब जीवन का मूल लक्ष्‍य ही गड़बड़ा जायेगा तो प्रकृति का सुतुलन भी बिगड़ जायगा जैसा कि आज बिगड़ रहा है।

मूल बात तो यह है कि प्रौढ़ शिक्षा की धुरी जब तक सही नहीं होगी तब तक बाल शिक्षा की विकृति हरगिज भी नहीं मिटेगी। आज की प्रौढ़ शिक्षातो आज की दूषित बाल शिक्षा को गलत वकालत और विज्ञापनबाजी की भूमिका निभा रही है। पर आज का उसका असली कर्तव्‍य तो इससे ठीक उल्‍टा है। प्राचीन भारत में निर्भीक, उदात्‍त और ठोस मार्गदर्शन की जो भूमिका तपस्‍वी ऋषि-मनियों अथवा संतों की थी, वहीं भूमिका आज प्रौढ़ शिक्षा की होनी चाहिये और प्रौढ़ शिक्षा के इस सम्‍मेलन अथवा अधिवेशन को यह नई नीति घोषित करने का साहस करना चाहिए कि राष्‍ट्र के प्रधानमंत्री और शिक्षा मंत्री को या प्रदेश के शिक्षा मंत्री या शिक्षा निदेशक को, या जिले के कलेक्‍टर को या किसी सांसद का विधायक को भी जिसे प्रौढ़ शिक्षा की जरूरत है, उसे भी वह प्रौढ़ शिक्षा दी जाएगी। इस अधिवेशन के बाद प्रौढ़ शिक्षा की यह अवधारणा दफना दी जानी चाहिये कि केवल अस्‍कूलित एवं निरक्षर प्रौढ़ ही हमारी शिक्षा का एक मात्र लक्ष्‍य अथवा ‘टार्गेट’ है। स्‍कूलित-अस्‍कूलित का तथा साक्षर-निरक्षर का भेद भुलाकर समस्‍त अमीर-गरीब, समस्‍त सत्‍ताधारी एवं सत्‍तावंचित, समस्‍त डिग्रीधारी विद्वान एवं सामान्‍य किसान आदि की प्रौढ़ावस्‍था की शिक्षा का नाम काम प्रौढ़ शिक्षा का होना चाहिए। प्राचीन भारत में ऋषियों, मुनियों, संतों तथा साधुओं का मूल काम था प्रौढ़ शिक्षा और उनकी प्रौढ़ शिक्षा में बिना किसी भेद भाव के समस्‍त गृहस्‍थ प्रौढ़ स्‍त्री पुरुष समान रूप से शिक्षार्थी थे चाहे वे प्रौढ़ साक्षर हों या निरक्षर हों, चाहे वेधनी या गरीब हों, चाहे वे राजा हों या रंक हों। तो हमें ‘गरीब की जोरू ही को बेचारों की भाभी’ बनाने का, यानी निरक्षर ही को प्रौढ़ शिक्षा देने का, अपना दंभ त्‍याग कर उन पापियों की प्रौढ़ शिक्षा पर अपना ध्‍यान केन्द्रित करना चाहिए जो स्‍कूल ही की नहीं, बल्कि विश्‍वविद्यालयों की डिग्रियॉं धारण करते हुए कामचोरी, मुफ्खोरी एवं भ्रष्‍टाचार में कोई लज्‍जा अनुभव नहीं करते। हम प्रौढ़ शिक्षा वालों ने इन साक्षर स्‍कूलित पापियों को प्रौढ़ शिक्षा से क्‍यों ‘एक्‍जेम्‍प्‍ट’ अथवा बरी कर रखा है, इस प्रश्‍न पर हमें गंभीरता से सोचना है।

‘वयस्‍क’ या ‘एडल्‍ट’ के बजाय ‘परिपक्‍व’ यानी मैच्‍यौर की शिक्षा-

प्रौढ़ दो दृष्टियों से प्रौढ़ माना जा सकता है, एक तो आयु की ही दृष्टि से जिसके लिए हिन्‍दी में वयस्‍क और अंग्रेजी में एडल्‍ट शब्‍द है। पर दूसरी दृष्टि है अनुभवों की परिपक्‍वता की जिसके लिए अंग्रेजी शब्‍द है ‘मैच्‍योर’ या ‘मैच्‍योरिटी’। आज की प्रौढ़ शिक्षा प्रौढ़ को ‘वयस्‍क’ यानी ‘एडल्‍ट’ ही मानती है, उसे वह ‘अनुभवी प्रौढ़’ अथवा ‘मैच्‍योर’ नहीं मानती। मेरी मान्‍यता अब यह है कि हमें प्रौढ़ को अनुभवों के लिहाज से प्रौढ़ मानकर के यानी उसको ‘मैच्‍योर’ मानकर के उसको शिक्षण देना चाहिए। तो इस दृष्टि से जो ‘एडल्‍ट’ एज्‍यूकेशन अथवा ‘वयस्‍क शिक्षा’ हम आज कर रहे हैं उससे हटकर हमें अब ‘मैच्‍योर एज्‍यूकेशन’ पर यानी अनुभवों की दृष्टि से जो इंसान प्रौढ़ हो चुका है उस प्रौढ़ की शिक्षा पर आ जाना चाहिए। कृपया ध्‍यान दीजिए कि जिस शिक्षा को हम प्रौढ़ शिक्षा का नाम देते हैं उसमें दर असल हम पढ़ाते क्‍या है? हम पढ़ाते हैं– बस ‘क ख ग घ’ तथा ‘एक दो तीन चार’। यानी जो बच्‍चों की प्राथमिक अथवा ‘एलीमेंटरी’ शिक्षा है उसे ही हमने प्रौढ़ शिक्षा का नाम दे रखा है। तो यह प्रौढ़ों के साथ हमारा एक मजाक या खिलवाड़ मात्र है क्‍यों कि असली जरूरत तो परिपक्‍वता की अथवा मैच्‍योरिटी की शिक्षा की है एडल्‍ट एज्‍यूकेशन के चक्‍कर में देश से परिपक्‍व शिक्षा अथवा ‘मैच्‍योर एज्‍यूकेशन’ का लोप होगया है। भारतीय संस्‍कृति के अनुसार जीवन की परिपक्‍वता या मैच्‍योरिटी की शिक्षा ही सर्वोच्‍च शिक्षा है। मानव जाति का कल्‍याण इसी शिक्षा में निहित है। ऐसा मानकर हमें वयस्‍क शिक्षा अथवा एडल्‍ट एज्‍यूकेशन के इस संकीर्ण गड्ढे से निकलकर अब परिपक्‍वता अथवा मैच्‍योरिटी की शिक्षा के व्‍यापक क्षेत्र को अपना साधना क्षेत्र एवं कर्म-क्षेत्र बनाना चाहिए। स्थिति आज ऐसी जकड़ गई है कि इस प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र को छोड़कर शिक्षा का एक भी कोना ऐसा नहीं बचा है जिसमें नए प्रयोगों की थोड़ी भी गुजाइश हो। ब्रिटिश पराधीनता एवं सामंती राज में भी शिक्षा में स्‍वतन्‍त्र नवाचार की जितनी गुजाइश थी, उतनी आज स्‍वतन्‍त्र भारत में भी नहीं बची है। तो देश की शिक्षा के उद्धार का समस्‍त भार आज प्रौढ़ शिक्षा पर ही आ पड़ा है। यह एक महान् चुनौती है। पर इसे कृपया इस दृष्टि से देखिए कि यदि देश की वर्तमान स्‍कूली शिक्षा को (जो कि न केवल मैकालेवाद से दूषित है बल्कि उस शैक्षिक उत्तमता की निष्‍ठा से भी वंचित है जो ब्रिटिशकालीन शिक्षकों एवं प्रोफेसरों में थी) बिना बदले ही उसे जबरन सार्वजनीन बनाकर समस्‍त जनता को पिला दिया गया तो इस देश का होगा क्‍या? इस देश की संस्‍कृति का क्‍या होगा, इस देश के चरित्र का क्‍या होगा, इस देश की नैतिकता का क्‍या होगा, इस देश के आर्थिक ऋणभार का क्‍या होगा और अंत में उस आजादी का क्‍या होगा कि जिसके लिये भोले लोग इतनी तपस्‍या एवं कुरबानी करके चले गये।

उपसंहार-

यदि सम्‍यक् प्रौढ़ शिक्षा द्वारा (यानी परिपक्‍वता अथवा मैच्‍योरिटी की शिक्षा द्वारा) इस देश की स्‍थानीय लोकवाणियों में निहित लोक संस्‍कृति के खजानों को नहीं बचाया गया, कृषिकर्मियों की कृषि निष्‍ठा, गोपालाकें की गोनिष्‍ठा, हजारों प्रकार की कारीगरी तथा कला में दक्ष कारीगरों एवं कलाकारों की कला निष्‍ठा को नहीं बचाया गया, यिद आत्‍मशुद्धि की साधना के बदले कुर्सी एवं साहिबों में निहित नौकरवृत्ति ही जीवन की सर्वोच्‍च साधना बन गई तो इस देश का होगा क्‍या? इसकी चिंता का दायित्‍व प्रौढ़ शिक्षा का है।