शिक्षा का मूल दायित्व किसी भी समाज या किसी भी काल में क्या है। क्या शिक्षा को केवल इतना ही करना है कि जैसा भी समाज हो और जैसा भी जमाना हो, उस समाज एवं उस जमाने में सुविधा एवं कुशलता पूर्वक अपने आपको मोड़ने एवं जमाने में शिक्षालय से निकलने वाले छात्र को तैयार और सक्षम बना दिया जाए। अथवा शिक्षा को यह देखना एवं प्रयत्न करना है कि समाज और जमाने में आज जो समस्याऍं और विकृतियॉं है, उन्हें दूर करने की दृष्टि से छात्रों को समर्थ एवं समर्पित करने का प्रयत्न भी किया जाए। यह एक खुला प्रश्न है और अति महत्वपूर्ण, विचारणीय प्रश्न है। यदि इस प्रश्न पर भी हम गहराई से चिंतन एवं विचार-विमर्श करें तो हम बुनियादी शिक्षा की उपयुक्तता का निर्णय करने में मदद पा सकते हैं।
समाज के दो आधारस्तंभ हैं जो एक दूसरे के पूरक हैं। एक आधार स्तंभ शिक्षक हैं और दूसरा आधारस्तंभ शासक है। समाज तभी ठीक से चल सकता है जब ये दोनों स्तंभ अपनी अपनी भूमिका ठीक से निभावें। शिक्षक की भूमिका में एक आदर्शवाद, एक संशोधनवाद या सुधारवाद प्रमुख है और यथास्थिति से शिक्षित विद्यार्थी के समायोजन या उसकी पटरी बैठाने की बात गौण है। इसके विपरीत शासक की भूमिका प्रमुखतया यह है कि समाज की जिस समय जैसी भी (अच्छी या बुरी) स्थिति हो, उसके साथ शिक्षित व्यक्ति अपनी पटरी, सुविधा एवं दक्षता से बैठा सके। शासक की एक गौण भूमिका यह भी है कि समाज में जो विकृतियाँ जब भी हों, उन्हें दूर करने का प्रयत्न किया जाए।
समाज के ये दोनों ही स्तंभ अपनी अपनी भूमिका ठीक से निभाऍं, इसके लिए यह जरूरी है कि इन दोनों ही स्तंभों को अलग अलग रखा जाए और दोनों में अपनी अपनी शक्ति या सामर्थ्य हो। पर आज शिक्षा की स्थिति यह है कि शिक्षा के भीतर या शिक्षा की निजी प्रक्रिया में स्वाभाविक एवं सहज दमखम का नितांत अभाव है। स्कूलों या कॉलेजों में कोई भी अंतर्निहित दम नहीं है। शिक्षा आज जो चल रही है वह या तो सरकारी पैसे के बल पर या फिर माता-पिता के धन के बल पर चल रही है। आज की शिक्षा में उद्यम एवं परिश्रम द्वारा एक अंतर्निहित बल या तेज या दम की साधना लेशमात्र भी नहीं है। शिक्षा ने सरकारी या कौटुम्बिक धन के आगे पूर्णतया आत्मसमर्पण कर रखा है अथवा घुटने टेक रखे हैं। गुरुकुलों का मंत्र था ”तेजस्विनावधीतमस्तु” (अर्थात् हम अपनी शिक्षा द्वारा तेजस्विता प्राप्त करें)। मतलब यह कि हम परिस्थिति के आगे घुटने टेकने वाले ही नहीं बनेंगे बल्कि किसी अंश में अपने अंत:करण को अक्षत रखने के लिए टिकने या खड़े होने की भी हमारी तैयारी एवं शक्ति होगी। शिक्षा जमाने के अनुसार हमें ढाल दे यह शिक्षा का एक ही पक्ष है जिसे हम निपुणता या कुशलता का नाम दे सकते हैं। पर यह शिक्षा का केवल एक पहलू अथवा उसका अर्धांग मात्र है। उसका दूसरा पहलू या उसका अर्धांग है ”नैतिकता” का। तो शिक्षा के सही मायने में होने की ये दोनों कसौटियॉं हैं। शिक्षा से छात्र को निपुणता एवं नैतिकता दोनों शक्तियॉं प्राप्त होनी चाहियें।
तो प्रथम विचारणीय प्रश्न तो यह है कि क्या हमारी सरकारी स्कूली अथवा इंगलिश मीडियम वाली गैर सरकारी शिक्षण संस्थाऍं निपुणता एवं नैतिकता, दोनों ही अंगों की समुचित शिक्षा दे रही हैं अथवा वर्तमान शिक्षा सर्वथा राजकीय अथवा पारिवारिक धन पर आश्रित होकर केवल निपुणता ही प्रदान करके रह जाती है और नैतिकता वाला पक्ष आज बस अप्रासंगिक एवं उपेक्षित होकर रह गया है यदि हम मानते हैं कि वर्तमान शिक्षालय दोनों ही पहलुओं पर पूरा पूरा ध्यान दे रहे हैं तो बस, जो चल रहा है वही ठीक है। पर यदि हमारा मत यह है कि देश की वर्तमान प्रचलित शिक्षा केवल निपुणतांगी ही है और उसका नैतिकतांग उपेक्षित है तो सवाल उठेगा कि इस शिक्षा में किस तरह का परिवर्तन लाया जाए और उसी स्थिति में यह सवाल भी उठाया जा सकेगा कि वर्तमान शिक्षा के विकल्प के रूप में क्या गांधी द्वारा प्रतिपादित बुनियादी शिक्षा, शिक्षा के इन दोनों ही अंगों की संयुक्त एवं सम्यक् शिक्षा मानी जा सकती है।