वर्तमान समय की सबसे ख़तरनाक ग़लती यह है कि हमने स्कूल (नामक पाठशाला) मात्र को मनुष्य का शिक्षालय मानना शुरू कर दिया है। मुझे लगता है कि हम पर एक अंधी धुन सवार हो गयी है कि ‘सबको साक्षर एवं स्कूलित करो वरना भारत का बेड़ा गर्क हो जायगा।’ मुझे बहुत हैरानी होती है जब मैं भाषणों में यह सुनता हूँ और लेखों में यह पढ़ता हूँ कि भारत के अभी तक साक्षरों का प्रतिशत इतना है, और स्कूलितों का प्रतिशत उतना है इसलिए शेष समस्त भारतीय बच्चे-बच्ची एवं प्रौढ़ स्त्री-पुरुष अशिक्षित हैं। अस्कूलित होने मात्र से अथवा निरक्षर होने मात्र से कोइ इंसान अशिक्षित कैसे हो सकता है, यह बात मेरी समझ से बिलकुल परे है। साथ ही यह भी मेरी समझ से बिलकुल परे है कि स्कूलित या साक्षर होने मात्र से कोई इंसान ”शिक्षित” हुआ कैसे माना जा सकता है।
एक कहावत है कि बैलगाड़ी जब चलती है तो उसके नीचे नीचे उसकी छाया में एक कुत्ता भी कभी कभी चलता है। पर इस तरह गाड़ी के नीचे चलते हुए कुत्ते को यह भ्रम हो जाय कि गाड़ी उसके बल पर या उसके चलाने से चल रही है तो यह बिलकुल गलत होगा। स्कूल अपनी जगह ठीक है। वह भी चले। जिसे समझ में आवे वह स्कूली प्रक्रिया एवं स्कूली प्रशिक्षा से अवश्य लाभ उठावे। इससे किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। पर जो स्कूल के पडौस में रहते हुए भी और स्कूल को निकट से देखते हुए भी स्कूल में नहीं आता उसे अपनी बनिस्बत मूर्ख मानना बिलकुल ग़लत है। ऐसे व्यक्ति को कलंक, अभिशाप एवं अंधकार का पर्याय मानना तो बिलकुल ही ग़लत है। हित अनहित तो (तुलसी दास के अनुसार) पशु पक्षी भी जानते हैं। तो जो लोग अपने विवेक से तौल कर ऐसा मानते हैं कि स्कूल में जाना उनके लिए उपयोगी नहीं है या साक्षरता सीखना उनके लिए ज़रूरी नहीं है, उनको स्कूलों में या साक्षरता केन्द्रों में आने के लिए तरह तरह से बहकाना और मजबूर करना ग़लत है। इसका बिलकुल वाजिब और ठोस कारण है और वह कारण यह है कि शिक्षा स्कूल में सीमित अथवा क़ैद नहीं है। देश का कोई कोना ऐसा नहीं है जहॉं शिक्षा का अभाव या अकाल हो और देश का कोई भी मतदाता (चाहे यह बिलकुल निरक्षर हो) ऐसा नहीं है जो शिक्षा से वंचित (यानी अशिक्षित) हो। जैसे ऑक्सीजन के बिना मनुष्य जी नहीं सकता वैसे ही शिक्षा के बिना भी मनुष्य जी नहीं सकता वैसे ही शिक्षा के बिना भी कोई मनुष्य जी नहीं सकता। यदि कोई मनुष्य जिंदा है तो यह सिद्ध है कि उसे ऑक्सीजन उपलब्ध है और यदि कोई मनुष्य इस समाज में समाज का एक अंग बन कर जी रहा है तो यह सिद्ध है कि वह शिक्षित है और उसको शिक्षा उपलब्ध है। हमारे स्वतन्त्र और लोकतांत्रिक देश का संविधान मतदान का अधिकार, स्कूलित और अस्कूलित का भेद किये बिना, साक्षर एवं निरक्षर का भेद किये बिना ही, केवल इस आधार पर सभी प्रजाजनों को प्रदान करता है कि स्कूलित की तरह ही अस्कूलित व्यक्ति और साक्षर की तरह ही निरक्षर व्यक्ति भी शिक्षित है (यानी विवेकी है)।
परमेश्वर अथवा प्रकृति इतनी दयालु, दूरदर्शी एवं चतुर है कि उसने यदि माँ के स्तनों में दूध की व्यवस्था साथ साथ ही कर दी। परमेश्वर ने इस बात की प्रतीक्षा या अपेक्षा नहीं की कि शिशु के जन्मते ही उसके जीवित बचने और पुष्ट होने के लिए दूध की व्यवस्था कोई दाई, कोई नर्स या कोई मैटर्निटी हॉस्पीटल करता रहेगा। इसी प्रकार जब परमेश्वर या प्रकृति ने इंसान की नस्ल पैदा की तो उसने इंसान के शरीर, उसके मन, उसके हृदय को ही ऐसा बना दिया कि उसकी शिक्षा उसके जीवन में (जन्म से लेकर मृत्यु तक) निरंतर स्वत: होती रहे। आज का यह स्कूली पैटर्न तो मैकाले की देन है जो कि गत (उन्नीसवीं) सदी के मध्य में अस्तित्व में आया तो क्या मानव जाति (अथवा हम भारतीय लोग) मैकाले के इस आविष्कार (यानी वर्तमान टाइप के किताबी एवं सर्टिफिकेटी शिक्षा देने वाली स्कूल संस्था के आविष्कार) से पहले सर्वथा अशिक्षित, मूर्ख, असभ्य, पिछड़े और जंगली थे? और सन् 1947 से पूर्व जब कि प्रजा में स्कूलित एवं साक्षर जनता का प्रतिशत वर्तमान काल की तुलना में बहुत कम था, भारत की गुलामी के विरुद्ध संघर्ष करके जीतने वाले लोग अस्कूलित एवं निरक्षर होने के कारण अशिक्षित थे? अथवा इस भारत में निरक्षर एवं अस्कूलित लोगों के पास हज़ारों वंश परम्परागत कला कौशल, जो आज भी मौजूद हैं क्या वे कला कौशल भारतवासियों की अशिक्षा के प्रतीक हैं? स्कूलों के बाहर जो कला कौशल और शिक्षा आज भी है यदि वह अशिक्षा के नाम से नष्ट कर दी जाय तो देश का क्या होगा? जरा सोचिये।
मैं फिर दुहराना चाहता हूँ कि मैं साक्षरता को एवं पाठशालाओं को बहुत उपयोगी मानता हूँ। अपनी अपनी जगह स्कूल भी उपयोगी है और साक्षरता भी उपयोगी है। पर स्कूल एवं साक्षरता का जो एक आक्रामक हौआ आज खड़ा किया गया है, वह शिक्षा के पक्ष में नहीं है, शिक्षा के विरोधी है। मैं जो ऐसी उलटी सी बात कर रहा हूँ उसका बहुत ठोस कारण है। कारण यह है कि मानव का आदिम, मूल, शाश्वत एवं सतत गुरू तो समाज के भीतर और प्रकृति के साथ जीते हुए किया जाने वाला कर्म है। कर्म ही मनुष्य का सहज-स्वाभाविक एवं सर्वोच्च गुरू एवं शिक्षक है। स्कूल का अक्षम्य पाप एवं अपराध यह है कि वह बच्चों को उनके सहज जीवन एवं उनके मूल गुरू यानी कर्मानुभव से काटता है। यह ऐसा ही है जैसे अपनी व्यापारिक कंपनी के दूध की बिक्री बढ़ाने के लिए विज्ञापनों के द्वारा इस भ्रम को खड़ा करना कि प्रसूता स्त्री या माता के स्तन का दूध वर्जनीय एवं बहिष्कार के योग्य है और कंपनी का बोतली दूध या डिब्बाबंद दूध ही दूध है, जो शिशु को दिया जाना चाहिये।
हॉं, जब तक स्कूल सिर्फ यह कहता था कि सरकार की नौकरी को अपना पेशा बनाने वालों के लिए स्कूल उपयोगी है, या विद्वत्ता के लिए स्कूल उपयोगी है, वहॉं तक स्कूल का दावा उचित एवं मान्य था पर जिस स्कूल का आविष्कार मैकाले ने जनता के एक विशिष्ट अंश के लिए या जनता के पॉंच दस प्रतिशत लोगों के विशिष्ट पेशे की तैयारी के लिए किया, स्कूल का वही ढांचा और उसका वही स्वरूप शत प्रतिशत सामान्य जनता की शिक्षा के लिए उपयोगी और अनिवार्य कैसे माना जा सकता है?
श्री मैकाले जी तो अब स्वर्ग सिधार चुके हैं और आज उनसे हमारा साक्षात्कार करना संभव नहीं रहा। पर मुझे पूरा यकीन है कि अपने देहान्त के बाद उस दुनिया में यदि मैं मैकाले से भी पूछूंगा तो वे साहब इस बात को स्वीकार करेंगे कि उन्होंने भारत में जिस स्कूल संस्था की स्थापना की थी वह केवल ब्रिटिश शासन की पालकी ढोने वालों को तैयार करने के लिए थी और वह आज़ाद हिन्दुस्तान की सामान्य जनता की सार्वजनीन शिक्षा के लिए बिलकुल भी उपयुक्त नहीं है। मुझे विश्वास है कि मैकाले तो यह बात मान लेंगे, पर मुझे खेद है कि भारत के भाग्य विधाता लोग इस बात को स्वीकार नहीं कर रहे हैं।
एक दर्जी जानता है कि जो कपड़ा सिया जाय वह पहनने वाले के शरीर के नाप के मुताबिक होना चाहिए और एक मोची भी जानता है कि जो जूता वह बनावे वह पहनने वाले के पॉंव के नाप का होना चाहिये। पर भारतीय शिक्षा के विधाता लोग इस सामान्य बुद्धि पर चलने को तैयार नहीं है। उनकी मान्यता है, बल्कि उनकी पक्की जिद है कि शिक्षा का नाप तो बिलकुल वही रहेगा जो कि केवल नौकरीपेशा वर्ग के लिए फिट होता है, पर शिक्षा का वही कुर्ता-पाजामा और वही जूता कारीगरों, व्यापारियों, ग्वालों, किसानों, धोबियों, नाइयों, मोचियों, मजदूरों, वगैर: वगैर: को ही पहनना पड़ेगा चाहे वह उन्हें फिट होता हो या नहीं होता हो।
पूर्वकाल में कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने शिक्षा के इस नाप तौल में लोकानुकूल परिवर्तन लाने की जो कोशिश की तो सरकार ने उन कोशिशों को कुचल दिया और सरकार समझती है कि वह सरकारी बजट के वित्तीय प्रावधानों के बल पर (और यदि भारत के अपने वित्तीय प्रावधान पर्याप्त न हों तो विदेशी अनुदान अथवा विदेशी कर्ज से प्राप्त पैसे के बल पर) शिक्षा का यह ग़लत नाप का वस्त्र और गलत नाप का पगरखा (जूता) भी सामान्य भारतीय जनता को पहनाने में कामयाब हो जायेगी। पर भारत की अनपढ़ जनता इतनी विवेकशील है कि मेरा अनुमान यह है कि सरकार अपने इस गलत मंसूबे में सफल नहीं होगी। हमारा दृढ़ विश्वास है कि यदि यही आज का स्कूल वस्तुत: भारत के समस्त बाल बच्चों पर छा जायेगा तो वह तथाकथित स्कूली सफलता इस देश के लिए एक अभिशाप साबित होगी।
तो यहॉं प्रश्न यह उठता है कि क्या भारत के श्रम जीवी वर्ग को कोई भी विशिष्ट शिक्षालय नहीं चाहिए? इस का जवाब है कि श्रम जीवी नागरिकों के लिए भी विशेष विद्यालय चाहिये तो जरूर पर यह विद्यालय ऐसा होना चाहिये जिसकी शिक्षा महात्मा गॉंधी के अनुसार उत्पादक उद्यम पर केन्द्रित एवं आधारित हो और जिसका माध्यम अंग्रेजी या हिन्दी के बजाय बच्चे की अपनी मातृभाषा हो जो कि उसने स्कूल से नहीं, किसी शिक्षक से नहीं, बल्कि अपने घर से अपने माता पिता तथा अपने पास पड़ौस से सीखी हो। शिक्षालय ऐसा हो जो स्थानीय संस्कृति एवं स्थानीय प्रकृति को पुष्ट करे एवं सुधारे। शिक्षा ऐसी हो जो शिक्षितों को अपने ही परिवेश में एवं अपने ही उत्तराधिकारों में पहले से बेहतर फिट करे न कि उन्हें अपने परिवेश से उखाड़ कर निर्याती माल (एक्सपोर्ट मेटीरियल) के रूप में बदल दे।
पर ऐसी शिक्षा तो हमारी सरकार चलने ही नहीं देगी। क्योंकि इससे वह नौकरशाही तथा वह कुलीन वर्ग नाराज हो जायेगा जिसको नाराज करने की जोखिम हमारी सरकार उठा नहीं सकती।
इसलिए मजबूरन कहना पड़ता है कि यदि सामान्य श्रमजीवी देहाती लोग स्व विवेक एवं स्वेच्छा से हमारे स्कूलों एवं हमारे साक्षरता अभ्रियानों में शरीक नहीं होते तो उन पर स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता को थोपना बन्द होना चाहिये।