सन् 1941-42 में मैने जामिया मिलिया इस्लामिया, दिल्ली के ”उस्तादों के मदरसे” में एक वर्ष का गांधीवादी बुनियादी शिक्षा का प्रशिक्षण प्राप्त किया। इस प्रशिक्षण में सौभाग्य हमारा यह रहा कि स्वयं डॉ. जाकिर हुसैन ने दस दिनों तक हमारी कक्षा में एक-एक घंटा भाषण दिया (या हमें पढ़ाया) इस दौरान विद्यार्थियों (छात्र शिक्षकों) ने डॉ. जाकिर हुसैन से एक प्रश्न यह पूछा कि बुनियादी शिक्षा के पाठ्क्रम में (या शिक्षक क्रम में) हाथ के काम या दस्तकारी को इतना महत्वपूर्ण एवं केन्द्रीय स्थान क्यों दिया गया है? इसका जवाब जो डॉ. जाकिर हुसैन ने हमें दिया था वह यह था कि सात से चौदह वर्ष के आयुष्काल में बालक-बालिकाओं की स्वाभाविक (या नैसर्गिक मनोविज्ञानिक) प्रवृत्ति अपने हाथों से कुछ न कुछ करने की अवश्य रहती है। बच्चा अपने हाथों से कुछ न कुछ बनाता बिगाड़ता है तो इस बनाने बिगाड़ने में उसको बहुत कुछ सीखने को मिलता है। स्कूल को बच्चे की इस नैसर्गिक प्रवृत्ति को दबाने के बजाय उसे इस प्रवृत्ति का अवसर देना चाहिए तथा उस प्रवृत्ति का जो शैक्षिक लाभ मिल सकता है वह उठाना चाहिए। डॉ. जाकिर हुसैन ने कहा था कि जिस आयु में मनुष्य की जो प्रबल नैसर्गिक वृत्ति हो, उसी वृत्ति को केन्द्र बनाकर उस आयु में मनुष्य की शिक्षा सहज रूप से की जा सकती है। उन्होंने कहा कि इसी मनोवैज्ञानिक या नैसर्गिक कारण से बुनियादी शिक्षा को उद्योगाधारित बनाया गया है। डॉ. जाकिर हुसैन का विचार था कि इस आयु के बच्चों को उनके हाथों से उद्यम करने का मौका नहीं देना और उन्हें केवल पढ़ने लिखने में ही झोंक देना, बच्चों पर जुल्म होगा।
उपर्युक्त प्रश्नोत्तर के अतिरिक्त एक और प्रश्नोत्तर भी हमारी कक्षा में डॉ. जाकिर हुसैन के साथ हुआ। छात्रों की तरु से डॉ; जाकिर हुसैन से यह कहा गया कि गांधी जी की बुनियादी शिक्षा योजना के विरुद्ध कई शिक्षा शास्त्री यह आरोप लगा रहे हैं कि इसके द्वारा ”चाइल्ड लेबर एक्स्प्लायटेशन” की योजना बनाई गई है। इसमें स्पष्ट कहा गया है कि विद्यार्थी लोग स्कूलों में जो उत्पादक उद्यम करेंगे उससे (खर्चा निकालने के बाद भी) काफी कमाई होगी और उससे शिक्षा का खर्चा निकालने में मदद मिलने की आशा है।
इस शंका के जवाब में डॉ. जाकिर हुसैन ने हमें कहा कि यदि उद्यम से होने वाले शुद्ध आर्थिक लाभ को ”चाइल्ड लेबर एक्स्प्लायटेशन” (बाल्य परिश्रम का शोषण) माना जाय तो आप ऐसा भी कर सकते हें कि विद्यालयी उद्योग से होने वाले लाभ को (शिक्षा का खर्चा निकालने में लगाने के बजाय) समुद्र में फैंक दिया जाय ताकि हम पर लांछन नहीं लगे कि हम ”बेचारे बालक के श्रम का शोषण कर रहे हैं। लेकिन यदि विद्यालयी उद्यम से होने वाली शुद्ध कमाई को काम में लेने के बजाय समुद्र में फैंकना भी पड़े तो भी विद्यालयी उद्यम को कच्चे माल की बरबादी का रूप लेने से बचाना और उसे ठोस कमाई का रूप देना शैक्षिक दृष्टि से, चरित्र निर्माण की दृष्टि से जरूरी है। यदि आर्थिक दृष्टि से विद्यालयी उद्योग से होने वाली शुद्ध कमाई पाप है तो उसे जरूर समुद्र में फैंक दीजिये, पर शैक्षिक, नैतिक, चारित्रिक दृष्टि से विद्यालयों में उद्योगाधारित शिक्षा का होना तथा उससे शुद्ध आर्थिक कमाई होनी ही चाहिए।
सन् 1941-42 के उस प्रसंग को आज लगभग 55 वर्ष बीत गये हैं। पर आज मैं देख रहा हूँ कि प्रदेश के लाखों बच्चे तथा बच्चियॉं विद्यालयों के बजाय श्रमालयों की शरण लिये हुए हैं। इस स्थिति पर सरकार खूब हाय तौबा मचा रही है। टी.वी. तथा अखबारों में इस स्थिति का खूब रोना रो रही है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर सम्मेलन एवं संभाषण हो रहे हैं और ”बाल अधिकारों” को परिभाषित किया जा रहा है। माना जा रहा है कि जिस परिवार तथा जिस समाज में बच्चों को परिवार के भरण-पोषण में मदद देने हेतु काम करना पड़ता हो, उस परिवार तथा उस समाज को कलंकित, कर्तव्यच्युत, असभ्य, पिछड़ा तथा लज्जाजनक माना जाना चाहिये। बच्चा यदि बकरी चरावे तो लज्जा का विषय है, लड़की यदि छोटे भाई को संभाले या कुएं से पानी भर कर लावे तो हमें धिक्कार है, ऐसी भावनाएं हमारी शिक्षा के महारथी एवं शिक्षा के जिहादी या क्रूसेडर लोग फैला रहे हैं। पर यदि आत्मीयता, सहयोग, जिम्मेदारी और संवेदना के सद्गुणों का शिक्षा से कोई भी लेना देना है तो किताबों की रटन से ज्यादा शिक्षा बकरी चराने में, छोटे भाई को संभालने में और पानी भरने में है।
मेरी यह मान्यता आज, डॉ. जाकिर हुसैन से शिक्षा लेने के पचपन वर्ष बाद, अधिक दृढ़ हो रही है कि यदि स्कूल के बाहर हमारे असंख्य बच्चों बच्चियों को कठोर परिस्थितियों में श्रम करना पड़ रहा है तो उसका मूल कारण स्कूल ही का यह पाप है कि स्कूल ने मानवीय, स्नेहपूर्ण, शिक्षाप्रद, सीमित परिश्रम को अपने शिक्षाक्रम में स्थान नहीं दिया। यदि स्कूल ने खुद ने ही उत्पादक एवं कमाऊ उद्यम को अपने शिक्षाक्रम में स्थान दे दिया होता तो बच्चों को कठोर परिस्थितियों में स्कूल के बाहर श्रम नहीं करना पड़ता और सार्वजनीन शिक्षा का जो लक्ष्य, दस के बजाय पचास वर्षों में भी पूरा नहीं हुआ है वह कभी का पूरा हो गया होता।
पर जिस मेकालेवादी शिक्षा की मूल बदनीयत ही यह है कि श्रम से मुक्ति मिले और कोरे बौद्धिक विलास में सत्ता सुख भोगा जाय उस शिक्षा के समर्थकों को ये तर्क कैसे समझ में आ सकेंगे।