आज हमारे पूरे समाज में इस प्रश्न पर बहुत गम्भीरता से विचार होने की आवश्यकता है कि क्या स्कूल ही शिक्षा का एक मात्र प्राप्ति स्थान है, या शिक्षा पर क्या स्कूल की ही मॉनोपोली या ठेकेदारी है, या स्कूल में जो कुछ हमारी नयी पीढ़ी को दिया या परोसा जा रहा है क्या वही सच्ची शिक्षा है। स्कूल चलें और जरूर चलें। स्कूलों की भी जरूरत है। समाज के एक विशिष्ट वर्ग का जीवन निर्वाह असंभव हो जाएगा यदि स्कूल न हों। पर आज सरकारी शिक्षा विभागों, शिक्षा मंत्रालयों, शासकों, राजनीतिज्ञों तथा कई पत्र पत्रिकाओं में स्कूल एवं साक्षरता को फैलाने का जो प्रचार-प्रसार, उपदेश, जोर-शोर तथा एक तरह का उन्माद दृष्टिगत हो रहा है, वह मेरी विनम्र राय तथा अल्प बुद्धि के मुताबिक बहुत गलत है। अक्सर ”स्कूलन” (मैं ”स्कूलन” शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहा हूँ कि स्कूलों में जो कुछ हो रहा है, उसे ‘शिक्षण’ या ‘शिक्षा’ का नाम देना मुझे सही नहीं लगता) ही को हम शिक्षा या शिक्षण मानते हैं। पर ऐसा वस्तुत: है नहीं। ‘स्कूलन’ तो स्कूलन मात्र है और शिक्षण या शिक्षा उस स्कूलन से बिल्कुल अलग बात है।
मैंने बहुत पहले एक पुस्तक पढ़ी थी जिसका नाम है ”हाऊ वी लर्न?” और लेखक हैं श्री एच. डब्ल्यू. किलपैट्रिक। इस पुस्तक के प्रथम अध्याय में एक दृष्टांत द्वारा शिक्षा के विषय में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण रहस्य खोला गया है। दृष्टांत यह है कि एक माता ने जब यह देखा कि उसके बच्चे, दफ्तर के कार्य से दिनभर के थके हारे घर लौटे हुए अपने पिता को शांतिपूर्वक विश्राम करने देने के बजाय उनके आसपास, अपने खेलकूद में मग्न होकर शोर मचा रहे हैं, तो माता ने उन बच्चे को खूब डॉंट पिलाई तथा उन्हें पीट कर चुप कर दिया। इस दृष्टांत पर टिप्प्णी करते हुए श्री किलपैट्रिक ने लिखा है कि इस तरह के उक्त माता के बर्ताव से माता जो सहृदयता या संवेदनशीलता का पाठ अपने बच्चों को पढ़ाना चाहती थी, वह तो बच्चों ने नहीं पढ़ा और उन्होंने जो पाठ पढ़ा या सबक सीखा वह था ”प्रूडेंस” का यानी इस अकलमन्दी का कि ”जहॉं मार खाने या पीने की संभावना हो वहॉं डर कर चलो।” तो किलपेट्रिक ने आगे यह समझाया है ”एपेरेंट” (दृष्टिगत या ऊपर से दिखने वाला) शिक्षण एक अलग चीज़ है और ”एटेंडेंट” (चुपचाप ही विद्यमान होकर असर डालने वाला) शिक्षण अलग है और दिखाई देने वाली ऊपरी शिक्षण तो उड़ जाता है और चुपचाप असर डालने वाला शिक्षण ही विद्यार्थी के चरित्र का निर्माण करता है।
तो जो भी व्यक्ति शिक्षक है, शिक्षाधिकारी है, शिक्षा निदेशक है, शिक्षा मन्त्री है, शिक्षकों का प्रशिक्षक है उसे शिक्षा शास्त्र के इस अति महत्वपूर्ण सिद्धान्त को समझना होगा। इस सिद्धान्त को समझे बिना, इसको माने बिना तथा इसको मान कर उसका ध्यान रखते हुए शिक्षण कार्य किये बिना देश में, या इन स्कूलों में सही अर्थों में शिक्षा का होना असम्भव है। मुझे इस बात की गम्भीर शिकायत है और इस बात पर सर्वत्र एतराज है कि शिक्षा के इस मूल सिद्धान्त की घोर उपेक्षा हमारे स्कूलों में हो रही है जिसकी वजह से स्कूल तो अशिक्षा या कुशिक्षा के अड्डे बन गये हैं और हमारा समाज इस धोखे में पड़ा हुआ है कि स्कूलों में जो चल रहा है वह ”शिक्षा” है। यह धारणा बिल्कुल गलत है। मैं यहॉं दुहराना चाहता हूँ कि स्कूल में केवल ”स्कूलन” हो रहा है जिससे लोग केवल ”स्कूलित” हो रहे हैं। शिक्षा स्कूल में है ही नहीं और वह स्कूल में रह भी नहीं सकती है, और न स्कूल से निकलने वाला व्यक्ति शिक्षित होता है। वह जो होता है वह होता है स्कूलित, कालेजित, विश्वविद्यालयित, वह जो होता है, बी.ए., एम.ए., पीएच.डी., एल.एल.बी., एम.बी.बी.एस. या बी.एड्. वगैर: वगैर:। पर इन सब उपाधियों की बात बिल्कुल अलग है और शिक्षा की बात अलग है। बस यही एक बात है जिसपर इन स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों, शिक्षा विभागों, शिक्षा मंत्रालयों और शिक्षा एवं साक्षरता प्रचारकों ने घना पर्दा डाल रखा है।
जैसे सरकारी सिंचाई विभाग का यह दावा कि कृषि को उसके विभाग के सिवा कहीं से भी पानी नहीं मिलेगा, गलत होगा, जैसे विद्युत विभाग का यह दावा गलत होगा कि उस विभाग के अलावा कहीं से भी प्रकाश या ऊर्जा नहीं मिलेगी और जैसे ”ब्यूटी पार्लरों” का यह दावा गलत होगा कि उनके ”मेक अप” के बिना कोई महिला सुन्दर नहीं हो सकती, वैसे ही स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय का यह दावा बिल्कुल झूठा और गलत है कि इन संस्थाओं के बाहर कोई शिक्षा नहीं है और जो लोग स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय से दूर ही दूर रहे वे सब निरक्षर तथा अशिक्षित हैं जिनके कारण देश के शिक्षा प्रभारियों का माथा शर्म से झुक रहा है और जिसके कारण विश्व मंच पर भारत एक पिछड़ा, अशिक्षित एवं अज्ञानी देश माना जाता है। ‘देश की अशिक्षा एवं निरक्षरता एक कलंक है, एक अभिशाप है, एक अंधकार है” ऐसे फिकरे अक्सर भाषणों तथा शिक्षा विषयक पत्र पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलते रहते हैं। पर यह सब बिल्कुल गलत है।
जैसे ऑक्सीजन मिले बिना प्राणी जी नहीं सकते हैं, वैसे ही शिक्षित हुए बिना मनुष्य जी नहीं सकता है। शिक्षा जन्म से मृत्यु तक चलती है और निरन्तर चलती रहती है। जिस दिन बच्चा स्कूल में भरती होता है उस दिन से पूर्व भी बच्चा बहुत शिक्षा पा चुका होता है और जिस दिन कोई किशोर या युवक अपना स्कूल-कॉलेज या विश्वविद्यालय छोड़ता है उसके बाद भी शिक्षा तो चालू ही रहती है1 शिक्षा स्कूल की घंटियों से तथा स्कूल के टाइमटेबल या करीक्यूलम से बंधी हुई नहीं रहती। न शिक्षा को सर्टिफिकेटों तथा डिग्रियों की दरकार है। शिक्षा विराट् है, सर्वव्यापक है, सातत्यपूर्ण है। यह स्कूल यह दावा कैसे कर सकता है कि जो स्कूलित नहीं है वह शिक्षित नहीं है। यह दावा अथवा यह कथन कि जो स्कूलित नहीं है, वह शिक्षित नहीं है बिल्कुल गलत है। यह स्कूल के वकीलों का दम्भ मात्र है।
देश में आज जो कर्म के प्रति ग्लानि व्याप्त है, देश में आज जो मूल्यों का तथा मर्यादा का ह्रास हुआ है, देश में जो पग पग पर आज भ्रष्टाचार का बोलबाला है, देश पर आज जो अपार देशी विदेशी ऋण का बोझ है, आज देश को अपने पर लदे हुए ऋण का ब्याज तक चुकाने के लिये भी जो कर्जा लेना पड़ रहा है, देश में जो सरकारी तंत्रजाल का आज असीम तथा असह्य विस्तार होता जा रहा है, यह सब आसमान से नहीं टपका है बल्कि यह उस दूषित मानसिकता की देन है जो स्कूली कॉलेजी तथाकथित शिक्षा ने इस देश में फैलाई है।
हमारे देश की जनता ने कभी भी गाय को मांस मिला बाँटा नहीं खिलाया। यह कार्य प्राकृतिक विधान के बिल्कुल विपरीत किया गया। नतीजा क्या हुआ? गायों में पगलपन आया तथा उन पागल गायों का मांस खाने वालों को भी उसी बीमारी का खतरा पैदा हुआ। तब इंग्लैण्ड ने चालीस लाख गायों को मारने का निर्णय किया। इसका कारण क्या है? कारण यही है कि भारतीय ग्वाले अशिक्षित और निरक्षर होने से देश पर कलंक हैं ओर जाहिल हैं, जिन पर देश के नेताओं को शर्म आती है और कारण यही है कि इंग्लैंड में शतप्रतिशत साक्षरता एवं शतप्रतिशत शिक्षा है जिस पर इंग्लैंड को गर्व है।
हमारे संविधान की धारा 45 सरकार को यह निर्देश तो देती है कि 14 वर्षों की उम्र तक देश के तमाम बच्चों की अनिवार्य तथा मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था सरकार करे। पर संविधान की धारा 45 इस बात पर बिल्कुल मौन है कि शिक्षा किस चिडिया का नाम है या उसका राष्ट्रीय स्वरूप क्या होगा? शायद संविधान निर्माताओं ने अपने भोलेपन में यह मान लिया होगा कि आज़ाद एवं लोकतांत्रिक भारत उसी शिक्षा व्यवस्था, उसी शिक्षा प्रणाली को तो जारी नहीं रखेगा, जो कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ें मजबूत करने हेतु मैकाले द्वारा चलायी गयी थी। उन्होंने मान लिया होगा कि स्वाधीन तथा लोकतांत्रिक भारत सरकार अपनी स्वाधीनता एवं अपने लोकतन्त्र की सुरक्षा एवं सुपुष्टि हेतु एक नयी लोकवादी शिक्षा प्रणाली का सृजन करेगा परन्तु ऐसा तो कुछ हुआ नहीं और संविधान की यह धारा 45 अपनी भोली-भाली शक्ल में बच गयी जो शिक्षा के अर्थ तथा उसके स्वरूप के बारे में मौन है और जिसकी इस अपरिभाषित स्थिति का लाभ उठाकर देश में वही साम्राज्यवादी तथा लोकतंत्र एवं स्वाधीनता विरोधी शिक्षा और भी ज्यादा विकृत रूप में, धड़ल्ले से चलायी जा रही है। इस शिक्षा की प्रसार वृद्धि की सनक देश के कर्णधारों पर इतनी सवार है कि इसकी विकार शुद्धि पर किसी का भी ध्यान नहीं जा पाता। फलत: शिक्षा के नाम पर एक मानसिक प्रदूषण इस देश में अपनी सीमाऍं लांघ कर चारों तरफ फैल रहा है।
क़ुदरत ने तो मानव जीवन की आवश्यकताओं एवं प्रक्रियाओं को ही ऐसा बनाया कि जीने की प्रक्रिया स्वयं ही शिक्षा की भी प्रक्रिया है। मनुष्य का मस्तिष्क, उसका पेट, उसका हृदय, उसका मन, उसके हाथ पॉंव, उसकी इंद्रियॉं, उसके भीतर का अन्त:करणीय सद्सद्विवेक, उसकी जिज्ञासा, उसका आश्चर्य, उसका प्रश्न, ये सब उसकी शिक्षा के उपकरण या साधन हैं। मनुष्य को जीवन निर्वाह हेतु जो धन्धा या कर्म करना पड़ता है उस कर्म हेतु कच्चा माल प्रकृति से आता है, उस कच्चे माल में व्यक्ति का श्रम तथा उसकी बुद्धि का उपयोग होता है, उस कर्म में समस्याऍं पैदा होती हैं जिनका समाधान प्राप्त करना पड़ता है, अन्त में जो वस्तु तैयार होती है वह समाज के काम आती है जिससे लेन-देन तथा सहयोग होता है जिसमें नैतिकता अनैतिकता, नीति अनीति के प्रश्न खड़े होते हैं जो बुजुर्गों के तजरबे या सांस्कृतिक परम्पराओं से हल होते हैं। तो मानव जीवन की प्रक्रिया स्वयं ही शिक्षामयी है। बेशक इसमें गुरू या शिक्षक की भी अपनी भूमिका है, इसमें किताबों की भी जरूरत है। पर जीवन की मूल प्रक्रिया से कट कर केवल किताबों और शिक्षकों के माध्यम से वह हमारी श्रमजीवी सामान्य जनता को न तो एलीटवर्ग के साथ होड़ करने के काबिल बनाती है और न उनको अपने पैतृक व्यवसाय को जारी रखने के काबिल रखती है और इसी वजह से वह सार्वजनीन नहीं हो रही है।
पर स्कूल संस्था बालक को मानव जीवन की उपर्युक्त मौलिक शैक्षिक व्यवस्था से काटती है। जब तक विद्यार्थी स्कूल में है, स्कूल का काम ही उसका ”फुलटाइम जॉब” हो जाता है। स्कूल विद्यार्थी की आंतरिक नीयत यह होती है कि वह अपने स्थान से, अपने परिवार एवं समुदाय से कट जाय, पृथक हो जाय तथा एक निर्यात की वस्तु; एक किराये पर उठने वाली वस्तु बन जाय। स्कूली विद्यार्थी अपने सहपाठी का मित्र तथा साथी तो ऊपर ऊपर से ही हो पाता है। अन्दरूनी तौर पर हर विद्यार्थी अपने सहपाठी को अपना प्रतिद्वन्द्वी तथा अपने लिए एक खतरा मानता है जिसे हराना ही उसका ध्येय बन जाता है। प्रतियोगिता में जो भी साथी हार जाता है उसके प्रति संवेदना के बजाय उसकी हार में अपनी जीत का गर्व एवं उसकी बधाई होती है। जब तक विद्यार्थी ”शिक्षा” पाता है वह घर वालों से मुफ्त की खाता है। तो दीर्घाभ्यास तथा चिर संस्कार उसमें मुफ्तखोरी का ही पड़ता है। मुफ्तखोरी में उसे सफलता दिखाई देती हे, प्रतियोगिता में उसे धर्म दिखता है, दूसरे से आगे बढ़ने में उसे गौरव नजर आता है। सर्टिफिकेट एवं उपाधियॉ के बल पर वह नौकरी एवं पद पा जाता है। तो प्रत्यक्ष अच्छा काम करने की उसे चिन्ता नहीं रहती। वह अपने समुदाय, अपने वातावरण, बाज़वक्त तो अपने माता पिता तक को ”अपना” मानने में शरमाता है। वह अपने हाथों से श्रमयुक्त कार्य करने में न तो अभ्यस्त होता है, न कुशल होता है अत: उसे असुरक्षा का भय घेरे रहता है जो उसे भ्रष्ट तरीकों से परिग्रह करने की प्रेरणा देता है। क्योंकि अधिकांश पढ़े लिखे नौकरी करते हैं तो बाज़वक्त नौकरी की रक्षा में और अन्त:करण की आवाज़ के अनुसार चलने में धर्मसंकट उपस्थित हो जात है। तो कई बार उसे द्रोणाचार्य की तरह नीति का त्याग कर अनीति का पक्ष लेना पड़ता है। ऐसी है यह स्कूली शिक्षा। इस स्कूली शिक्षा की विकार शुद्धि पर किसी का भी ध्यान नहीं है।
पर इतना सब होते हुए भी मैं ऐसा नहीं कहता कि स्कूलों को बन्द करो। मैं ऐसा भी नहीं कहता कि जो लोग अपने बच्चों को स्कूल में भेज रहे हैं उनको रोको। मैं तो केवल इतना ही कहता हूँ कि जो लोग अपने बच्चों को ऐसी स्कूल संस्था में नहीं भेज रहे हैं, उनको शिक्षा का शत्रु या शिक्षा से वंचित मत समझो। वे जीवन की प्रक्रिया के स्कूल में स्वत: शिक्षित हो रहे हैं, वे सहज शिक्षित हो रहे हैं। उनकी शिक्षा ज्यादा खरी है, ज्यादा मानवीय है। जो शिक्षा स्कूल के बाहर चल रही है, वह स्कूल के भीतर चलने वाली शिक्षा से बहुत व्यापक एवं विराट है और उसी शिक्षा ने देश का आर्थिक भार ढो रखा है। उसी न मानसिक एवं प्राकृतिक प्रदूषण से इस देश को किसी हद तक बचा रखा है अत: स्कूलों को आप भले ही चलाते रहें, पर ख़ुदा के वास्ते उनके अन्धे प्रचार-प्रसार को रोकें।