”शिक्षण” के विषय में तो मैं यह मानता हूँ कि यह इस मानव जीवन में ठेठ से ही था, परन्तु, मुझे जहॉं तक जानकारी है शिक्षण में ”प्रशिक्षण” का जन्म इस नये युग में ही हुआ है। उदाहरण के लिए मैं जाति से स्वर्णकार हूँ। मेरे पिता एक बहुत उच्च कोटि के गारीगर स्वर्णकार थे। पर उन्होंने किसी भी ”स्वर्णकला प्रशिक्षण महाविद्यालय” में न तो कोई समय बिताया था, न कोई ट्रेनिंग ली थी, न कोई डिग्री या प्रमाण-पत्र प्राप्त किया था। वे अपने पिता जी के साथ काम करते करते अपने कार्य में निष्णात या दक्ष हो गए थे और उनकी दक्षता को मेरे गॉंव में ही नहीं, गाँ के बाहर भी दूर दूर तक मान्यता थी। इसी प्रकार गॉंव में जो सुतार (बढ़ई) थे, लोहार थे, बुनकर थे, दर्जी थे, धोबी थे, मोची थे, बैद्य थे, वे सब किसी भी ट्रेनिंग स्कूल या ट्रेनिंग स्कूल या ट्रेनिंग कॉलेज की उपज नहीं थे। पर वे सभी अपने अपने काम में समप्रित थे तथा लगातार कुशल से कुशलतर होते ही जाते थे।
मैं सन् 1936 में सत्रह वर्ष की आयु पूरी करके शिक्षक बन गया। मैंने अपने अध्यापकों से शिक्षा तो जरूर ली थे, पर दूसरों को शिक्षा देने की अलग से कोई ट्रेनिंग मैंने नहीं ली थी। सन् 1941 में मुझे जामिया मिलिया इस्लामिया, दिल्ली के ”उस्तादों के मदरसे” में बुनियादी शिक्षा में प्रशिक्षण प्राप्त करने हेतु भेजा गया क्यों कि बुनियादी शिक्षा का विचार ही नया था। पर उसके पहले पॉंच वर्षों तक मैंने विद्याभवन की प्राथमिक शाला में पॉंचवीं कक्षा तक हिन्दी, भूगोल, प्रकृति-अध्ययन (नेचर स्टडी) आदि विषय पढ़ाए। यद्यपि मैं ”ट्रेंड” अध्यापक नहीं था, पर मुझ में अपने काम को अच्छे से अच्दे तरीके से करने की धुन या लगन थी। मैं अपने द्वारा किए गए शिक्षण या अध्यापन की स्वयं समीक्षा करता था, स्वयं उवकी पूर्व तेयारी करता था, अपने विद्यार्थियों के प्रति मैं समर्पित था। तो मैं अपने प्रथम पॉंच वर्षों के शिक्षण में बहुत सफल रहा। मेरे विद्यार्थी मुझसे बहुत खुश थे तथा मेरे प्रधानाध्यापक भी मुझसे बहुत प्रभावित हुए और यही कारण था कि विद्याभवन सोसायटी ने जब अपना बुनियादी विद्यालय खोलना चाहा तो उस नये कार्य के लिये मुझे चुना गया।
जैसा कि मैंने ऊपर उल्लेख किया है सन् 1941-42 में मैंने जामिया मिलिया दिल्ली में बुनियादी शिक्षण का प्रशिक्षण प्राप्त किया। बेशक मुझे उससे लाभ ही हुआ। दस दिनों तक तो स्वयं डॉ0 जाकिर हुसैन ने हमारी कक्षा ली जिसके लिये मुझे गर्व है। परन्तु ऐसा प्रशिक्षण तो साल दर साल अनेक छात्र शिक्षकों ने लिया था। उनमें से कितने लोगों ने ठीक से बुनियादी शिक्षा का काम किया। इस प्रश्न का उत्तर निराशाजनक ही है। मैंने भी उस ट्रेनिंग के बाद अपने बुनियादी विद्यालय में जो गहन काम किया, उसका श्रेय मेरा उस ट्रेनिंग को नहीं जाता जो कि मैंने जामिया मिलिया में ली थी। बल्कि उस समर्पणभाव को तथा उस वैज्ञानिक वृत्ति को जाता है कि जिससे मैंने अपने काम को उठाया था तथा किया था।
मुख्य बात यह है कि जब मेरे विद्यार्थी जीवन में मेरे अध्यापक मुझे पढ़ाते थे तब ऊपर से तो यही लगता था कि मुझे जो पढ़ाया जा रहा है, उसी को मैं सीख रहा हूँ। पर वास्तविकता यह थी कि मेरे अध्यापक मुझे जिस तरीके से पढ़ाते थे, उसे भी मैं अनजाने में (तथा बिना कोई उद्देश्य रखे) ग्रहण करता रहा था। इसलिए जब मैं उध्यापक बना तो अध्यापन की कला या कुशलता मुझ में स्वत: प्रस्फुटित होती रही। जिसे मैं स्वयं ठीक से सीख चुका हूँ वही काम या बात मैं किसी अन्य को सिखा सकूँ, इस सादे से काम के लिए मुझे किसी प्रशिक्षण विद्यालय में प्रशिक्षण लेने की जरूरत बिल्कुल नहीं लगती।
मेरे बुनियादी विद्यालय में तथाकथित ”टेण्ड” अध्यापक बस मैं ही अकेला था पर उस विद्यालय का कार्य जिस दर्शन तथा सिद्धान्त पर ढाल दिया गया, जो भी नये तथा अप्रशिक्षित शिक्षक उसमें आए वे उसमें आसानी से ढल गए। डॉ0 मोहन सिंह मेहता ने सन् 1931 में कुछ मौलिक अभिनव विचारों को लेकर उदयपुर में विद्या भवन खोला था। उसको चलाने वाले सभी शिक्षक (एक दो को छोड़कर) अप्रशिक्षित थे। पर उन्होंने जो एक से एक बढ़कर अभिनव प्रयोग किए वे बेमिसाल थे और उनकी वजह से विद्यार्थियों में जो एक नयी भावना या श्रद्धा पनपी उनमें संस्था के प्रति जो भक्ति जागी वह बहुमूल्य थी। उसके बाद धीरे-धीरे वह युग आ ही गया जब शिक्षक की पद प्राप्ति हेतु बी0एड्0 की डिग्री होना अनिवार्य हो गया और तभी से विद्याभवन जैसी संस्था में भी वह पुराना प्रयोगवाद, वह पुराना समर्पण भाव, वह पुराना अनुसंधानात्मक प्रयत्न, समाप्त सा हो गया और संस्था में वह जीवट नहीं रहा जो कि प्रारंभ में था जिससे संस्था एक ढर्रे पर आकर रह गयी।
अपने पेट से शिशु को जन्म देने वाली मॉं को शिशु पालन की ट्रेनिंग लेने की आवश्यकता नहीं होती। केवल नर्सों की ट्रेनिंग लेनी होती है। जो पराये पेट से जन्मे शिशुओं को संभालती है। इसी प्रकार जो शिक्षक शिष्य के प्रति वत्सलभाव रखता हो उसे ट्रेनिंग की आवश्यकता नहीं होती। ट्रेनिंग उन्हीं शिक्षकों को लेनी होती है जो केवल व्यवसाय एवं वेतन प्राप्ति के लिए शिक्षा कर्म को अपनाते हैं। पर यहॉं कहावत यह चरितार्थ होती है कि ”पूत कपूत तो क्यों धन संचय, पूत सपूत तो क्यों धन संचय।” यानी यदि शिक्षकों में छात्र वात्सल्य तथा कर्मनिष्ठा नहीं है तो प्रशिक्षण व्यर्थ ही जाने वाला है और यदि शिक्षकों में छात्र वात्सल्य तथा कर्मनिष्ठा विद्यमान है तो उनको किसी अन्य संस्था में जाकर शिक्षण का प्रशिक्षण लेने की कोई आवश्यकता नहीं है।
जो बात या कार्य मैंने अच्दी तरह सीख लिया है, उसे किसी अन्य को सिखाने की योग्यता प्राप्त करने के लिए मुझे एक तीसरी या थर्ड पार्टी से प्रशिक्षण तथा सर्टिफिकेट लेना होगा, यह एक मजाक नहीं तो क्या है। कृष्ण ने गीता के चौथे अध्याय में कहा है कि ”मैने” यह (गीता वाला) ज्ञान विवस्वान् यानी सूर्च को दिया, सूर्य ने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को दिया। पर इसमें ऐसा उल्लेख कहीं नहीं है कि सूर्च ने मनु को ज्ञान देने से पूर्व तथा मनु ने इक्ष्वाकु को ज्ञान देने से पूर्व ”उस ज्ञान को सौंपने की प्रक्रिया” की ट्रेनिंग किस से ली। यह तो अच्छा हुआ कि उस जमाने में न तो ट्रेनिंग कॉलेज थे और न ज्ञान देने से पूर्व उन ट्रेनिंग कॉलिजों से डिग्री तथा सर्टिफिकेट लेना अनिवार्य था। वरना वैसी ट्रेनिंग लिए बिना न तो सूर्य मनु को और न मनु इक्ष्वाकु को उस ज्ञान को सौंप पाते जो उन्होंने ग्रहण तो कर लिया था पर जिसे दूसरों को सौपने की कला तथा विधि की ट्रेनिंग उन्हें मिली नहीं थी।
यह कैसी विडम्बना है कि मैं अपने कर्मानुभव या कार्यानुभव से स्वत- एवं स्वयं ही अपने काय्र में निष्णात नहीं हो सकूँ चाहे मैं उम्र भर उस काम में लगा रहूँ और एक ट्रेनिंग कॉलेज मुझे (जब कि प्रत्यक्ष शिक्षण काय्र का मेरा कोई भी अनुभव नहीं है) केवल एक या दो वर्ष में मुझे शिक्षण कार्य की दक्षता का प्रमाण-पत्र उम्र भर के लिए दे दे।
”आपने जो सीखा है उसे आप दूसरों को सिखाने के काबिल अपने आप नहीं बन जाते हैं, बल्कि स्वयं सीखी हुई बात दूसरों को सिखाने के लिए आपको ट्रेनिंग की जरूरत है और यह ट्रेनिंग एक थर्ड पार्टी देगी,” ऐसी मान्यता क्यों बनी। इसका कारण है कि अपने कार्य या कर्म का अनुष्ठान सम्पूर्ण अथवा समग्र रूप से नहीं करना। जो भी कर्म हम करें यदि हम उस कर्म के निम्न चारों आयामों या अंगों में से गुजरें तो हमारा वह कर्म सम्पूर्ण या समग्र हो जाएगा, तथा हमें उससे कर्म-कला में स्वत- ही प्रगति प्राप्त होगी। कर्म के ये चार आयाम, अंग या चरण इस प्रकार हैं-
1- कर्म करने का विचार या संकल्प करो।
2- कर्म की प्रक्रिया क्या होगी, उसकी योजना बनाओ।
3- जागरूकता से कर्म योजना का क्रियान्वयन करो।
4- सारे कर्म पर पुनर्विचार करो, उसकी समालोचना तथा समीक्षा करो तथा उससे भविष्य के लिए नयी शिक्षा ग्रहण करो।
यदि इस प्रकार से हम अपने शिक्षणकार्य को उसकी समग्रता से पूरा करेंगे तो हमारा शिक्षण कार्य ही हमारा नित नया या सतत प्रशिक्षण बनता चला जाएगा। यदि हम अपने कर्म रूपी दही को अपनी खरी समालोचना की मथानी से मथेंगे तो हमारे कर्म में से ही शिक्षण कला की आगे से आगे प्रगति का मक्खन निकलता जाएगा। इस प्रकार प्रशिक्षण तो कर्म के पौधे पर ही खिलने वाला फूल है। हमारे ट्रेनिंग कॉलेजों ने यह कृत्रिम व्यवस्था की है कि शिक्षण कर्म के पौधे पर शिक्षण कला की प्रगति का फूल शिक्षण कर्म के पौधे से काट कर अलग से खिलाने का मूढ़तापूर्ण प्रयत्न किया जाय। ये ट्रेनिंग कॉलेज इस भ्रांति पर खड़े किए गए हैं कि जो लोग कर्म का कुऑं वास्तव में खोद रहे हैं उनको कुऍं से न तो पानी मिलेगा और न ही उनकी प्यास बुझेगी। कुआं खोदो जरूर पर उसे पानी के स्रोत की गहराई तक मत खोदो और कुआं खोदने के बावजूद पानी के लिए जलदाय विभाग के नल पर आश्रित रहो, इस थियरी पर ये सारे ट्रेनिंग कॉलिज चलाए जा रहे हैं और ये ट्रेनिंग कॉलिज शिक्षा पर ऐसे छा रहे हैं कि शिक्षालयों में सारे नवीकरण, शिक्षालयों में सारा आनन्द तिरोहित हो गया है और शिक्षा का घोर फॉसिलीकरण अथवा रेजिमेंटीकरण हो गया है।
यह सारा परिणाम है पढ़े लिखों की यानी स्कूलित नस्ल की जनसंख्या के जरूरत से ज्यादा और बेतहाशा बढ़ जाने का। सरकार पहले तो पढ़े लिखों की जनसंख्या की वृद्धि करने में अपना दिवाला निकालती जाती है और जब ये लोग पढ़ लिख जाते हैं तो उनको केवल लिखने-पढ़ने तथा भाषण देने का काम या रोजगार देने के लिए निरर्थक तथा अनावश्यक नये विभाग या नये कार्य खोल कर देश की व्यवस्था को बिगाड़ती है तथा देश पर ऐसे अनुत्पादक लोगों की तनख्वाहें देने का आर्थिक बोझ डालती है। नतीजा केवल आर्थिक दिवाला तथा असहनीय कर्जदारी ही नहीं है, देश में कर्मनिष्ठा का भंयंकर ह्रास भी इसी का परिणाम है। इसीलिए कर्म आज एक औपचारिकता का निर्वाह मात्र बन कर रहा गया है तथा कर्म में से हमारा मन बाहर निकल गया है।
ट्रेनिंग या प्रशिक्षण का मुख्य प्रयोजन है कर्म का सुधार या उसकी उन्नति। कर्म का सुधार तो कर्म ही को सम्यक रूप से करने का अन्तर्निहित सुफल है। कर्म का सुधारकर्म की प्रक्रिया के बाहर से आयात करने की चीज नहीं है, या बाहर से डालने या मिलाने की वस्तु नहीं है। सुधार की संतानोत्पत्ति बंद करने की दृष्ठि से यहद हमारी कर्म-प्रक्रिया की ही नसबंदी करके उसे बांझ बना दिया जाए तो आप चाहे जितनी ट्रेनिंग तथा प्रशिक्षण करते जाइए, कर्म में सुधार या निखार नहीं आएगा।
आज ट्रेनर्स वर्ग अलग खड़ा हो गया है और वास्तविक कार्य करने वाला वर्ग अलग खड़ा हो गया है। ट्रेनर्स वर्ग वास्तविक कार्य के अनुभव से हीन है और धरातलीय असली कार्यकर्ता अपने ही कार्यानुभव से नया आविष्कार करने तथा कुछ नयी बात सीखने की क्षमता से हीन है। यह स्थिति बिल्कुल अवांछनीय है। पर यह स्थिति हमने जानबूझ कर पैदा की है।
मूल रोग बस यही है कि स्कूली संस्कृति के टिकने का मूलाधारकर्म और बुद्धि के बीच का संबंध-विच्छेद या तलाक है। यही कारण है कि अपनी ट्रेनिंग आप ही करने की क्षमता कर्मरत कार्यकर्ता ने खो दी है और वह (कार्यकर्ता) अपने कार्य की प्रक्रिया के सुधार या विकास के लिए परमुखापेक्षी हो गया है। पर इस स्थिति में कार्य सुधार नहीं होगा और यदि कार्यसुधार नहीं होगा तो कार्य में सुफलता भी नहीं मिलेगी।
”यह कर्म मेरा है, इसके सुधार मेरा काम है”, ऐसा ममत्व ऐसी निष्ठा कार्यकर्ताओं को कैसे दी जाय, यही मूलप्रश्न है जिसका उत्तर हमें खोजना है। प्रश्न दूध तथा दही में जो घृत विद्यमान है, उसी को मंथन द्वारा प्रकट करने का है न कि दूध या दही में ऊपर से घी मिलाने का। कर्म के पौधे पर ही सुधार का फूल खिलाने का सवाल है न कि कर्म के पौधे पर आलपिन से प्लास्टिक का फूल टांकने का।
आशा है, कि मेरा आशय स्पष्ट है। यदि मेरा यह आशय गलत लगता हो तो मैं विनय पूर्वक क्षमाप्रार्थी हूँ।