अनवरत और अनौपचारिक शिक्षा के लिए अध्यापकों का पुन:संजीवनीकरण

पहले एक चेतावनी दे दूँ कि पुन: संजीवनीकरण में खतरा भी है। यदि पुन:संजीवनीयुक्‍त अध्‍यापक सचमुच उत्‍पादित भी हुए तो वे वर्तमान सामाजिक-व्‍यवस्‍था और शिक्षा के ढाँचे में, अनुकूल और उपयुक्‍त स्‍थान न पाने के कारण, अपने आप को पूरी तरह अलग-थलग, कटा हुआ-सा पाएँगे क्‍योंकि सजीव शिक्षण और अधिगम के विचार आधुनिक और तथाकथित प्रगतिशील युग में काल-क्षिप्‍त (out of date) हो चुके हैं। यदि आप पुन:संजीवनीकरण का कोई फार्मूला खोजने और उसे अपने कॉलेज में लागू करने में सफल भी हो गए तो आप अपेक्षित संख्‍या में छात्राध्‍यापक कहाँ पाएँगे। आज के सामाजिक और शैक्षिक-आर्केस्‍ट्रा में संजीवनी की बात बेसुरी है, यह बात आपके ग्राहक आपसे कहीं अधिक अच्‍छी तरह समझते हैं। यदि अपनी विज्ञापन कला और प्रचारबाज़ी से आप पर्याप्‍त संख्‍या में छात्र जुटा भी पाए और वर्तमान शिक्षा-संस्‍थाओं में ऐसे संजीवनीयुक्‍त अध्‍यापक भेज भी सके तो उन्‍हें एक कठोर चेतावनी दी जाएगी कि वे कक्षा में अपनी संजीवनी का प्रयोग न करें अन्‍यथा उन्‍हें ठोकर मार कर बाहर कर दिया जाएगा।

तथापि मैं एक दूसरे ढंग से भी सोचता हूँ। मैं यह क्‍यों न महसूस करूँ कि इस प्रजातांत्रिक युग में सबको अपनी अकादमिक ज्ञान-वृद्धि के लिए विषयों पर चर्चा करने की स्‍वतंत्रता है और कोई अपने विचारों की व्‍यावहारिक क्रियान्विति के लिए बाध्‍य नहीं है। अत: प्रारम्‍भ में दी गई चेतावनी के बावजूद, मैं भी चिन्‍तामुक्‍त होकर चर्चा कर रहा हूँ।

आपकी तरह मैं भी विश्‍वास करता हूँ कि हमारे देश में अध्‍यापक को पुन:संजीवित करना शिक्षा के मामले में सबसे पहला काम है। आज विपत्ति यह नहीं है कि अध्‍यापक के पास संजीवनी नहीं है बल्कि यह है कि शिक्षा के युद्ध क्षेत्र से अध्‍यापक बिलकुल गायब हो गया है और जब तक वह पुन: प्रकट नहीं होता, तब तक आज के महाभारत को अपना कृष्‍ण नहीं मिलेगा।

दूसरी बात यह है कि आज के अध्‍यापक को इस अर्थ में पुन: संजीवित नहीं करना है कि वह केन्‍द्र द्वारा निर्धारित विषयवस्‍तु और कौशलों को अधिक प्रभावी ढंग से नई पीढ़ी को संप्रेषित करने योग्‍य बने। आज के प्रभावी इंडॉक्ट्रिनेशन को सजीव शिक्षण समझने की भ्रांति का खतरा है। अध्‍यापक राज्‍य के हाथ में छात्र को निर्धारित सूचनाएँ देने का यन्‍त्र है और जैसे-जैसे तकनीकी विकास के दौर में शिक्षा के यांत्रिक उपकरण विकसित होते जायेंगे, अध्‍यापक की यह भूमिका भी कम होती चली जाएगी। संजीवनीयुक्‍त अध्‍यापक मेरी दृष्टि में एक ऐसा व्‍यक्ति है जिसके पास अपने छात्रों को देने के लिए कुछ बुनियादी संदेश हैं; उसकी स्‍वयं की कुछ आस्‍थाएँ और विश्‍वास हैं; जो राष्‍ट्र की शिक्षा व्‍यवस्‍था में कोई नौकरी स्‍वीकार करते हुए भी अपनी अन्‍तरात्‍मा, अपना विवेक जागरूक रखता है और राज्‍य के द्वारा निर्धारित बातों को उसी सीमा तक स्‍वीकारता है जिस सीमा तक उसकी अन्‍तरात्‍मा इसकी अनु‍मति देती है।

तीसरी बात अध्‍यापक के शिक्षा क्षेत्र और समाज-मंच से गायब होने के कारणों से सम्‍बन्धित है। मेरी मान्‍यता है कि जब तक विज्ञान, तकनीकी विकास तथा केन्‍द्रीकृत औद्योगीकरण का समाज, अर्थनीति, राजनीति पर ज्‍यादा प्रभाव नहीं था, तब तक शिक्षा एक विकेन्द्रित सामाजिक कार्य था जिसे राज्‍य का संरक्षण तो था किन्‍तु जिस पर उसका नियन्‍त्रण नहीं था। धीरे-धीरे सत्‍ता के केन्‍द्रीकरण के कारण रेजिमेंटेशन की स्थिति आती गई। शिक्षा के मामलों में आज सर्वत्र केन्‍द्र की नीतियों पर निर्भरता देखी जाती है। शिक्षा इतनी औपचारिक हो गई है कि इसके ढांचे में कहीं भी नम्‍यता नहीं है और अध्‍यापक, न केवल व्‍यक्ति रूप में बल्कि एक जाति के रूप में भी, सारी पहल और सजीवता खो चुका है। आधुनिक युग के प्रभाव में अध्‍यापक भी मशीनी होता जा रहा है और हम शिक्षण के मशीनी उपकरणों की तलाश में अध्‍यापक की आवश्‍यकता कम से कम करते जा रहे हैं।

यदि यह स्थिति समाज अथवा पूरी मानवता के लिए कल्‍याणकारी होती तो किसी बात का रोना नहीं था। आज मानवता चरम विपत्ति की स्थिति में है जिसने सम्‍पन्‍नों और विपन्‍नों की खाई को बहुत बढ़ा दिया है। विज्ञान तकनीकी के आधुनिक विकास और केन्‍द्रीकृत योजनाएँ इस खाई को कम करने में असफल रही हैं। यह जान कर त्रासदी और भी तीव्र होती है कि केन्‍द्रीकरण और रेजिमेंटेशन की प्रवृत्तियाँ न आत्‍मसंयम जानती हैं, न करती हैं। ऐसी स्थितियों में मानवता के परित्राण के लिए ‘शिक्षा’ को आगे आना है और ‘शिक्षा’ तभी परित्राण कर सकती है जब वह स्‍वयं रेजिमेंटेशन, केन्‍द्रीकरण से मुक्‍त हो और शिक्षा रेजिमेंटेशन से तभी मुक्‍त हो सकती है जब ‘अध्‍यापक’ का पुन:अवतरण हो, जब अध्‍यापक को उसका व्‍यक्तित्‍व लौटाया जाए, उसकी अन्‍तरात्‍मा को सक्रिय और जागरूक रखा जाए।

इस प्रकार अब मैं अनवरत और अनौपचारिक शिक्षा तथा शिक्षक-प्रशिक्षण के पुन: संजीवनीकरण के परस्‍पर सम्‍बन्‍ध पर आता हूँ। यह मानना गलत है कि शिक्षक राष्‍ट्र की शिक्षा को रूप प्रदान कर रहे हैं और यह कि शिक्षक-प्रशिक्षण महाविद्यालयों से ही अध्‍यापक शिक्षण की गुणवत्‍ता और योग्‍यता प्राप्‍त करते हैं। आपके अध्‍यापक वर्तमान शिक्षा व्‍यवस्‍था के उत्‍पादन हैं और आप केवल उन्‍हें मेक-अप कर लेबल प्रदान करते हैं जिससे वे बाजार में अन्‍य के मुकाबले पहले चुने जा सकें। न तो प्रशिक्षण महाविद्यालय अध्‍यापक के व्‍यक्तित्‍व को रूप दे रहे हैं, न अध्‍यापक हमारी शिक्षा-पद्धति को रूपायित कर रहा है। वास्‍तव में यह शिक्षा-पद्धति ही भावी शिक्षकों और शिक्षक-प्रशिक्षकों को उत्‍पन्‍न कर रही है तथा प्रशिक्षण महाविद्यालय के कार्यक्रमों आदि को शासित कर रही है। अत: वास्‍तव में शिक्षा को ही पुन: संजीवित करने की आवश्‍यकता है और यह शिक्षा को अनौपचारिक और अनवरत बनाने से हो सकेगा।

‘अनौप‍चारिक’ शब्‍द से ही प्रकट है कि वह औपचारिक नहीं है यानी यह वह नहीं है जो हम आजकल अपनी शिक्षा-संस्‍थाओं में कर रहे हैं। यह शब्‍द ‘औपचारिक’ शिक्षा की बीमारियों को देख कर उसके विरोध में गढ़ा गया है और एक नकारात्‍मक प्रत्‍यय लगता है किन्‍तु इसके सकारात्‍मक प्रत्‍यय को समझाने के लिए मैं कुछ काल्‍पनिक उदाहरण प्रस्‍तुत करूँगा। एक आधुनिक पॉल्‍ट्री मे कृत्रिम उपायों से अंडे सेये जाते हैं। मैनेजर का पुत्र मुर्गी द्वारा अंडे सेने की बात नहीं जानता। पिता की मृत्‍यु पर, यन्‍त्र के खराब होने की स्थिति में वह या तो अंडे बेच देता है या खा जाता है। मुर्गियाँ भी अंडे सेने की अपनी सहज प्रवृत्ति भूल जाती हैं। अन्‍तत: एक ग्रामीण मुर्गियों को अंडे सेने की प्राकृतिक प्रक्रिया सिखाता है, मैनेजर के पुत्र को भी इसका ज्ञान देता है या कल्‍पना करें कि किसी युग में अधिकांश गाय-भैंसें मार दी गई हैं, केवल कृत्रिम दूध का उत्‍पादन होता है। यदि कृत्रिम दूध का उत्‍पादन करने वाली फैक्ट्रियाँ बन्‍द हो जाऍं तो लोग भूल जाऍंगे कि ईश्‍वर ने गायें-भैंसें दूध के लिए उत्‍पन्‍न की थीं और फैक्ट्रियाँ उस प्राकृतिक व्‍यवस्‍था की एक नकल मात्र हैं – ऐसे ही जैसे एक ग्रहस्‍थ एक तोते को पिंजरे में बन्‍दकर यह भूल जाता है कि बिना उसके पिंजरे और सेवा-चिन्‍ताओं के भी तोता अधिक स्‍वतंत्र और आनन्‍दपूर्ण जीवन बिता सकता है। पहले ‘शिक्षा’ उन्‍मुक्‍त आकाश में एक स्‍वतंत्र पक्षी के रूप में थी किन्‍तु अब हमारे विद्यालय राज्‍य के हाथों में पिंजरे हैं और शिक्षा इनमें बन्‍द पक्षी। इस पिंजरगत स्थिति में शिक्षा वैसे ही औपचारिक है जैसे तोते का राम नाम लेना।

सर्दी से व्‍यथित किसी गाँव के लोग शीघ्र सूर्योदय कराने के लिए पहाड़ को खिसकाने लगते हैं और कुछ देर बाद सूर्योदय हो जाता है। ग्रामीण समझते हैं कि उनके पहाड़ खिसकाने से सूर्योदय जल्‍दी हुआ है। ऐसे ही हमारे विद्यालय भूल जाते हैं कि शिक्षा शिक्षकों द्वारा नहीं बल्कि उनके बावजूद भी घटित हो रही है। इसी भ्रान्ति के विरोध में शिक्षा की अनौपचारिकता विद्रोह करती है। यह याद दिलाती है कि आप शिक्षा के प्रणेता अथवा आविष्‍कारक नहीं हैं बल्कि शिक्षा मानव-प्रजाति की जीवन प्रक्रिया का परिणाम है। आप किसी बच्‍चे की शिक्षा में मदद दे सकते हैं किन्‍तु यह दावा नहीं कर सकते कि शिक्षा आपकी पाठ्यपुस्‍तकों अथवा पाठ्यक्रम का परिणाम है। हमारी गलती यह है कि हमने शिक्षा के पुष्‍प को उसके जनक वृक्ष से तोड़ दिया है और बिना उसे वास्‍तविक प्राकृतिक खाद्य दिये उसके शरीर में कृत्रिम रूप से संजीवनी शक्ति का संचार करना चाहते हैं। अनौपचारिक शिक्षा अपने प्राकृतिक वातावरण में बुद्धिमत्‍तापूर्ण विनम्र उत्‍पादक कार्य-अनुभव की शिक्षा है। फिर यह स्‍कूल में हो या बाहर, बाल्‍यावस्‍था में हो या प्रौढ़ावस्‍था में। इस प्रकार अनौपचारिक शिक्षा एक नकारात्‍मक सम्‍प्रत्‍यय न होकर एक सकारात्‍मक प्रत्‍यय है जो शिक्षा को संजीवनी प्रदान करता है।

इस सकारात्‍मक प्रत्‍यय को औपचारिक शिक्षा के विरूद्ध एक नकारात्‍मक प्रत्‍यय से भिन्‍न रूप में समझ लेने पर हम महसूस करेंगे कि शिक्षा स्‍वत: ही एक अनवरत और आजीवन प्रक्रिया बन जाती है जिसमें शिक्षा ही जीवन है और जीवन ही शिक्षा। गांधीजी की यह बात हमने तब ग्रहण नहीं की थी किन्‍तु आज पश्चिम से अनवरत और अनौपचारिक के नाम से आने वाले इस विचार का हम स्‍वागत करने को तैयार हैं। साम्राज्‍यवादी ब्रिटिश राज्‍य के उत्‍तराधिकार रूप में प्राप्‍त इस औपचारिक शिक्षा व्‍यवस्‍था के प्रभाव में, हीन भाव और आत्‍मविश्‍वासाभाव के कारण तथा नौकरशाही के निहित स्‍वार्थों के कारण हमने बेसिक शिक्षा को दफ़ना ही दिया है।

औपचारिक शिक्षा के पक्ष में तर्क दिया जाता है कि वर्तमान ज्ञान-विस्‍फोट का सामना एक प्रलम्बित औपचारिक शिक्षा व्‍यवस्‍था से किया जा सकता है किन्‍तु यह तर्क अन्‍तर्विरोध ग्रस्‍त है। क्‍या मृत्‍युपर्यन्‍त औपचारिक शिक्षा काल बढ़ाया जा सकेगा क्‍योंकि ज्ञान विस्‍फोट तो मृत्‍यु पर्यन्‍त चलता रहेगा। वास्‍तव में सामान्‍य ज्ञान औपचारिक शिक्षा का समर्थन इसलिए करता है कि इसमें वह शोषित वर्ग से निकलकर शोषक वर्ग में प्रवेश के आकर्षक आश्‍वासन पाता है, बुद्धिजीवी वर्ग इसलिए कि इसमें श्रेष्‍ठ वर्ग की शान-शौकत है; राजनीतिज्ञ इसलिए कि केवल औपचारिक शिक्षा व्‍यवस्‍था में ही रेजिमेंटेशन और राज्‍य नियंत्रण की संभावनाएँ हैं।

प्रजातन्‍त्र का शिक्षा के अतिरिक्‍त कोई अन्‍य आधार नहीं है और शिक्षा का पुन: संजीवित-अध्‍यापक के अतिरिक्‍त कोई आश्रय नहीं। देखें, वर्तमान स्थितियों में शिक्षक अपने गौरव का समर्पण करता है अथवा अपनी जीवनी शक्ति की उद्घोषणा।