श्री दयाल चंद्र सोनी का जीवन परिचय

श्री दयाल चन्द्र सोनी

(1919-2008)

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श्री दयाल चन्द्र सोनी का जन्म उदयपुर (राजस्थान) से 70 किलोमीटर दूर स्थित सलूम्बर कस्बे में 28 जुलाई 1919 को हुआ। इनके पिताजी का नाम श्री हीरा चन्द्र जी सोनी और माता जी का नाम श्रीमती नाथी बाई था। इनके दो भाई, एक बड़े स्व. श्री भेरू लाल जी एवं दूसरे छोटे स्व. श्री जमना लाल जी थे। दो छोटी बहिनें- एक स्व. श्रीमती मगन बाई एवं दूसरी श्रीमती रुक्मणी देवी हैं। उदयपुर के समीप के गाँव बेदला निवासी श्रीमान् डाल चन्द्र जी सोनी की सुपुत्री श्रीमती राय कुँवर से 1940 में इनका विवाह हुआ।

श्री सोनी ने कक्षा छ: तक की पढ़ाई सलूम्बर में पूरी की व 13 वर्ष की आयु में सन् 1932 में विद्याभवन, उदयपुर में कक्षा 7 में अध्ययन प्रारंभ किया। ये प्रारंभ से ही एक प्रतिभावान छात्र रहे। एक तरफ तो इनकी पारिवारिक निर्धनता थी और दूसरी तरफ इनकी प्रतिभा को खिलने का मौका देने का सवाल था। विद्याभवन के संस्थापक स्व. श्री मोहन सिंह जी मेहता के प्रयास से सलूम्बर के तत्कालीन राव सा. श्रीमान् खुमाण सिंह जी ने इनको पाँच रुपया मासिक की छात्रवृत्ति मंजूर की तथा विद्याभवन ने उनकी ट्यूशन एवं छात्रावास की फीस माफ कर दी। सन् 1936 में विद्याभवन उदयपुर से इन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उस समय तक विद्याभवन स्कूल से प्रथम श्रेणी प्राप्त करने वाले ये अकेले छात्र थे। इस उपलब्धि को देखते हुए 17 वर्ष की आयु में ही इन्हें विद्याभवन में हिन्दी भाषा शिक्षक नियुक्त किया गया। नौकरी करते हुए ही प्राईवेट विद्यार्थी के रूप में इन्होंने 1939 में इंटरमीजिएट एवं 1950 में बी.ए. की परीक्षा स्वयंपाठी छात्र के रूप में उत्तीर्ण की।

1941 में जब विद्याभवन सोसायटी ने महात्मा गांधी द्वारा प्रतिपादित उद्यम केन्द्रित नई तालीम का बुनियादी विद्यालय खोला तो शिक्षा के इस नवीन तथा कठिन काम का उत्तरदायित्व संभालने के लिये श्री दयाल जी को चुन कर विद्याभवन बुनियादी मदरसे का प्रधानाध्यापक नियुक्त कर दिया। इस जिम्मेदारी को संभालते हुए उन्हें जामिया मिल्लिया इस्लामिया (दिल्ली) में डॉ. ज़ाकिर हुसैन से भी शिक्षा प्राप्त की। जामिया में आपने बुनियादी तालीम के साथ साथ उर्दू भाषा में भी महारत हासिल की क्यों कि वहाँ शिक्षा का माध्यम उर्दू था। इनके पिताजी ने भी इन्हें बचपन में उर्दू सीखने काज़ी के पास भेजा था जो बाद में उर्दू सीखने में सहायक बना। सेवाग्राम का ही प्रभाव था कि उन्होंने ताउम्र खादी पहने का संकल्प लिया। इस संकल्प में उनकी पत्नी ने भी पूरा पूरा साथ दिया और इसके बाद दोनों खादी ही पहनी।

1941 से 1955 तक इन्होंने विद्याभवन बुनियादी मदरसे के प्रधानाध्यापक के रूप में निष्ठापूर्ण काम सफलतापूर्वक किया व बुनियादी शिक्षा की समझ को विद्यार्थियों, अभिभावकों एवं अध्यापकों तक धैर्य एवं मौलिकता के साथ सही तरीके से पहुँचाया। इसका परिणाम यह हुआ कि उस समय मेवाड़ रियासत के शिक्षा मंत्री श्री लक्ष्मी लाल जी जोशी ने मेवाड़ के सरकारी स्कूलों में बुनियादी शिक्षा प्रारंभ करने का निर्णय लिया तथा योजना बनाने का काम भी इन्हें सौंपा। आपने यह काम बखूबी अंजाम दिया और राजकीय शिक्षकों को बुनियादी शिक्षा की प्रारंभिक ट्रेनिंग भी दी। 1944 में जब चक्रवर्ती राजगोपालाचारी विद्याभवन आये तो वे दयालजी द्वारा संचालित विद्याभवन के बुनियादी मदरसे का काम देखकर बहुत प्रसन्न हुए। 1945 में विद्याभवन में श्री सोनी को बुनियादी तालीम का कार्य देखने तथा सीखने हेतु सेवाग्राम व पवनार भेजा जहॉं आपको महात्मा गॉंधी, विनोबा जी एवं आशा देवी आर्यनायकम के सानिध्य में रहने और सीखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

1954 में भारत सरकार ने डेनमार्क के फॉक हाई स्कूल प्रणाली की भारत के लिये उपयोगिता का अध्ययन करने हेतु तीन माह के लिये इन्हें नानाभाई भट्ट के नेतृत्‍व में भारत के 18 शिक्षाविदों की मंडली में एल्सीनोर (डेनमार्क) भेजा।

सन् 1956 में वैचारिक मतभेद के चलते विद्याभवन ने इन्हें अनुशासनहीनता के आरोप में सेवा से निष्कासित कर दिया। लेकिन विद्याभवन के संविधान के अनुसार वे विद्याभवन के ”आजीवन सदस्य” थे। यानी कि इन्होंने यह शपथ पत्र विद्याभवन को दिया था कि विद्याभवन जो भी पद व वेतन देगा उस पर वे कम से कम 14 वर्षों तक विद्याभवन की सेवा करेंगे। अब, जब कि विद्याभवन ने इन्हें सेवाओं से प़थक कर दिया तो इन्होंने अपने वचन का पालन करते हुए अपने आपको विद्याभवन के शून्य पद पर शून्य वेतन का कार्यकर्ता मानते हुए कई अवसर होते हुए भी और कहीं भी नौकरी नहीं की और ट्यूशन, टाइपिंग, लेख एवं पुस्तक लेखन तथा बाद में 1962 से आटा चक्की से अपना और अपने परिवार का गुजारा किया। यह आटा चक्की आज भी उनकी ईमानदारी, स्वाभिमान एवं साख की प्रतीक है।

इस दौरान उनकी पत्नी श्रीमती राय कुँवर ने इनके आत्म सम्मान की रक्षा का पूर्ण रूप से समर्थन करते हुए गोपालन व सिलाई कार्य करके परिवार के भरण पोषण में पूरा सहयोग प्रदान किया। इनके हर निर्णय में वे मजबूती से साथ खड़ी रही।

1969 में स्व. श्री मोहन सिंह जी मेहता वर्षों बाद जब उदयपुर पधारे तो उन्हें वस्तुस्थिति विदित हुई व उन्होंने पुन: इन्हें विद्याभवन में नियुक्ति प्रदान की। बाद में इन्होंने सेवा मंदिर संस्था के गठन के समय से ही ग्रामीण क्षेत्र में प्रौढ़ शिक्षा के प्रसार का कार्य किया। इसमें भी इन्होंने कई मौलिक प्रयोग किये। जिसमें प्रमुख बात यह थी कि प्रौढ़ शिक्षा का प्रारंभिक कार्य क्षेत्रीय भाषा अर्थात् स्थानीय लोकवाणी में ही किया जाये। इसी पर वर्ष 2001 में भारतीय प्रौढ़ शिक्षा संघ, नई दिल्ली द्वारा इन्हें टैगोर साक्षरता पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

इसी दौरान 1969 में दयालजी ने देवाली गॉंव के 80 परिवारों के अकारण विस्थापना को लेकर नगर विकास प्रन्यास, उदयपुर के विरुद्ध अनशन किया और अपनी दृढ़ता से बस्ती के लोगों के हितों की रक्षा की। इन्होंने 1977 से 1988 तक अपनी बस्ती में श्री जय प्रकाश नारायण के आह्वान पर लोक शक्ति एवं लोकानुशासन के जागरण का कार्य भी किया।

इन्होंने 1973 से 1977 तक वर्ल्ड लिटरेसी ऑफ कनाडा, टोरंटो द्वारा आर्थिक सहायता से साक्षरता प्रसार में लगी हुई भारत की विभिन्न संस्थानों को आर्थिक सहायता स्वीकृत करने की अनुशंसा करने व इनके काम की देखरेख की जिम्मेदारी का निर्वाह ”प्रोग्राम ऑफिसर” के रूप में करते हुए लगभग पूरे भारत वर्ष में लगातार यात्राएँ कीं।

1988 से 1994 तक सेवा मंदिर संस्था में लोकवाणी एवं लोक संस्कृति के पोषण के कार्य हेतु वे पुन: सेवारत रहे एवं 75 वर्ष की आयु में सेवा निवृत हुए।

1990 में आपका ग्रंथ ”अनौपचारिक शिक्षा का सही स्वरूप” दिल्ली से प्रकाशित हुआ। 1992 में उत्तरप्रदेश सरकार के हिन्दी संस्थान ने इस पुस्तक पर ”पंडित मदन मोहन मालवीय पुरस्कार” से सम्मानित किया।

आपके लगभग 300 मौलिक लेख देश में तथा कुछ लेख विदेशों में प्रकाशित हैं।

1959 में उदयपुर जिले में दस दिनों तक संत विनोबा भावे की भूदान यात्रा हुई जिसमें श्री दयाल जी को यात्रा के दौरान लालटेन लेकर विनोबा भावे से 30 कदम आगे चलने का दायित्व सौंपा गया। विनोबा जी के इस निकट सान्निध्य ने श्री दयाल जी को गीता के अध्ययन के लिये विशेष रूप से प्रेरित किया।

प्रतिदिन सोने से पहले वे श्रीमद्भगवद्गीता एवं रामायण की कुछ तय चौपाइयों का भी नियमित पाठ किया गरते थे। इन चौपाइयों का संभवत: उनके जीवन पर बहुत प्रभाव था-

रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि विभीषन भयउ अधीरा।।

अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा।।

नाथ न रथ नहीं तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना।।

सुनहु सखा कह कृपा निधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।।

सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।।

बल बिवेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे।।

ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना।।

दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिज्ञान कठिन कोदंडा।।

अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जन नियम सिलीमुख नाना।।

कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम विजय उपाय न दूजा।।

सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें।।

महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।

जाके अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर।।80

इसा हिन्दी अनुवाद इस प्रकार से है-

रावण को रथ पर ओर श्री रधुवीर को बिना रथ के देख कर विभीषण अधीर हो गये। प्रेम अधिक होने से उनके मन में संदेह हो गया कि वे बिना रथ के, रावण को कैसे जीत सकेंगे। श्रीराम जी के चरणों की वंदना करके वे स्नेह पूर्वक कहने लगे- हे नाथ। आपके न रथ है, न तन की रक्षा करने वाला कवच है और न जूते ही हैं। वह बलवान् वीर रावण किस प्रकार जीता जायेगा। कृपानिधान श्री रामजी ने कहा हे सखे। सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है। शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिये हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंन्द्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं। ईश्वर का भजन ही उस रथ को चलाने वाला चतुर सारथि है। वैराग्य ढाल है और सन्तोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है। निर्मल (पाप रहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम, ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरू का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है। हे सखे। ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिये जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है। हे धीर बुद्धि वाले सखा। सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान् दुर्जय शत्रु को भी जीता जा सकता है, (रावण की तो बात ही क्या है)।

गीता से उन्‍होंने पाया ”योग: कर्मसु कौशलम्” अर्थात् जीवन में कर्मों को करने की जो चतुराई, कारीगरी, कला, तरकीब या कुशलता है वही योग है। वे अपना हर कार्य पूरी कुशलता से करते थे।

प्रकाशित हिन्दी पुस्तकें

  1. बुनियादी शिक्षा क्या और कैसे?
  2. मूल उद्योग – खेती और खादी
  3. सहजीवी गाँव – इजराइल का एक प्रयोग (अनुवाद)
  4. अक्षदात्री माँ – वैल्दी फिशर
  5. अनौपचारिक शिक्षा- संकल्पना एवं दिशाएँ
  6. वृक्ष कथा
  7. अनौपचारिक शिक्षा की राम कथा
  8. वर्तमान प्रौढ़ शिक्षा की चुनौती
  9. मत्स्यबकुलीकरणोपाख्यान
  10. बाबा आमटे
  11. अनौपचारिक शिक्षा का सही स्वरूप
  12. स्वराज की प्रौढशिक्षा- लोकानुशासन
  13. गीतोपदेश परिचय
  14. राजस्थान शिक्षा विभाग हेतु कक्षा 6 एवं 7 की सामाजिक ज्ञान की पाठ्य पुस्तकें (सन् 1960 में)

प्रकाशित मेवाड़ी लोकवाणी में पुस्तकें

  1. शिक्षांजलि
  2. नारी महिमा मंजरी
  3. लोकानुशासन री भूमिका तथा निष्ठा
  4. शिक्षा रा तीन डग
  5. म्हूँ अणभणियो शिक्षित हूँ

अंग्रेजी में पुस्तकें

  1. मोटीवेशनल आस्पेक्ट्स ऑफ एडल्ट एज्यूकेशन इन इंडिया
  2. पेडेगॉजी इन द भगवद्गीता
  3. ऑल्टरनेटिव स्कूलिंग (विथ रेफरेंस टू गॉंधी, गीता एण्ड विवेकानन्द)

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